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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ- "जीवन के सभी क्षेत्रों में हम विजयी हों" पर ऋणा सावीरध मत्कृतानि ।। माहं राजन्नन्यकृतेन भोजम्।। (ऋ. 2.28.9.) हे वरुण ऐसा करो कि मैं अपने द्वारा किये गए ऋणों से मुक्त हो सकू तथा मुझ पर ऐसा अवसर न आए कि मैं दूसरों के परिश्रम पर जीवननिवार्ह करूं। ऊपर गृत्समद का वैदिक चरित्र दिया गया है। उनका पौराणिक चरित्र कुछ भिन्न है। वाचक्नवी ऋषि की कन्या मुकुंदा, रुक्मांगद नामक राजपुत्र पर अत्यंत मोहित थी। एक बार उसने राजपुत्र से काम-पूर्ति की याचना की। परंतु राजपुत्र ने वह अस्वीकार की। तब मुकुंदा ने उसे शाप दिया कि उसे महारोग होगा। रुक्मांगद की प्राप्ति के लिये मुकुंदा की व्याकुलता का इन्द्र ने लाभ उठाया। उसने रुक्मांगद का रूप धारण कर मुकुंदा से समागम किया। इस संबंध से गृत्समद का जन्म हुआ। एक दिन गृत्समद श्राद्ध-कर्म के लिये मगधराज के यहां अनेक ऋषियों के साथ उपस्थित हुए थे। वहां अत्रि के साथ गृत्समद का वाद-विवाद छिड गया। अत्रि ने उन्हें ऋषिसमुदाय के समक्ष जारज-पुत्र कहकर तिरस्कृत किया। गृत्समद इस अपमान से क्षुब्ध हो अपने आश्रम में लौट आए और अपनी मां से अपने जन्मदाता के विषय में पूछा। मां ने शाप के भय से सब-कुछ सच-सच बतला दिया। वे अत्यंत दुःखित हुए। इसके बाद उन्होंने गणेश की कठोर उपासना की। गणेशजी उन पर प्रसन्न हुए। गणेशजी ने उनके द्वारा मांगा गया ब्राह्मण्य का वरदान उन्हें दिया। इस कारण गृत्समद को गाणपत्य संप्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। घटकर्पर- परम्परानुसार विक्रमादित्य के नौ रत्नों में से एक। "घटकपर" नामक यमकबद्ध काव्य के रचयिता। अपने काव्य के अंतिम श्लोक में कवि आत्मस्तुति के साथ कहता है "यदि यमक-काव्य-रचना में मुझे कोई जीतेगा, तो उसके घर, मैं घटकर्पर से पानी भरूंगा। में यह शपथपूर्वक कहता हूं कि मेरी रचना मेरे ही नाम से ज्ञात है। संभवतः श्लोक में प्रयुक्त “घटकर" शब्द के कारण कवि का यही नाम पड़ गया। केवल 22 श्लोकों के इनके "घटकर्पर' (विरह-काव्य) पर सात से अधिक विद्वानों की टीकाएं हैं और इस काव्य का जर्मन भाषा में अनुवाद हुआ है। घनश्याम (कवि-आर्यक)- तंजौर के राजा तुकोजी भोसले (1729-1733 ई.) के मंत्री। दो पत्नियां- कमला तथा सुंदरी विदुषी थीं। दोनों ने मिल कर "विद्धशालंभजिका" की "चमत्कार-तरंगिणी" टीका लिखी। शाकंबरी परमहंस के ये दौहित्र थे। ये घटकर्पर के टीकाकार है। इन्होंने बारह वर्ष की आयु में भोजचंपू के "युद्धकाण्ड" का प्रणयन किया। सौ से अधिक रचनाएं, जिनमें 64 रचनाएं संस्कृत, 20 प्राकृत तथा शेष अन्य भाषाओं में हैं। तंजौर के सरस्वती-भवन में, इनके अधिकांश ग्रंथ प्राप्य । सर्वज्ञ, कण्ठीरव, सुरनीर, वश्यवाक् इन उपाधियों तथा "आर्यक" नाम से प्रसिद्ध थे। प्रमुख रचनाएं- कुमारविजय (नाटक), मदनसंजीवन (भाण), नवग्रहचरित, डमरुक, प्रचण्ड-राहूदय, अनुभूति-चिन्तामणि (नाटिका), प्रचण्डानुरंजन (प्रहसन), आनन्दसुन्दरी (सट्टक) और भवभूति के नाटक-महावीर चरित के 2 अनुपलब्ध अंक। अप्राप्य ग्रंथ- गणेश-चरित, त्रिमठी नाटक, एक डिम और एक व्यायोग जो चमत्कार-तरंगिणी में उल्लिखित है। काव्य- भगवत्पादचरित, षण्मतिमण्डन, और अन्यापदेशशतक । प्रसंगलीलार्णव, वेंकटचरित और स्थलमाहात्म्यपंचक (अप्राप्य) टीकाएं- उत्तर-रामचरित, भारतचम्पू, विद्धशालभंजिका, नीलकंठविजय चम्पू, अभिज्ञानशाकुन्तल तथा दशकुमारचरित पर। अप्राप्य टीकाएं- महावीरचरित, विक्रमोर्वशीय, वेणीसंहार, चण्डकौशिक, प्रबोध-चन्द्रोदय, कादम्बरी, वासवदत्ता, भोजचम्पू तथा गाथासप्तशती पर। इनके अतिरिक्त, “अबोधाकर" नामक व्यर्थी श्लेषकाव्य, जिसका प्रत्येक श्लोक हरिश्चन्द्र, नल तथा कृष्णपरक है। "कलिदूषण" नामक काव्य, संस्कृत तथा प्राकृत दोनों में सिद्ध । आप "डमरुक" नाट्य-विधा के प्रणेता हैं। घनश्याम त्रिवेदी- संस्कृत एवं समाजशास्त्र में उपाधिप्राप्त । एल.एल.बी. होने के बाद साहित्यशास्त्री हुए। नाट्यकला में विशेष अभिरुचि। सवा सौ से अधिक संस्कृत-नाटकों में अभिनय तथा दिग्दर्शन किया। अहमदाबाद की गुजरात संस्कृत परिषद् के प्रमुख कार्यकर्ता के नाते संस्कृत की सेवा में रत । नूतन नाट्य प्रस्थानम् नामक आपका लघुनाटकसंग्रह, जिसमें सत्यवादी हरिश्चंद्र, राजयोगी भर्तृहरि, मेना गुर्जरी, महासती तोललम् इत्यादि आठ सुबोध नाटकों का संग्रह है, बृहद् गुजरात संस्कृत परिषद, अहमदाबाद द्वारा सन 1977 में प्रकाशित हुआ है। घुले, कृष्णशास्त्री (म.म.)- समय- 19-20 वीं शती। विद्वान पण्डितों का कुल। पूर्वजों ने ग्रंथ-निर्मिति कर बुद्धिमत्ता का परिचय दिया। दक्षिण में पेशवाओं के आश्रित (अनन्तशास्त्री घुले-दुर्बोधपदचन्द्रिका। राजारामभट्ट-सप्तशती-दंशोद्धार। रामकृष्णभट्ट-नामस्मरण-मीमांसा, मलमास-टीका, अष्टावक्र-टीका, भागवत-विरोध परिहार, इस प्रकार घुले वंश की ग्रंथसेवा है। ई. 1886 के लगभग बुंदेलखण्ड में जागीर। सदाशिवभट्ट का काशी में वास्तव्य था। तदुपरान्त नागपुर में आगमन। इसी परिवार में सीताराम शास्त्री (भाऊशास्त्री) को म.म.की उपाधि । धर्मशास्त्र तथा व्याकरण में पारंगत। इन्हीं के पुत्र कृष्णशास्त्री। जन्म- 31-5-18731 पुरानी तथा नई पद्धति से शिक्षा प्राप्त । संस्कृत के साथ हिन्दी, अंग्रेजी, बंगाली, गुजराती, फ्रेन्च, 316/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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