________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कहा गया है, क्योंकि वे रात्रि में आहार की खोज में भटकते थे। "वायुपुराण' के अनुसार कणाद का जन्म प्रभास क्षेत्र में हुआ था और वे अवतार तथा प्रभासनिवासी आचार्य सोमशमन के शिष्य थे। उदयनाचार्य ने अपने "किरणावली" ग्रन्थ में उन्हें कश्यप-पुत्र माना है। पाशुपत-सूत्र में कणाद को पाशुपत कहा गया है। एक जनुश्रुति के अनुसार भगवान शिव से साक्षात्कार होने पर उनकी कृपा और आदेश से कणाद ने वैशेषिक दर्शन की रचना की। रचनाकाल बुद्ध से आठ सदी पूर्व माना जाता है। इसमें 10 अध्याय हैं, और हर अध्याय में दो आह्निक हैं। वैशेषिक दर्शन में पदार्थ के सामान्य और विशेष गुणों की चर्चा एवं परमाणुवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन है। कणाद तर्कवागीश- ई. 17 वीं शती। रचनाएं- मणिव्याख्या, भाषारत्नम् और अपशब्दखण्डनम्। कन्हैयालाल- वल्लभ-संप्रदास की मान्यता के अनुसार, भागवत की महापुराणता के पक्ष में गंगाधर भट्ट द्वारा लिखित"दुर्जन-मुख-चपेटिका" पर, आपने "प्रहस्तिका" नामक व्याख्या लिखी। मूल "चपेटिका" तो लघु है, किंतु आपने अपनी व्याख्या- “प्रहस्तिका" में विषय का बड़े विस्तार के साथ प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत व्याख्या की पुष्पिका से आप गंगाधर भट्ट के पुत्र निर्दिष्ट किये गये हैं। कपालीशास्त्री ति.वि.- ब्रह्मश्री उपाधि से विभूषित। पाण्डेचरी अरविंदाश्रम के निवासी। रचना- (1) ऋग्वेद का सिद्धांजन नामक भाष्य, (2) वासिष्ठगणपतिमुनिचरितम् और मातृभूस्तवन तथा भारतीस्तवः आदि अनेक राष्ट्रवादी मुक्तक काव्य । कपिल (महर्षि)- सांख्यदर्शन के आधाचार्य। जन्मस्थान- सिद्धपुर। कर्दम व देवहूति के पुत्र । भागवत पुराण में इन्हें विष्णु का 5 वां अवतार कहा गया है। इनके बारे में महाभारत, भागवत आदि ग्रंथों में परस्पर-विरोधी कथन प्राप्त होते हैं। स्वयं महाभारत में ही प्रथम कथन के अनुसार ये ब्रह्मा के पुत्र हैं, तो द्वितीय वर्णन में अग्नि के अवतार कहे गए हैं (महाभारत, शांतिपर्व, अध्याय 218)। अतः कई देशी-विदेशी आधुनिक विद्वानों ने इन्हें ऐतिहासिक व्यक्ति न मान कर काल्पनिक ही माना है। पर प्राचीन परंपरा में आस्था रखने वाले विद्वान, इन्हें एक ऐतिहासिक व्यक्ति एवं सांख्यदर्शन का आदि प्रवर्तक मानते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण, स्वयं को सिद्धों में कपिल मुनि बताते हैं। "सिद्धान्तों कपिलो मुनिः" (गीता 10-26) । ब्रह्मसूत्र के "शांकरभाष्य" में शंकर ने इन्हें सांख्य-दर्शन का आद्य उपदेष्टा और राजा सगर के 60 सहस्र पुत्रों को भस्म करने वाले कपिल मुनि से भिन्न स्वीकार किया है। [ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य (2-1-1)] | इन विवरणों के अस्तित्व में कपिल की वास्तविकता के प्रति संदेह नहीं किया जा सकता। प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान गाबे ने अपने ग्रंथ "सांख्य फिलॉसफी" में मैक्समूलर व कोलबुक के निष्कर्षों का खंडन
करते हए कपिल को ऐतिहासिक व्यक्ति सिद्ध किया है । महर्षि कपिल रचित दो ग्रंथ प्रसिद्ध है। "तत्त्वसमास" और "सांख्यसूत्र"। कपिल के शिष्य का नाम आसुरि था जो सांख्यदर्शन के प्रसिद्ध आचार्य हैं। कपिल के प्रशिष्य पंचशिख हैं और वे भी सांख्यदर्शन के आचार्य हैं। तकों और तथ्यों से निष्कर्ष निकलता है कि कपिल बुद्ध से पहले तथा कम-से-कम कुछ उपनिषद लिखे जाने के पूर्व ही ख्याति प्राप्त कर चुके थे। बुद्ध के जन्मस्थान "कपिलवस्तु" का नामकरण भी, वहां कपिल मुनि के वास्तव्य के कारण हुआ माना जाता है। कपिल के सांख्य-शास्त्र में कर्म की अपेक्षा ज्ञान को अधिक महत्त्व दिया गया है। श्वेताश्वर-उपनिषद् में सांख्य-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। कपिल ने सर्वप्रथम प्रकृति और पुरुष के भेद-ज्ञान के द्वारा विकासवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। कपिल निरीश्वरवादी थे। कपिल के नाम पर सांख्यसूत्र
और तत्त्वसमास के अलावा व्यास-प्रभाकर, कपिल-गीता, कपिल-पंचरात्र, कपिल-संहिता, कपिल-स्तोत्र व कपिल-स्मृति नामक ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। कपिलदेव द्विवेदी : ई. 20 वीं शती। काशी हिन्दू वि. वि. के धर्मशास्त्र विभाग के अध्यक्ष। राधाप्रसाद शास्त्री के पुत्र । पंजाब में एम्.ए., शास्त्री, एम.ओ.एल., एलएल.बी. आदि उपाधियां प्राप्त की। भारत सरकार के न्यायविभाग के विशेष कार्याधिकारी। तत्पश्चात् उ. प्र. शासन के विदेश-कार्याधिकारी। संस्कृत-परिषद् के संस्थापक एवं प्रवर्तक। “परिवर्तन" नामक नाटक के रचयिता। कमलभाव : मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय देशीगण और पुस्तकगच्छ के आचार्य माघनन्दि के शिष्य। समय ई. 13 वीं शती। ग्रंथ-शान्तीश्वरपुराण। मल्लिकार्जुन ने इस ग्रंथ से कुछ पद्य उद्धृत किये हैं। कमलशील : काल ई. 8 वीं शती। शांतरक्षित के शिष्य तथा बौद्ध न्याय के पंडित, नालंदा में तंत्रशास्त्र के अध्यापक। बाद में तिब्बत के राजा के निमंत्रण पर तिब्बत चले गये। चीनी धर्मोपदेशक महायान होशंग को वाद-विवाद में परास्त किया। न्यायबिंदु पूर्वपक्ष और तत्वसंग्रहपंजिका नामक दो ग्रन्थों के लेखक। कमलाकर भट्ट (प्रथम) • ई. 17 वीं शताब्दी के एक धर्मशास्त्रकार। पिता-रामकृष्ण भट्ट। इनका ग्रंथ-लेखन-काल, 1610 से 1640 ई. तक माना जाता है। इनके ग्रंथों से जैसा स्पष्ट है, ये न्याय, व्याकरण, मीमांसा, वेदांत, साहित्य शास्त्र, वेद और धर्मशास्त्र के प्रकांड पंडित थे। इनके द्वार प्रणीत ग्रंथों की संख्या 22 है, जिनमें अधिकांश धर्मशास्त्र विषयक हैं। इनके निर्णयसिंधु, दानकमलाकर, शांतिरत्न, विवादतांडव, गोत्रप्रवरदर्पण, कर्मविपाकरत्न आदि ग्रंथों में निर्णयसिंधु, विवाद-तांडव तथा शूद्रकमलाकर अति प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।
286 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
For Private and Personal Use Only