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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महेश्वरलता महाविद्यालय के प्राचार्य। तत्पूर्व लोहना विद्यापीठ में प्रधान अध्यापक। पिता- म.म.हर्षनाथ शर्मा ('उषाहरण' के । लेखक)। राजसभापण्डित। मैथिली में भी अनेक नाटकों का । सर्जना कृतियां-शशिकला-परिणय (पांच अंकी नाटक) और पूर्णकाम (एकांकी रूपक)। भाषिक ज्योतिष शास्त्र के एक आचार्य। इनके बारे में कोई प्रमाणिक विवरण प्राप्त नहीं होता। इन्हें जैन धर्मानुयायी ज्योतिषी माना जाता है। 'कैटलोगस् कैटागोरम' (आफ्रेट कृत) में इन्हें प्रसिद्ध ज्योतिषशास्त्री आचार्य गर्ग का पुत्र कहा गया है। ऋषिपुत्र का लिखा हुआ 'निमित्तशास्त्र' नामक ग्रंथ संप्रति उपलब्ध है। तथा इनके द्वारा रचित एक संहिता के उद्धरण, 'बृहत्संहिता' की भट्टोत्पली टीका में प्राप्त होते हैं। ज्योतिष-शास्त्र के प्रकांड पंडित वराहमिहिर के ये पूर्ववर्ती ज्ञात होते हैं। वराहमिहिर ने 'बृहज्जातक' के 26 वें अध्याय में इनका प्रभाव स्वीकार किया है। एम. अहमद (प्रा.)- विल्सन महाविद्यालय (मुंबई) में फारसी के प्राध्यापक। अनुवाद- कृति 'दुःखोत्तर' सखम्' (मूल अरबी कथासंग्रह अल्फरजबादष्पिद्द) और फारसी में देहिस्तानी से अनूदित जामे उहलीकायान्। ओक, महादेव पांडुरंग- पुणे के निवासी। आपने संत ज्ञानेश्वर प्रणीत ज्ञानेश्वरी (भावार्थ-दीपिका के प्रथम ६ अध्यायों) का संस्कृत-अनुवाद किया जो मुद्रित भी हो चुका है। अन्य रचनाएं- कुरुक्षेत्रम् (15 सर्गो का) महाकाव्य और ममंग-रसवाहिनी। मोपमन्यव- यास्काचार्यद्वारा निर्दिष्ट निरुक्तकारों में एकतम । आचार्य औपमन्यव का मत निरुक्तकार ने बारह बार उपस्थित किया है। बृहद्देवता में भी औपमन्यव आचार्य का एक बार निर्देश है। और्णवाभ- निरुक्तकार यास्काचार्य ने आचार्य और्णवाभ का पांच बार निर्देश किया है। बृहदेवता में भी और्णवाभ आचार्य का एक बार निर्देश मिलता है। प्रसिद्ध ऋग्भाष्य-रचियता आचार्य वेंकटमाधव भी अपने प्रथम ऋग्भाष्य में और्णवाभ का निर्देश करते हैं। औदुम्बरायण- यास्काचार्य ने जिन बारह निरूक्तकारों का निर्देश किया है, उनमें औदुम्बरायण एक हैं। निरुक्त 1-1 में यह नाम उल्लिखित है। औदंबराचार्य- वैष्णवों के निंबार्क-संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य निंबार्क के शिष्य । निवासस्थान- कुरुक्षेत्र के पास । मुख्य ग्रंथ(1) औदुंबर-संहिता और (2) श्री. निंबार्क-विक्रांति । औरभट्ट- 'व्याकरणप्रदीपिका' नामक अष्टाध्यायी-वृत्ति के लेखक। समय -ई.18 वीं शती। कंठमणि शास्त्री- जन्म- 1898 ई.। श्री. शास्त्री का जन्म दतिया (मध्यप्रदेश) में हुआ, किन्तु उनका कर्मक्षेत्र कांकरौली रहा है। उनके पिता श्री. बालकृष्ण शास्त्री थे । आप कांकरौली महाराजा के निजी पण्डित और उनके ही विद्या-विभाग, सरस्वती-भण्डार, पुस्तकालय तथा चित्रशाला के अध्यक्ष थे। आपको महोपदेशक, शुद्धाद्वैतभूषण एवं कविरत्न की उपाधियां तथा स्वर्णपदक पुरस्कारस्वरूप प्राप्त हैं। आपके प्रसिद्ध काव्य हैं- 1. चाय-चतुर्दशी, 2. उपालम्भाट, 3. 'पक्वान्नप्रशस्तिः , 4. काव्य-मणिमाला और 5. कविता-कुसुमाकर। "सुरभारती" पत्रिका में भी आपकी स्फुट रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। आपके पत्रिका NR 5. कावता-कुसुमाकर द्वारा सम्पादित ग्रन्थ हैं- 1. ईशावास्योपनिषत् (सटीक), 2. केनोपनिषत् (सटीक), 3. विष्णुसूक्तम् (सटीक), 4. श्रीनाथ-भावोच्चय (सटीक), 5. रसिकरंजनम् (आर्यासप्तशती) तथा 6. सम्प्रदाय-प्रदीप। कंदाड अप्पकोण्डाचार्य- आपने अद्वैत-विरोधी तथा विशिष्टाद्वैत (वैष्णव) वादी 60 ग्रंथ लिखे। (डॉ. राघवन द्वारा उल्लिखित)। कक्षीवान- ऋग्वेद के सूक्तद्रष्टा। दीर्घतमा और उशिज के पुत्र। उनकी जन्मकथा इस प्रकार बतायी जाती है- दीर्घतमा एक बार नदी में गिर पड़े और बहते-बहते अंगदेश के किनारे जा लगे। उन्होंने वहां के राजा से भेंट की। राजा को संतान नहीं थी। अतः दीर्घतमा से पुत्रप्राप्ति की आशा से राजा ने उशिज नामक अपनी दासी को उनके पास भेजा। उनसे जो पुत्र हुआ, वही कक्षीवान् हैं। वे स्वयं को पज्रकुल का मानते थे। वे क्षुतिरथ प्रियरथ और सिन्धुतट पर राज्य करनेवाले भाव्य राजा के पुरोहित थे। वे स्वयं बड़े दानी थे। उन्होंने दान की महत्ता इस प्रकार बतायी है नाकस्य पृष्ठे अधितिष्ठति श्रितो यः पृणाति स ह देवेषु गच्छति। सस्मा आपो धृतमर्षन्ति सिन्धवस्तस्मा इयं दक्षिणा पिन्वते सदा। अर्थात् जो कोई दान-धर्म से ईश्वर को संतुष्ट करता है, वह स्वर्ग के शिखर पर पहुंचकर वहीं निवास करता है। देव-मंडल में उसका प्रवेश होता है। स्वर्ग तथा पृथ्वी की नदियां उसकी ओर ही घृत का प्रवाह बहा कर ले जाती हैं। उसी के लिये यह उर्वरा भूमि समृद्धि से भर जाती है। कक्षीवान् के सूक्तों में इन्द्र व अश्विनों के सामर्थ्य और परोपकार की अनेक कथाओं के बीज है। कणाद- वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक। उनके कणाद, कणभक्ष, कणभुक्, उलूक, काश्यप, पाशुपत आदि विविध नाम हैं। इनके आधार पर ये काश्यपगोत्री उलूक मुनि के पुत्र सिद्ध होते हैं। एक जनश्रुति के अनुसार वे सड़क पर गिरे हुए या खेतों में बिखरे हुए अनाज के कणों का भोजन करते थे। इसलिये वे 'कणाद' कहलाये। सूत्रालंकार में उन्हें "उलूक" REFE संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 285 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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