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खेचरी मुद्रा में नादयोग समाधि की साधना से दिव्य शब्द- के श्रवण का आनंद मिलता है।
योनिमुद्रा में लययोग समाधि की साधना से दिव्य स्पर्शानन्द का अनुभव आता है। इस प्रकार दिव्य शब्द स्पर्शादि के अनुभव को समाधि सुख कहा है। इनके अतिरिक्त भक्तियोगसमाधि (स्वकीये हृदये ध्यायेद् इष्टदेवस्वरूपकम्) और राजयोगसमाधि (मृ कुम्भकेन ध्रुवोरन्तरे आत्मनि मनसो लयः) मिला कर समाधि के छह प्रकार माने जाते हैं। हठयोग की संपूर्ण साधना किसी अधिकारी मार्गदर्शक गुरु के आदेशानुसार ही करना आवश्यक है, अन्यथा विपरीत परिणाम हो सकते हैं।
11 "भक्तियोग" राजयोग और हठयोग के समान भक्तियोग का प्रतिपादन योगशास्त्र के अन्तर्गत होता है। पाश्चात्य विद्वानों में कुछ विद्वानों ने भक्तितत्त्व का मूल ईसाई मत में बताते हुए भारत में उसका प्रचार ईसाई धर्म के कारण माना है। परंतु उनका यह मत दुराग्रहमूलक एवं निराधार होने के कारण भारतीय विद्वानों ने अनेक प्रमाणों से उसका खंडन किया है। ऋग्वेद के सभी सूक्त देवतास्तुति प्रधान हैं और उन सभी स्तुतियों में देवता विषयक भक्तिभाव उत्कटता से व्यक्त हुआ है। परंतु संहिता और ब्राह्मणों में "भक्ति" शब्द का अभाव है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में
"यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्याः प्रकाशन्ते महात्मनः ।।" (भावार्थ - जिसके हृदय में ईश्वर एवं गुरु के प्रति परम भक्ति होती है, उसी महात्मा को उपनिषद् में प्रतिपादित गुह्यार्थ स्वतः प्रकाशित होते हैं।
वेदान्तर्गत भक्तितत्त्व का सविस्तर विवरण एवं सार्वत्रिक प्रचार और प्रसार करने का कार्य भगवान् व्यासने अपने पुराणों द्वारा किया। शैव पुराणों में शिवभक्ति और वैष्णव पुराणों में विष्णुभक्ति का ऐकांतिक और आत्यंतिक महत्त्व अद्भुत आख्यानो, उपाख्यानों एवं संवादों द्वारा प्रतिपादन किया है।
श्रीमद्भागवत् पुराण, रामायण एवं महाभारतान्तर्गत भगवद्गीता भक्तिमार्गी वैष्णवों के परम प्रमाण ग्रंथ हैं। श्रीमद्भागवत तो भक्तिरस का अमृतोदधि है। अहिर्बुध्यसंहिता, ईश्वरसंहिता, कपिजलसंहिता, जयाख्यसंहिता इत्यादि पांचरात्र मतानुकूल संहिताओं में भक्तियोग का अनन्य महत्व प्रतिपादन किया है। संपूर्ण पांचरात्र वाङ्मय भक्ति का ही महत्त्व प्रतिपादन करता है। श्रीमद्भागवत में
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वदनं दास्यं सख्यम् आत्मनिवेदनम्।। इस प्रसिद्ध श्लोक में भक्ति की नौ विधाएँ बतायी हैं। उनमें श्रवण, कीर्तन, स्मरण, परमात्मा के प्रति दृढ अविचल श्रद्धा निर्माण करते हैं। पादसेवन, अर्चन और वन्दन, सगुण उपासना की साधना के अंग हैं और दास्य सख्य तथा आत्मनिवेदन भक्त के आंतरिक भाव से संबंधित अंग हैं। अंतिम आत्मनिवेदनात्मिकी भक्ति सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। अपना सारसर्वस्व परमात्मा के प्रति समर्पण करते हुए केवल उसकी कृपा को ही अपना एकमात्र आधार मानना, यही इस अंतिम भक्ति का स्वरूप है।
इस भक्तियोग का एक प्रमाणभूत शास्त्रीय ग्रंथ है "नारदभक्तिसूत्र"। इसमें 84 सूत्रों में भक्तियोग का यथोचित प्रतिपादन किया है। भक्ति का स्वरूपलक्षण, "सा तु अस्मिन् परमप्रेमस्वरूपा अमृतस्वरूपा च ।" (अर्थात भक्ति परमात्मा के प्रति परप्रेममय होती है और वह मोक्ष स्वरूप भी है, याने भक्ति ही परम पुरुषार्थ है।) इन प्रारंभिक सूत्रों में बता कर, सूत्रकार नारद अपना अभिप्राय "नारदस्तु तदर्पिताऽखिलाचारता, तद्विस्मरणे परमव्याकुलता चेति" (अर्थात् अपना सारा व्यवहार ईश्वरार्पण बुद्धि से करना और उस आराध्य देवता का विस्मरण होते ही हृदय में अत्यंत व्याकुलता निर्माण होना) इस सूत्र में व्यक्त करते हैं। नारद भक्तिसूत्र में भक्ति का विभाजन 11 प्रकार की आसक्तियों में किया है।
1) गुणमाहात्म्यासक्ति : नारद, व्यास, शुक, शौनक, शाण्डिल्य, भीष्म और अर्जुन इस आसक्ति के प्रतीक हैं। 2) रूपासक्ति : इसके उदाहरण हैं व्रज की गोपस्त्रियाँ। 3) पूजासक्ति : लक्ष्मी, पृथु, अंबरीष और भरत इसके आदर्श हैं। 4) स्मरणासक्ति : ध्रुव, प्रह्लाद, सनक उसके आदर्श हैं। 5) दास्यासक्ति : हनुमान, अक्रूर, विदुर इसके उदाहरण हैं। 6) सख्यासक्ति : अर्जुन, उद्धव, संजय और सुदामा इसके आदर्श हैं। 7) कान्तासक्ति : रुक्मिणी, सत्यभामा इत्यादि भगवान् श्रीकृष्ण की अष्टनायिकाएं इसकी आदर्श हैं। 8) वात्सल्यासक्ति : कश्यप-अदिति, दशरथ-कौसल्या, नंद-यशोदा, वसुदेव-देवकी इसके आदर्श हैं। 9) आत्मनिवेदनासक्ति : अंबरीष, बलि, विभीषण और शिबि इसके आदर्श हैं। 10) तन्मयतासक्ति : याज्ञवाक्य, शुक, सनकादि इसके आदर्श हैं।
150/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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