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ऐसा एक भी शब्द नहीं, जो आर्यों के आक्रमण की कल्पना सिद्ध कर सके। शूद्र वर्ण मूलतः अनार्य है यह विचार, जितना तर्कदुष्ट उतना ही निर्बुद्ध है। (But there is not one word in our scripture, not one to prove that the Aryans ever came, from any where out side of India- of Ancient India, which includes Afaganistan, within it. The theory that the shoodra caste is all non-Aryan is equally illogical and equally irrational.)
__ वेदकाल के अन्वेषण में तथाकथित आर्यवंश और उस के भारत पर आक्रमण का विषय, कुछ यूरोपीय पंडितों द्वारा चर्चा का विषय बनाया गया। परंतु उनके इस विचार का खंडन अनेक श्रेष्ठ विद्वानों ने अकाट्य युक्तिवादों से किया है। तथापि आज भी भारत की सभी पाठ्य पुस्तकों में आर्यों के आक्रमण के पाठ बालकों को पढ़ाए जाते हैं यह दुर्भाग्य है। तात्पर्य वेद निर्मिति के स्थल एवं काल के विषय में आनुषंगिकतया प्रसृत हुई आर्यों के आक्रमण की कल्पना मिथ्या होने के कारण, उसके आधार पर निर्धारित वेद कालविषयक मतमतांतरों को विशेष महत्त्व देने की आवश्यकता हम नहीं मानते।
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वेदविषयक परंपरागत दृष्टिकोण वेदों की रचना का कालनिर्णय करने का प्रयास करनेवाले आधुनिक अभारतीय तथा भारतीय विव्दानों ने अपने भिन्न भिन्न मतों का प्रतिपादन करते हुए एक ने दूसरे का खंडन किया है। इस परस्पर शिरश्छेद के कारण इस विषय में प्रतिपादित मतों में से कोई भी एक विशिष्ट मत प्रतिष्ठित नहीं हुआ है। प्रायः भारतीयों को वेदों की प्राचीनता प्रतिपादन करने वाला मत ग्राह्य लगता है और अभारतीय लोगों को उस की अर्वाचीनता प्रतिपादन करने वाला मत उपादेय लगता है। इस वेदकाल विषयक विवाद में, वेदों के प्रति नितांत श्रद्धा अन्तःकरण में धारण करने वाले परंपरावादी भारतीय विद्वानों के युक्तिवादों को ध्यान में लेना अत्यंत आवश्यक है। वैदिक धर्म का परिचय होने के लिए उन युक्तिवादों का ठीक आकलन विशेष महत्त्व रखता है।
__ प्राचीन भारतीय विद्वानों के मतानुसार वेदनिर्मिति के काल का निर्णय करना असंभव माना गया है। संसार के सभी इतिहासज्ञों का इस बात में मतैक्य है कि वेद संसार का आज उपलब्ध होने वाला सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ ज्ञानधन है। परंतु उसका काल वे निर्धारित नहीं कर सके। ईसापूर्व 1000 से 75000 वर्षों तक अन्यान्य शताब्दियों में वेदों की निर्मिति मानने में कोई स्वारस्य नहीं। इन अन्वेषकों का अध्ययन और चिन्तन अभिनन्दनीय है परंतु उनके निष्कर्ष स्वीकारयोग्य नहीं है।
प्राचीन परंपरावादी भारतीयों की इस विषय में जो धारणा है उसका सारांश इस प्रकार दिया जा सकता है
वेद नित्य है और सृष्टि के प्रारंभ से ही वेदों का आविर्भाव हुआ होगा। जिस परमात्मा ने सृष्टि की निर्मिति की, उसी परमात्मा ने उसके पहले वेद निर्माण किए होंगे। जैसे कुम्हार जब घट की निर्मिति करता है तो उसके पहले अपनी बुद्धि में उसकी निर्मिति कर, तदनुसार मिट्टी को आकार देता है। कोई भी कार्य किसी कर्ता के बिना नहीं हो सकता। यह ब्रह्माण्ड भी एक कार्य ही है, अतः तर्कानुसार उसके भी किसी कर्ता का अस्तित्व मानना ही चाहिए। प्रत्येक कर्ता अपना कार्य, अपनी बुद्धि में आलिखित करने के बाद ही उसे साकार करता है। इस निरपवाद सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्डरूपी कार्य का आलेख, उसके कर्ता की बुद्धि में प्रथम निर्माण होना चाहिये। परंपरावादियों का युक्तिवाद है कि सृष्टि के विधाता ने जिस आलेख अथवा जिस विचार की सर्वप्रथम कल्पना अपनी बुद्धि में की, वही "आम्नाय" याने वेद है। सामान्य तर्क के अनुसार ब्रह्माण्डरूपी कार्य के कर्ता को (कार्यनिर्मिति के पहले) स्फूर्ति होना आवश्यक है, इस तथ्य को मान्यता देने पर भी यह शंका उपस्थित होती है कि सृष्टि निर्माता की वह स्फूर्ति वेदस्वरूप ही थी, इस बात को मान्य करनेवाला प्रमाण नहीं है। वेदों को ही परब्रह्म परमात्मा का आद्य विचार क्यों माने।
इस शंका का उत्तर प्रत्यक्ष और अनुमान इन प्रमाणों द्वारा देना असंभव होने के कारण आप्तवाक्यरूपी प्रमाण के द्वारा देना आवश्यक होता है। वैदिकों की धारणा के अनुसार वेद ही परमश्रेष्ठ आप्तवाक्य है। इस विषय में वेदों के वचन इस प्रकार है:(1) यज्ञेन वाचः पदवीयमायन्
(3) तस्माद् यज्ञात् सर्वहुतः तामन्वविन्दन् ऋषिषु प्रविष्टाम्।
ऋचः सामानि जज्ञिरे। तामाभृत्या व्यदधुः पुरुत्रा
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् तां सप्तरेभा अभिसन्नवन्ते।। (ऋ. 10/71/3)
यजुस्तस्मादजायत ।। (ऋ. 10/90/9) (2) बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं
(4) तस्मादृचो पातक्षन् । यत् प्रेरयत् नामधेयं दधानाः ।
यजुस्तस्मादपाकयन्। यदेषा श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत्
सामानि यस्य लोमानि प्रेम्णा तदेषां निहितं गुहाविः।। (ऋ. 10/71/1)
अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।। (ऋ. 10/7/20) इन वेदवचनों में यज्ञ (यजनीय , पूजनीय ईश्वर परमात्मा) से ऋक्, यजुः, साम और अथर्व इन चारों वेदों की उत्पत्ति स्पष्ट शब्दों में कही है। अतीन्द्रिय विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आप्तवाक्य का प्रामाण्य क्यों मानना चाहिए यह स्वतंत्र
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /17
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