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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस प्रकार हैं- 1) ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य, 2) श्रीमद्भागवत पर सुबोधिनी नामक टीका, 3) तत्त्वदीपनिबंध, 4) पूर्वमीमांसाभाष्य, 5) गायत्रीभाष्य, 6) पत्रावलंबन, 7) पुरुषोत्तम-सहस्रनाम, 8) दशमस्कंध-अनुक्रमणिका, 9) त्रिविधनामावली, 10) शिक्षाश्लोक-षोडशग्रंथ, 11 से 26 तक यमुनाष्टक, बालबोध, सिद्धान्तमुक्तावली, पुष्टिप्रवाह, मर्यादाभेद, सिद्धान्तरहस्य, नवरत्न, अन्तःकरणप्रबोध, विवेकधैर्याश्रय, कृष्णाश्रय, चतुःश्लोकी, भक्तिवर्धिनी, जलभेद, पंचपद्य, संन्यासनिर्णय, निरोधलक्षण व सेवाफल, 27) भगवत्पीठिका, 28) न्यायादेश, 29) सेवाफल-विवरण, 30) प्रेमामृत, 31) विविध अष्टक। आचार्य वल्लभ के पूर्व प्रस्थान-त्रयी में "ब्रह्मसूत्र", "गीता' और "उपनिषद्' को स्थान मिला था, किन्तु इन्होंने “भागवत'' की "सुबोधिनी' टीका के द्वारा प्रस्थान-चतुष्टय के अंतर्गत श्रीमद्भागवत का भी समावेश किया। इनके दार्शनिक सिद्धांत को शुद्धाद्वैतवाद कहते हैं, जो शांकर-अद्वैत की प्रतिक्रिया के रूप में प्रवर्तित हुआ था। इस सिद्धांत के अनुसार ब्रह्म माया से अलिप्त होने के कारण नितांत शुद्ध है। इसमें मायिक ब्रह्म की सत्ता स्वीकार नहीं की गई है। ___ आचार्य वल्लभ ने अपने "कृष्णाश्रय-स्तोत्र" में तत्कालीन कुटिल स्थिति का वर्णन किया है। तदनुसार- "समस्त देश म्लेच्छों के आक्रमणों से ध्वस्त हो गया था। गंगादि तीर्थों को पापियों ने घेर रखा था तथा उनके अधिष्ठात-देवता अंतर्धान हो गए थे"। ऐसे विपरीत काल में ज्ञान की निष्ठा, यज्ञ-यागादिकों का अनुष्ठान जैसे मुक्ति-मार्गों का अनुसरण असंभव ही था। इस लिये आचार्य वल्लभ ने शूद्रों एवं स्त्रियों सहित सर्वजन-सुलभ "पुष्टि-मार्ग" का प्रवर्तन किया था। वल्लीसहाय - समय- ई. 19 वीं शती। कुलनाम वाधूल। विरिचिपुर निवासी नारायण पंडित के सुपुत्र। कृतियांययाति-तरुणानन्द, रोचनानन्द तथा ययाति-देवयानी-चरित नामक तीन नाटक और शंकराचार्य दिग्विजय-चंपू नामक चरित्र-ग्रंथ। वजी आत्रेय- ऋग्वेद के पांचवे मंडल के 10 वें सक्त के द्रष्टा। इस सूक्त की देवता अग्नि है जिसकी स्तुति में यह सूक्त रचा गया है। वशअश्व - ऋग्वेद के आठवें मंडल के 46 वें सूक्त के रचयिता। 33 ऋचाओं वाले इस सूक्त में, इन्द्र-वायु वर्णन और पृथुश्रवस् के दान की स्तुति की गई है। 21 वीं ऋचा में वश को अदेव याने देवसदृश निरूपित किया गया है। इन पर अश्विनौ की कृपा थी। आरण्यक के अनुसार इस सूक्त में सम्पूर्ण जगत् को वश में करने की शक्ति होने के कारण इसे "वश-सूक्त" नाम प्राप्त हआ. जब कि कछ विद्वानों के अनुसार रचयिता के नाम पर ही यह सूक्त विख्यात हुआ है। वसवराज (या बसवराज) - "वसवराजीवम्" नामक आयुर्वेदशास्त्र के ग्रंथ-प्रणेता। आंध्र प्रदेश के निवासी। समयई. 12 वीं शती का अंतिम चरण। जन्म-स्थान कोटूर ग्राम । नीलकंठ-वंश में जन्म। पिता का नाम नमःशिवाय। ग्रंथान्तर्गत उल्लेख के अनुसार वसवराज शिवलिंग के उपासक थे। इनके ग्रंथ "वसवराजीवम्" का प्रचार दक्षिण भारत में अधिक है। इसका प्रकाशन नागपुर (महाराष्ट्र) से पं. गोवर्धन शर्मा छांगाणी ने किया है। वसिष्ठ - ऋग्वेद के सातवें मण्डल के द्रष्टा। इस मंडल के 104 सूक्त इन्हीं के हैं। इन सूक्तों से वैदिक भूगोल व इतिहास पर काफी प्रभाव पड़ता है। ये मित्रा-वरुण के पुत्र थे किन्तु पौराणिक-युग में इन्हें उर्वशी का पुत्र माना गया। पुराण-वाङ्मय में इन्हें अगस्त्य का भाई बताया गया है। वसिष्ठ की तपस्या और कर्मकौशल्य से प्रसन्न होकर इन्द्र ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिया था। वसिष्ठ और विश्वामित्र के बीच वैमनस्य था। इसका एक कारण यह बताया जाता है कि विश्वामित्र पहले राजा सुदास् के राजपुरोहित थे, किन्तु बाद में उस स्थान पर वसिष्ठ की नियुक्ति की गई। दूसरा कारण यह बताया जाता है कि वसिष्ठ-पत्र शक्ति ने जब वादविवाद में विश्वामित्र को पराजित किया, तब विश्वामित्र ने ससर्परी विद्या के सहारे उस पर विजय पायी। उन दिनों यज्ञकर्म में वसिष्ठ-कुल के लोग आदर्श माने जाते थे। यह भी उनमें वैमनस्य का कारण माना जाता है। कालान्तर में यह वैमनस्य समाप्त हुआ और दोनों ऋषिश्रेष्ठियों ने यज्ञसंस्था के उत्कर्ष में महान् योगदान दिया। वसिष्ठ ने इन्द्र, वरुण, उषा, अग्नि व विश्वेदेव पर सूक्तों की रचना की है। इन्द्र व वरुण-सूक्तों में भक्तिमार्ग के बीज पाये जाते हैं। इनके एक भक्तिपूर्ण मंत्र का आशय है : ___"रस निचोडे बिना केवल सोम ही इन्द्र को अर्पित किया, तो वे कभी संतुष्ट नहीं होंगे। उसी प्रकार रस निचोड कर अर्पित करने पर भी यदि भक्तिपूर्वक प्रार्थना सूक्त न कहें तो भी उन्हें प्रसन्नता नहीं होगी। इसलिये हम प्रार्थनासूक्तों का गान करें। इससे देवता प्रसन्न होंगे और वीरों को प्रिय नया स्तोत्र सुन कर वे हमारा अनरोध स्वीकार करेंगे। वसुक्र ऐन्द्र - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 27 से 29 तक के तीन सूक्तों के द्रष्टा। इनमें प्रथम दो सूक्त इन्द्र-वसुक्र के बीच संवादों के रूप में हैं। इनमें इन्द्र की महत्ता प्रतिपादित की गई है। बृहद्देवता के मतानुसार वसुक्र, इन्द्र का पुत्र था। 27 वें सूक्त में आत्मज्ञान-प्राप्ति और गांधर्वविवाह का विवेचन किया गया है। वसुकर्ण वासुक्र - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 65 व 66 इन दो सूक्तों के द्रष्टा। इनमें विश्व-देवताओं की स्तुति की गयी है। इनमें भुज्यू तौर्य और विश्वक्र कार्णा की कथाएं भी हैं। वसुनन्दी - नेमिचन्द्र के शिष्य। समय-ई. 11-12 वीं शती। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 441 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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