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किया था किन्तु उनमें से 1) महायानसूत्रालंकार 2) धर्मधर्मताविभंग, 3) महायानउतरतंत्र, 4) मध्यान्तविभंग और 5) अभिसमयालंकारिका ये पांच ग्रंथ तिब्बती और चीनी अनुवाद के रूप में विद्यमान हैं। योगाचारसंप्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य आर्यअसंग (ई. 4 थी शती) ने 1) महायानसंपरिग्रह, 2) महायानसूत्रालंकार, 3) प्रकरणआर्यवाचा, 4) योगाचारभूमिशास्त्र (अथवा सप्तदशभूमिशास्त्र) नामक पांडित्यपूर्ण ग्रंथ निर्माण कर, योगाचार मत की प्रतिष्ठापना की थी। सप्तदशभूमिशास्त्र का लघु अंश बोधिसत्त्वभूमि नाम से संस्कृत में उपलब्ध है। शेष ग्रंथ चीनी तिब्बती अनुवादों के रूप में सुरक्षित है।
ई. चौथी शती के महापंडित वसुबंधु (आर्यअसंग के अनुज) सर्वास्तिवाद के प्रतिष्ठापक थे। इनके अभिधर्मकोष के कारण तिब्बत, चीन, जपान आदि देशों में बौद्ध धर्म प्रतिष्ठित हुआ। वसुबंधु ने 1) सद्धर्मपुण्डरीक-टीका 2) महापरिनिर्वाण-टीका, 3) वज्रच्छेदिकाप्रज्ञापारमिता-टीका और 4) विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि नामक चार ग्रंथ महायान संप्रदाय के लिए लिखे और हीनयान संप्रदाय के लिए 1) परमार्थसप्तति, 2) तर्कशास्त्र, 3) वादविधि और 4) अभिधर्मकोश (कारिकासंख्या 6 सौ) नामक चार ग्रंथ लिखे। इनमें अभिधर्मकोष सारे बौद्ध संप्रदायों में मान्यता प्राप्त ग्रंथ है। इस पर स्थिरमति का तत्त्वार्थभाष्य, दिङ्नाग की मर्मप्रदीपवृत्ति, यशोमित्र की स्फुटार्थी, पुण्यवर्मन् की लक्षणानुसारिणी, शान्तस्थविरदेव की औपयिकी तथा गुणमति एवं वसुमित्र आदि की टीकाएं उल्लेखनीय हैं। स्वयं वसुबंधु ने भी अभिधर्मकोशभाष्य नामक टीका ग्रंथ की रचना की थी, जिसका संपादन प्रो. प्रल्हाद प्रधान द्वारा जायसवाल रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पटना से हुआ है। वसुबन्धु के ग्रंथ भी चीनी, तिब्बती और जापानी अनुवादों के रूप में सुरक्षित हैं।
वसुबन्धु के समकालीन संघभद्र उनके प्रतिस्पर्धी थे। इन्होंने अपने अभिधर्मन्यायानुसार (प्रकरणसंख्या-आठ) तथा अभिधर्मसमयदीपिका में वसुबन्धु के मतों का खण्डन कर वैभाषिकमत का पुनरुद्धार करने का प्रयास किया है। वसुबन्धु के शिष्योतम स्थिरमति ने काश्यप परिवर्तटीका, सुत्रालंकारवृत्तिभाष्य, त्रिंशिकाभाष्य, पंचस्कन्धप्रकरणभाष्य, अभिधर्मकोशभाष्यवृत्ति, मूलमाध्यमिककारिकावृति, मध्यान्तविभागसूत्रभाष्यटीका, इन सात टीकात्मक ग्रंथों द्वारा अपने गुरु के सिद्धान्तों को विशद करने का प्रयास किया है।
वसुबन्धु के दूसरे शिष्योत्तम दिङ्नागाचार्य का नाम बौद्ध वाङ्मय में प्रसिद्ध है। शान्तरक्षित, धर्मकीर्ति, कमलशील, और शंकरस्वामी सदृश विद्वान् इनकी शिष्यपरंपरा में थे। इनके ग्रंथों की कुल संख्या लगभग एक सौ मानी जाती है जिनमें 1) प्रमाणसमुच्चय 2) प्रमाणसमुच्चयवृत्ति 3) न्यायप्रवेश, 4) हेतुचक्रडमरु, 5) प्रमाणशास्त्रन्यायप्रवेश, 6) आलंबनपरीक्षा, 7) आलंबनपरीक्षावृत्ति, 8) त्रिकालपरीक्षा और 9) मर्मप्रदीपवृत्ति नामक दार्शनिक ग्रंथ सुप्रसिद्ध हैं। इन ग्रंथों के द्वारा बौद्धन्याय को व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया गया। दिङ्नागाचार्य के ग्रंथ चीनी और तिब्बती अनुवादों के रूप में सुरक्षित हैं। दिङ्नाग के शिष्य शंकरस्वामी के हेतुविद्यान्यायप्रवेश, और 'न्यायप्रवेशतर्कशास्त्र' नामक दो ग्रंथ उल्लेखनीय हैं। धर्मपाल, नालंदा महाविहार के कुलपति थे। शून्यवाद के व्याख्याता धर्मकीर्ति शीलभद्र (हवेनसांग के गुरु) इनके शिष्य थे।
इनके द्वारा लिखित 1) आलंबनप्रत्यवधानशास्त्र 2) विज्ञप्तिमात्रतासिद्धिव्याख्या और 3) शतशास्त्रव्याख्या ये तीन ग्रंथ टीकास्वरूप हैं। धर्मकीर्ति ने बौद्धन्यायविषयक प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय, न्यायबिंदु, सम्बन्धपरीक्षा, हेतुबिन्दु, वादन्याय और सन्तानान्तरसिद्धि नामक सात ग्रंथों की रचना की जिनमें प्रमाणवार्तिक (श्लोकसंख्या 15 सौ) सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। इस ग्रंथ पर अनेक टीकाएँ संस्कृत तथा तिब्बती भाषा में लिखी गई हैं जिनमें से मनोरथनन्दीकृत टीका प्रकाश में आ सकी है। चान्द्रव्याकरण के प्रणेता चन्द्रगोमी (ई. 5-6 शती) ने स्तुतिकाव्य तथा नाटकों की भी रचना की है। राजतरंगिणी में इन्हें व्याकरण महाभाष्य का पुनरुद्धारक माना गया है। चान्द्रव्याकरण के अतिरिक्त इन्होंने 1) शिष्यलेखधर्मकाव्य, 2) आर्यसाधनशतक 3) आर्यातारन्तरबलिविधि और लोकानन्द नामक नाटक की रचना की है।
उपरिनिर्दिष्ट दार्शनिक आचार्यों एवं कवियों के अतिरिक्त धर्मजात (भावनान्यथात्ववादप्रवर्तक) भदन्तघोष (लक्षणान्यथात्ववादप्रवर्तक), वसुमित्र (अवस्थान्यथात्ववाद के प्रवर्तक) सौत्रान्तिक बुद्धदेव (अन्यथात्ववाद के प्रवर्तक) श्रीलाभ (सौत्रान्तिकविभाषा प्रवर्तक), यशोमित्र (स्फुटार्था व्याख्याकार) आदि आचार्यों के नाम बौद्धवाङ्मय की समीक्षा में उल्लेखनीय हैं।
बौद्धों के काव्य ग्रंथों में बुद्ध, बोधिसत्त्व (भावी बुद्ध) तथा उनके अन्य विविध रूपों की कथाओं का ही निर्देश होता है। बुद्धोक्त धर्म, कर्म एवं दर्शन का संगम इन काव्यों में सर्वत्र दिखाई देता है। इसी कारण शास्त्र और काव्य का सुंदर साहचर्य इनमें परिलक्षित होता है। बौद्ध दर्शन के मूलाधार विषयों (चित्त, चेतसिक निर्वाण, शील, समाधि एवं प्रज्ञा) अथवा उसके मूलभूत सिद्धान्तों (चार आर्यसत्यों प्रतीत्यसमुत्पाद, अनात्मवाद, एवं अनित्यवाद आदि) की सहज समीक्षा, व्यक्तित्व निर्माण परक बौद्धकाच्यों में बहुधा हुई है। दार्शनिक जगत् में बौद्ध काव्यकारों का योगदान निश्चय ही स्तुत्य है। इन समस्त बौद्ध कृतियों में जातिवाद, शास्त्रवाद, दैववाद, अतिवाद आदि का प्रबल विरोध लक्षित होता है। भगवान बुद्ध ने परम्परागत समाज जीवन को नवीन ढांचे में ढालने का प्रयास किया था और यही इन बौद्ध संस्कृत कृतियों में प्रतिफलित भी हुआ है।
204/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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