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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 8 दार्शनिक विचार बौद्धमत के जिन दार्शनिक विचारों की अभिव्यक्ति सद्धर्मपुण्डरीक, प्रज्ञापारमितासूत्र, गन्डव्यूहसूत्र, दशभूमिकसूत्र, रत्नकूट, समाधिराजसूत्र सुखावतीव्यूह, सुवर्णप्रभासूत्र तथा लंकावतारसूत्र इन महायानी संस्कृत ग्रंथों में हुई है, उन का संक्षेपतः स्वरूप निम्नप्रकार कहा जा सकता है: - 1 (1) प्रतीत्यसमुत्पादः प्रतीत्य' अर्थात् किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर 'समुत्पाद' याने अन्य वस्तु की उत्पति इसे "कारणवाद" भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार बाह्य और मानस संसार की जितनी भी घटनाएं होती हैं, उनका कुछ ना कुछ कारण अवश्य होता है। अतः वस्तुएं अनित्य हैं। उनकी उत्पत्ति अन्य पदार्थो से होती है। उनका पूर्ण विनाश नहीं होता और उनका कुछ कार्य या परिणाम अवश्य रह जाता है। प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त मध्यममार्गी है। इसमें न तो पूर्ण नित्यवाद और न पूर्ण विनाशवाद का अंगीकार है । प्रतीत्य समुत्पाद के द्वारा कर्मवाद की प्रतिष्ठा होती है, जिस के अनुसार मनुष्य का वर्तमान जीवन, पूर्व जीवन के कर्मों का ही परिणाम है और वर्तमान जीवन का भावी जीवन के साथ संबंध लगा हुआ है। कर्मवाद यह बतलाता है कि वर्तमान जीवन में जो भी कर्म हम करेंगे उन का फल भावी जीवन में हमें प्राप्त होगा। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षणिकवाद :- संसार की सभी वस्तुएं किसी कारण से उत्पन्न होती हैं अतः कारण के नष्ट होने पर उस वस्तु का भी नाश होता है। क्षणिक वाद इस से भी आगे जा कर कहता है कि किसी भी वस्तु का अस्तित्व कुछ काल तक भी नहीं रहता । वह केवल एक क्षण के लिए ही रहता है। अनात्मवाद :- एक शरीर के नष्ट हो जाने पर अन्य शरीर में प्रविष्ट होने वाला 'आत्मा' नामक चिरस्थायी अदृष्ट पदार्थ का अस्तित्व बौद्ध दर्शन को मान्य नहीं है। ईश्वर :- यह संसार दुःखमय है, अतः इस प्रकार के अपूर्ण संसार का निर्माता सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् ईश्वर नहीं हो सकता। जिस प्रकार बीज से अंकुर और अंकुर से वृक्ष परिणत होता है, उसी प्रकार संसार का निर्माण स्वतः होता है। उस के लिए किसी 'ईश्वर' नामक सर्वशक्तिमान् तत्व के अस्तित्व को मानने की आवश्यकता नहीं है सर्वशक्तिमान् ईश्वर का अस्तित्व मानने पर मनुष्य की स्वतंत्रता समाप्त होती है। वह आत्मोद्धार के लिए उदासीन हो जाएगा । बौद्ध दर्शन के वैभाषिक, माध्यमिक, सौत्रान्तिक एवं योगाचार नामक चार संप्रदाय सर्वमान्य हैं। 1) वैभाषिक सिद्धान्त के अनुसार संसार के बाह्य एवं आभ्यन्तर सभी पदार्थो को सत्य माना गया है तथा उनका ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा होता है । अतः इसे "सर्वास्तिवाद" कहते हैं। इस संप्रदाय का सर्वमान्य ग्रंथ हैं कात्यायनीपुत्र कृत “अभिधर्मज्ञान - प्रस्थानशास्त्र और वसुबंधुकृत अभिधर्मकोश । (2) माध्यमिक:- इस मत के अनुसार सारा संसार शून्य है । इस के बाह्य एवं आन्तर सभी विषय असत् हैं। इस मत का प्रतिपादन नागार्जन ने अपने "माध्यमिकशास्त्र" नाम ग्रंथ में किया है। (3) सौत्रान्तिक :- इस मत के अनुसार बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों ही पदार्थ सत्य हैं। परंतु बाह्य पदार्थ को प्रत्यक्षरूप में सत्य न मान कर अनुमान के द्वारा माना जाता है। इसी कारण इसे "बाह्यानुमेयवाद" कहते हैं। इस मत के चार प्रसिद्ध आचार्य हैं, कुमारलाल, श्रीलाल, वसुमित्र तथा यशोमित्र । ( 4 ) योगाचार :- इस मत के अनुसार बाह्य पदार्थ असत्य हैं। बाह्य दृश्य वस्तु तो चित् की प्रतीति मात्र है। विज्ञान या चित् ही एकमात्र सत्य मानने के कारण इसे 'विज्ञानवाद' कहते हैं। इस संप्रदाय के प्रवर्तक हैं मैत्रेय जिन्होंने मध्यान्तविभाग, अभिसमयालंकार, सूत्रालंकार, महायान उत्तरतंत्र, एवं धर्मधर्मताविभाग नामक ग्रन्थों द्वारा इस मत को प्रतिष्ठित किया। दिङ्नाग, धर्मकीर्ति एवं धर्मपाल इसी मत के प्रतिष्ठापक आचार्य थे। = आर्य सत्य :- भगवान् बुद्ध ने चार सत्यों का प्रतिपादन किया है। :- 1) सर्वं दुःखम् । 2) दुःखसमुदय, 3) दुःखनिरोध और 4) दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद् । अर्थात् (1) जीवन जरा मरणपूर्ण अर्थात् दुःखपूर्ण है (2) उस दुःख का कारण होता है शरीर-धारण । (3) दुःख से वास्तविक मुक्त होना संभव है और (4) उस दुःखमुक्ति के कुछ उपाय हैं जिन्हें 'अष्टांगिक मार्ग' कहते हैं। अष्टांगिक मार्ग के अवलंबन से दुःखनिरोध या निर्वाण की प्राप्ति अवश्य होने की संभावना के कारण, यही श्रेष्ठ आचारधर्म बौद्धमत के अनुसार माना गया है। अष्टांगिक मार्ग :- 1) सम्यक् दृष्टि के यथार्थस्वरूप पर ध्यान देना । 2) सम्यक्संकल्प वस्तु दृढनिश्चय पर अटल रहना। 3 ) सभ्यक्वाक् यथार्थ भाषण । 4) सम्यक् कर्मान्त अहिंसा, अस्तेय तथा इन्द्रिय संयम 5 ) सम्यक् आजीव न्यायपूर्ण उपजीविका चलाना । 6 ) सम्यक् व्यायाम सत्कर्म के लिए प्रयत्नशील रहना। 7 ) सम्यक् स्मृति लोभ आदि चित्त विकारों को दूर करना। 8 ) सम्यक् समाधि चित्त को राग द्वेषादि विकारों से मुक्त एवं एकाग्र करना। इस प्रकार सामान्यतः For Private and Personal Use Only = संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 205 -
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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