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'प्रकाश" तथा रघुनाथ शिरोमणी की "दीधिति" नामक टीकाएं प्रसिद्ध हैं। वल्लभाचार्य - आचार्य वल्लभ के विस्तृत जीवन-चरित्र तथा उनके साक्षात् शिष्यों का परिचय, वल्लभसंप्रदाय के विविध ग्रंथों से मिलता है। तदनुसार आचार्य वल्लभ का जन्म सं. 1535 में मध्यप्रदेश के रायपुर जिले के चंपारन नामक स्थान में वैशाख कृष्ण एकादशी को हुआ। इनके पिता-लक्ष्मणभट्ट तेलग ब्राह्मण थे। माता-एल्लम्मागारू। लक्ष्मणभट्ट काशी में हनुमानघाट पर रहते थे। यवनों के आक्रमण की आशंका से काशी छोड कर दक्षिण जाते समय, मार्ग में ही वल्लभ का जन्म हुआ। __ आचार्य वल्लभ की शिक्षा-दीक्षा, पठन-पाठन आदि सभी संस्कार काशी में ही संपन्न हुए। गोपाल कृष्ण इनके कुल-देवता थे। विद्या-वृद्धि के साथ ही इनकी आध्यात्मिकता में भी वृद्धि होती गई और इन्होंने भागवत के आधार पर एक नवीन भक्ति-संप्रदाय को जन्म दिया। यह संप्रदाय "पुष्टि-मार्ग" (वल्लभ-संप्रदाय) कहलाता है। दार्शनिक क्षेत्र में आचार्य वल्लभ का मत “शुद्धाद्वैत" के नाम से प्रसिद्ध है।
वल्लभ के जीवन की अधिकांश महत्त्वपूर्ण घटनाएं काशी, अडेल (प्रयाग के यमुना पार का एक गांव) और वृंदावन में घटित हुईं। इनकी मंत्र-सिद्धि से दिल्ली का तत्कालीन बादशाह सिकंदर लोदी इतना प्रभावित हुआ था कि उसने वैष्णव-संप्रदाय के साथ किसी भी प्रकार का जोर-जुल्म न करने की मुनादी फिरवा दी थी। उसी प्रकार ई. स. 1510 में अपने एक चित्रकार द्वारा आचार्य का एक चित्र बनवा कर दिल्ली के दरबार में लगवाया था। आगे चल कर बादशाह अकबर ने इनके सुपुत्र विट्ठलनाथ की आध्यात्मिकता से प्रभावित होकर, गोकुल तथा गोवर्धन की भूमि इन्हें दे दी, जहां संप्रदाय की ओर से अनेक मंदिरों का निर्माण किया गया।
वल्लभाचार्य के जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना, विजयनगर के महाराजा कृष्णदेव राय द्वारा विहित "कनकाभिषेक' है। इन्होंने कृष्णदेव राय की विशाल सभा में उपस्थित नास्तिकों को परास्त कर मायावाद का भी कुशलतापूर्वक खंडन किया था। वल्लभ ने शुद्धाद्वैत का प्रतिष्ठापन, श्रुतियों एवं युक्तियों के सहारे इतने प्रभावी ढंग से किया कि उपस्थित विद्वानों को इनका पांडित्य स्वीकार करना पडा। राजसभा ने इन्हें "महाप्रभु" की उपाधि से सम्मानित किया। महाराजा ने भी "कनकाभिषेक" द्वारा इनका विशेष सत्कार किया। इन्होंने भारत के तीर्थों की अनेक बार यात्रा की और अपने मत का प्रचार किया। सं. 1549 (- 1492 ई.) में ये व्रज में भी पधारे और वहां अंबाले के एक धनी सेठ पूरनमल खत्री ने 1500 ई. में श्रीनाथजी का एक मंदिर बनवा दिया। वल्लभ ने यहीं रहकर पुष्टिमार्ग की अर्चा एवं सेवा-विधि की व्यवस्था की। 52 वर्ष
की आयु में (1587 वि. = 1530 ई. में) इन्होंने काशी-धाम के हनुमान-घाट पर जल-समाधि ली। इनके वंश में 100 सोमयाग किये गए थे। अतः उनका वंश "सोमयाजी" के नाम से प्रसिद्ध था। ____ वल्लभाचार्य का जन्म मध्यप्रदेश के एक घने जंगल में हुआ। इस सम्बन्ध में यह कथा बतलायी जाती है कि इनके पिता लक्ष्मण भट्ट और मां एल्लम्मागारू गोदावरी तट पर कांकारवाड ग्राम में सुखी दम्पती के रूप में रहते थे। इन्हें एक पुत्र व दो पुत्रियां थी। किन्तु वर्षों के बाद लक्ष्मण भट्ट को अकस्मात् गृहस्थजीवन के प्रति विरक्ति होने लगी और वे प्रेमकर नामक सत्पुरुष के आश्रम में जाकर रहने लगे। उनसे गुरूपदेश ग्रहण किया। कुछ दिनों बाद लक्ष्मण भट्ट के पिता तथा पत्नी, उनकी खोज करते-करते प्रेमकर के आश्रम में जा पहुंचे और लक्ष्मण भट्ट के पूर्वजीवन संबंधी जानकारी देकर उन्हें पुनः गार्हस्थ जीवन में लौटने हेतु प्रेमकर से अनुरोध किया। एल्लम्मागारू की गाथा सुन कर प्रेमकर द्रवित हए
और उन्होंने केवल लक्ष्मण भट्ट को पुनः गार्हस्थजीवन में लौटने हेतु प्रेरित किया वरन् उनकी पत्नी को यह आशीर्वाद भी दिया कि वे शीघ्र ही एक अलौकिक पुत्र को जन्म देंगी। इस आशीर्वाद को पाकर दोनों ही हर्षित होकर पुनः गार्हस्थ जीवन बिताने घर लौटे। कुछ दिनों बाद एल्लम्मागारू गर्भवती हुई। उन दिनों यह परिवार यात्रा पर निकला था। प्रयाग से काशी पहुंचने पर उन्हें यह खबर मिली कि दिल्ली के मुगल सुलतान शीघ्र ही काशी पर आक्रमण करने वाले हैं। लोग काशी छोड कर भागने लगे। लक्ष्मण भट्ट भी अपने परिवार के साथ वापस लौटने लगे। रास्ते में मध्यप्रदेश के रायपुर के निकट चम्पारन के घने जंगल में रात्रि के समय एल्लम्मागारू ने एक पुत्र को जन्म दिया, किन्तु दुर्भाग्य से वह मृत निकला। अतः वहीं एक शमीवृक्ष के नीचे उसे गाड कर वे आगे बढे। दूसरे दिन जब वे अगले गांव पहुंचे तो उन्हें यह पता लगा कि काशी पर सुलतान के हमले की खबर अफवाह मात्र थी। अतः उन्होंने पुःन काशी जाने के इरादे से वही राह पकडी। रास्ते में उस शमी-वृक्ष के पास उन्होंने एक अजीब दृश्य देखा। जिस गड्ढे में मृत बालक को गाडा गया था उस स्थान पर एक अग्निकुंड में बालक खेल रहा है। जैसे ही एल्लम्मागारू ने उस बालक को उठाने हाथ बढाये वह अग्निकुंड बुझ गया और बालक उछलकर उनकी गोद में आ गया। प्रभु की कृपा से अपने बच्चे का पुनर्जन्म हुआ ऐसा मानकर वे उस बच्चे को साथ ले गये, उसका नाम वल्लभ रखा, जो आगे चलकर वल्लभाचार्य के नाम से विख्यात हुआ।
वल्लभाचार्य ने तीन बार भारत यात्रा की और नये सम्प्रदाय की स्थापना कर लगभग 84 ग्रंथों की रचना की। इनमें से केवल 31 ग्रंथ ही आज उपलब्ध हैं, जिनके नाम
440 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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