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की कामना करते हैं। (आत्मा जन्म ग्रहण करता है ऐसा . “निंबार्कसहस्रनाम" ग्रंथ के प्रणेता। मानते हैं)। जो वस्तु अजात और अमर है, वह मर्त्य कैसे गौरीकान्त सार्वभौम - ई. 18 वीं शती। वंग प्रदेश वासी होगी। अमर वस्तु कभी मर्त्य नहीं होती तथा मर्त्य कभी। नैयायिक। इन्होंने भावार्थदीपिका, तर्कभाषा-टीका, सयुक्तिअमर नहीं होती । प्रकृति के विपरीत कदापि कुछ नहीं होता। मुक्तावलि, आनन्दलहरीतरी, विदग्धमुखण्डन-टीका तथा
अनुगीताभाष्य, उत्तरगीताभाष्य, चिदानन्दकेलिविलास, विवादार्णवभंजन आदि ग्रंथों की रचना की है। (देवीमाहात्म्य टीका), सांख्यकारिकाभाष्य आदि ग्रन्थ भी गौरीकान्त द्विज कविसूर्य - असम नरेश कमलेश्वरसिंह गौडपादाचार्य द्वारा रचित बताये जाते हैं।
(1785-1810) द्वारा सम्मानित शैव पंडित। पिता-गोविन्द । गौतम - न्यायशास्त्र के प्रामाणभूत आद्यग्रंथ "न्यायसूत्र" "विघ्नेभजन्मोदय" नामक नाटक के रचयिता। के रचयिता महर्षि गौतम हैं। समय- विक्रम पूर्व चतुर्थ शतक। गौरीप्रसाद झाला - मुंबई के सेन्ट झेवियर महाविद्यालय में न्यायशास्त्र के निर्माण का श्रेय इन्हीं को दिया जाता है, यद्यपि
संस्कृताध्यपक। रचना-सुषमा (स्फुट काव्य संग्रह) इस संबंध में मतविभिन्नता भी कम नहीं है। "पद्मपुराण" (उत्तरखंड अध्याय-263), "स्कंदपुराण" (कालिका खंड,
गृत्समद - पिता का नाम अंगिरस कुल के शनहोत्र। ये अध्याय 17), "नैषधचरित" (सर्ग 17), "गांधर्वतंत्र" व
शनक के दत्तकपुत्र थे। गृत्स का अर्थ है प्राण तथा मद का "विश्वनाथवृत्ति" प्रभृति ग्रंथों में गौतम को ही न्यायशास्त्र का
अर्थ है अपान। प्राणापान का समन्वय अर्थात् गृत्समद । प्रवर्तक कहा गया है। किन्तु कतिपय ग्रंथों में अक्षपाद को
गृत्समद तथा उनके कुल के लोग, ऋग्वेद के दूसरे मंडल न्यायशास्त्र का रचयिता बतलाया गया है। ऐसे ग्रंथों में
के रचियता हैं। "न्यायभाष्य", "न्यायवार्तिक-तात्पर्य-टीका" व "न्यायमंजरी" के
____ आचार्य विनोबा भावे के कथनानुसार गृत्समद बहुमुखी नामों का समावेश है। एक तीसरा मत कविवर भास का है,
प्रतिभा-संपन्न वैदिक ऋषि थे। वे ज्ञानी, भक्त कवि, गणितज्ञ, जो मेधातिथि को न्यायशास्त्र के रचयिता मानते हैं। प्राचीन विज्ञानवेत्ता, कृषिसंशोधक तथा कुशल बुनकर थे। समुद्र की विद्वान गौतम को ही अक्षपाद मानते हैं पर आधुनिक विद्वानों
भाप से पर्यन्यवृष्टि होती है, यह उन्होंने सर्वप्रथम बताया। ने इस संबंध में अनेक विवादास्पद विचार व्यक्त किये हैं
यह उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा का परिचायक है। ये विदर्भवासी जिनसे यह प्रश्न अधिक उलझ गया है। डॉ. सुरेन्द्रनाथ दासगुप्ता
थे। इस प्रदेश में इन्होंने कपास की खेती प्रारंभ की थी। ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "हिस्ट्री ऑफ इंडियन फिलॉसाफी भाग-2"
उनके सूक्तों में कताई-बुनाई के दृष्टांत प्रमुखता से पाये जाते में गौतम को काल्पनिक व्यक्ति मान कर, अक्षपाद को न्यायसूत्र
हैं। निम्नलिखित ऋचा इसका उदाहरण हैका प्रणेता स्वीकार किया है पर अन्य विद्वान दासगुप्तजी से साध्वपासि सनता न उक्षिते सहमत नहीं है। "महाभारत" में गौतम व मेधातिथि को उषासानक्ता वय्येव रण्विते ।। (ऋ. 2.3.6.) अभिन्न माना गया है।
अर्थ- यह यौवनाढ्य रात्रि पक्षियों के समान रमणीय है "मेधातिथिर्महाप्राज्ञो गौतमस्तपसि स्थितः"
तथा संलग्न है। यह कालरूप धागे से निरंतर वस्त्र बुनती (शांति पर्व, अध्याय 265-45)।
है। गृत्समद गणित की गुणाकार प्रक्रिया के आविष्कारक थे। यहां एक संज्ञा वंशबोधक तथा दूसरी नामबोधक है। इस निम्न ऋचा में मानों दो-एक-दो, दो-दूना चार, दो-त्रिक-छह, समस्या का समाधान न्यायशास्त्र के विकास की दो धाराओं ___आदि इस प्रकार दे कर गिनती कही गयी है। के आधार पर किया गया है, जिसके अनुसार प्राचीन न्याय आ द्वाभ्यां हरिभ्यामिन्द्र याह्या की दो पद्धतियां थी। (1) अध्यात्मप्रधान और (2) तर्कप्रधान । चतुर्भिरा षड्भिर्हृयमानः। इनमें प्रथम धारा के प्रवर्तक गौतम और द्वितीय के प्रतिष्ठापक आष्टाभिर्दशभिः सोमपेय अक्षपाद माने गये हैं। इस प्रकार प्राचीन न्याय का निर्माण मयं सुतः सुमख मा मृधस्कः ।। (ऋ.2.18.4) महर्षि गौतम एवं अक्षपाद इन दोनों महापुरुषों के सम्मिलित अर्थ- हे इंद्र, तुम्हें हम आमंत्रित करते हैं। इसलिये तुम प्रयत्न का फल माना गया है।
(रथ को) दो अश्व जोत कर, चार जोत कर, छह जोत कर गौरधर - ई. 13 वीं शती। सुप्रसिद्ध “स्तुतिकुसुमांजलि" के आओ, या इच्छा हो तो आठ या दस जोत कर आओ। हे कर्ता जगद्धर के पितामह। आपने यजुर्वेद पर "वेदविलास" परमपवित्र देवता, यहां सोमरस छना है उसे अस्वीकार मत करो। नामक ऋजुभाष्य की रचना की है।
इनके सूक्तों में अनेक ओजपूर्ण ऋचायें है जो उनके गौरनाथ - समय 15 वीं शती (पूर्वार्ध) । रचना - संगीतसुधा। विजिगीषु प्रयोगशील तथा जीवनविषयक उदात्त दृष्टिकोण को गौरमुखाचार्य - वैष्णवों के निंबार्क संप्रदाय के प्रवर्तक प्रकट करती हैं। उदा. आचार्य निबार्क के शिष्य। निवासस्थान - नैमिषारण्य । "प्राये प्राये जिगीवांसः स्याम"
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 315
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