________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
इन षट् क्यिाओं से घटशुद्धि (अर्थात् शरीर की निर्मलता) होती है और वह सब प्रकार के रोगों से तथा कफ, वात, पित्त के दोषों से मुक्त होता है। जठराग्नि प्रदीप्त होता है।
___ आसनों के संबंध में कहा है कि उनसे शरीर में दृढता आती है। “आसनानि समस्तानि यावन्तो जीवजन्तवः" सृष्टि में जितने भी जीवजन्तु हैं, उनकी शरीरावस्था के अनुसार आसन हो सकते हैं। उनमें 84 आसन करने योग्य है और उनमें भी अधोलिखित 32 आसन उत्तम माने जाते हैं :
सिद्धं पद्मं तथा भद्रं मुक्तं वज्रं च स्वस्तिकम्। सिंहं च गोमुखं वीरं धनुरासनमेव च।।
मृतं गुप्तं तथा मत्स्य मत्स्येन्द्रासनमेव च। गोरक्षं पश्चिमोत्तानम् उत्कटं संकटं तथा।। मयूर कुक्कुटं कूर्म तथा चोत्तानकूर्मकम्। उत्तानमण्डुकं वृक्षं मंडुकं गरूडं वृषम्।।
शलभं मकरम् उष्ट्रं भुजंगं योगमासनम्। द्वात्रिंशदासनानि तु मत्ये सिद्धिप्रदानि च।। इनमें सिद्ध, पद्म, भद्र, मुक्त, वज्र, स्वस्तिक, सिंह, मृत, उग्र, गोरक्ष, मकर और भुजंग इन बारह आसनों के विशेष लाभ बताये हैं।
पद्म, भद्र, स्वस्तिक, सिंह और भुजंग आसन व्याधिनाशक हैं। मकर और भुजंग आसन देहाग्निवर्धक हैं। पद्म, स्वस्तिक और उग्र आसन मरुत्सिद्धिदायक हैं और सिद्ध, मुक्त, वज्र, उग्र तथा गोरक्ष आसन सिद्धिदायक हैं।
मुद्रा : (कुल प्रकार 25) महाभद्रा, नभोमुद्रा, उड्डियान बन्ध, जालंधर बन्ध, मूलबन्ध, महाबन्ध, महावेध, खेचरी, विपरीतकरणी, योनि, वज्रोलि, शक्तिचालिनी, तडागी, माण्डूकी, शाम्भवी, पार्थिवी-धारणा, आम्भसी-धारणा, आग्नेयी-धारणा, वायवी-धारणा, आकाशी-धारणा, आश्विनी, पाशिनी, काकी, मातंगिनी और भुजंगिनी। सुप्त कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करने के हेतु मुद्राओं की साधना आवश्यक मानी है।
(तस्मात् सर्वप्रयत्नेन प्रबोधयितुमीश्वरीम्। ब्रह्मरन्ध्रमुखे सुप्तां मुद्राभ्यासं समाचरेत्।।) हठयोग में कुण्डलिनी शक्ति का उत्थापन अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना है। किंबहुना कुण्डलिनी का उत्थापन ही इस योग का . उद्दिष्ट है। कुण्डलिनी के उत्थान से सर्व सिद्धियों की प्राप्ति और व्याधि तथा मृत्यु का विनाश होता है।
प्रत्याहार से धीरता की प्राप्ति होती है। चंचल स्वभाव के कारण बाहर भटकने वाले मन को आत्माभिमुख करना यही प्रत्याहार है।
प्राणायाम से लाघव प्राप्त होता है। वर्षा और ग्रीष्म ऋतु में प्राणायाम नहीं करना चाहिए तथा उसका प्रारंभ नाडीशुद्धि होने पर ही करना चाहिए। नाडीशुद्धि के लिये समनु प्राणायाम आवश्यक होते हैं। समुन के तीन प्रकार होते हैं। निर्मनु, वातसार धौति का अपर नाम है। प्राणायाम में कुम्भक क्रिया का विशेष महत्त्व होता है। कुम्भक के आठ प्रकार :
सहितः सूर्यभेदश्व उज्जायी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्छा केवली चाष्टकुम्भकाः ।। प्राणायाम की सिद्धता के तीन लक्षण होते हैं। प्रथम लक्षण शरीर पर पसीना आना। द्वितीय - मेरुकम्प और तृतीय लक्षण है भूमित्याग अर्थात् शरीर भूमि से ऊपर उठना। यह प्राणायाम की उत्तम सिद्धता का लक्षण है।
खेचरत्वं, रोगनाशः शक्तिबोधस्तथोन्मनी। आनन्दो जायते चित्ते प्राणायामी सुखी भवेत्।। यह प्राणायम की फलश्रुति है। इस शास्त्र में शरीरस्थ वायु के दस प्रकार, स्थान और क्रिया, भेद से माने जाते हैं।
हृदयस्थान में प्राण । गुद्स्थान में अपान । नाभिस्थान में समान। कंठस्थान में उदान । व्यान सर्व शरीर में व्याप्त होता है। इन पांच वायुओं के अतिरिक्त, नाग = चैतन्यदायक, कूर्म = निमेषणकारक, कृकल - क्षुधातृषाकारक, देवदत्त = जृम्भा (जंभई) कारक और धनंजय = शब्दकारक होता है।
ध्यान का फल है आत्मसाक्षात्कार। ध्यान के तीन प्रकार : 1) स्थूलध्यान : हृदयस्थान में इष्ट देवता की मूर्ति का ध्यान। 2) ज्योतिर्मयध्यान : इसके दो प्रकार होते हैं : (अ) मूलधारचक्र के स्थान में प्रदीपकलिकाकृति ब्रह्मध्यान (आ) भ्रूमध्यस्थान में ज्वालावलीयुक्त प्रणवाकार का ध्यान। 3) सूक्ष्मध्यान : शाम्भवी मुद्रा के साथ नेत्ररन्ध्र में राजमार्गस्थान पर विहार करती हुई कुण्डलिनी का ध्यान । हठयोग शास्त्रकार सूक्ष्मध्यान का सर्वोत्कृष्ट महत्त्व बताते हैं।
राजयोग के समान हठयोग का भी अंतिम अंग है समाधि। “घटात् भिन्नं मनः कृत्वा ऐक्यं कुर्यात् परात्मनि।" अर्थात् मन को शरीर से पृथक् कर परमात्मा में स्थिर रखना यह समाधि का एक अभ्यास है, तथा “सच्चिदानन्दरूपोऽहम्" यह धारणा रखना दूसरा अभ्यास है। हठयोग की षडंग साधना की परिणति समाधि की साधना में होती है। घेरण्डसंहिता के अनुसार शांभवी, खेचरी भ्रामरी और योनिमुद्रा की तथा स्थूलध्यान की साधना से समाधि सुख का लाभ साधक को होता है।
शाम्भवीमुद्रा में ध्यानयोग समाधि की साधना से दिव्य रूपदर्शन का आनंद मिलता है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /149
For Private and Personal Use Only