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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेद में दो प्रकार की रोग-चिकित्सा मानी है- (1) दोष-प्रत्यनीक (दोषों का मूलतः प्रशमन करना) और (2) व्याधिप्रत्यनीक (व्याधि होने पर उसका प्रशमन करना)। इन दोनों में दोषप्रत्यनीक चिकित्सा श्रेयस्कर मानी है। चिकित्सा शब्द का अर्थ (चरक के मतानुसार) रोगी के शरीर में धातुसाम्य प्रस्थापित करने वाली क्रिया। चिकित्सा ही वैद्य का प्रधान कर्म है। चिकित्सा में दोष, दूष्य, ऋतु, काल, वयोमान, मनोवस्था, आहार इत्यादि बातों पर ध्यान रखना आवश्यक माना है। चिकित्सा के अन्य दो प्रकार हैं:- (1) द्रव्यभूत और (2) अद्रव्यभूत । द्रव्यभूत चिकित्सा- औषध, आहार, बस्ती, शस्त्र, यंत्र इत्यादि के द्वारा होती है, और अद्रव्यभूत चिकित्सा लंघन, मर्दन, मंत्रप्रयोग आदि के द्वारा होती है। द्रव्य चिकित्सा में स्वरस, हिम, फांट, कषाय, आसव, घृत, तैल, क्षार, सत्व, भस्म, गुटिका, वटिका, सिद्धरसायन इत्यादि विविध द्रव्यकल्पों का उपयोग आयुर्वेदीय ग्रंथों में बताया है। आयुर्वेद के कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथकार एवं ग्रंथ आयुर्वेद के क्षेत्र में चार महान आचार्य माने जाते हैं। उनके संबंध में एक श्लोक प्रसिद्ध है :निदाने माधवः श्रेष्ठः सूत्रस्थाने तु वाग्भटः । शारीरे सुश्रुतः प्रोक्तः चरकस्तु चिकित्सिते ।। अर्थात् रोगनिदान मे माधव, सूत्रस्थान में वाग्भट, शरीरविज्ञान में सुश्रुत और रोगचिकित्सा में चरक सर्वश्रेष्ठ हैं। सुश्रुत संहिता- सुश्रुत विश्वामित्र गोत्री तथा शालिहोत्र के पुत्र थे। दिवोदास धन्वन्तरि (जो साक्षात् भगवान धन्वन्तरि के अवतार माने जाते हैं और जिन्होंने शल्यतंत्र का इह लोक में निर्माण किया) सुश्रुत के गुरु थे। सुश्रुत की संहिता में पांच स्थान (या विभाग) हैं:- (1) सूत्र स्थान (2) निदान स्थान (3) शारीर स्थान (4) चिकित्सा स्थान और (5) कल्प स्थान । इनमें शरीर स्थान के अन्तर्गत वैद्यशिक्षा, औषधमूल विभाग, औषधि चिकित्सा, पथ्यापथ्य विचार जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन है। सुश्रुत के अनुसार शस्त्रोपचार और व्रणोपचार का आयुर्विज्ञान में विशेष महत्त्व है। अस्थिरोग, मूत्रविकार, जलोदर, अंडवृद्धि, त्वचारोपण, मोतीबिन्दु इत्यादी के सुधार के लिए शस्त्रक्रिया के प्रयोग सुश्रुत ने बताए हैं। शस्त्रक्रिया में उपयुक्त एक सौ से अधिक शल्यशस्त्रों का वर्णन सुश्रुत संहिता में मिलता है। सुश्रुत संहिता के लघु सुश्रुत और वृद्ध सुश्रुत नामक संक्षिप्त एवं परिवर्धित संस्करण प्रसिद्ध हैं। चरक संहिता-चीनी प्रमाणों के अनुसार चरकाचार्य कनिष्क महाराज के चिकित्सक थे। परंपरा के अनुसार चरक भगवान् शेष के अवतार माने जाते है। चरक संहिता में स्थान नामक आठ विभाग हैं। (1) सूत्र स्थान- इसमे औषधिविज्ञान, आहार, पथ्य-अपथ्य, विशिष्ट रोग, उत्तम एवं अधम वैद्य, शरीर तथा मानस चिकित्सा इत्यादि विषयों का विवेचन है। (2) निदान स्थान- इसमे प्रमुख आठ रोगों का विवेचन है। (3) विमान स्थान- इसमें रुचि और शरीरवर्धन का विवेचन है। (4) शारीर स्थान- विषय - शरीर वर्णन। (5) इन्द्रिय स्थान- विषय - रोग चिकित्सा । (6) चिकित्सा - विषय - रोग निवारक उपाययोजना । (7) कल्प स्थान। (8) सिद्धि स्थान - इनमें सामान्य उपाय योजनाएं बताई हैं। ई. छठी शताब्दी के पूर्व दृढबल पांचनद ने चरक संहिता का सुधारित संस्करण तैयार किया जिसमें उसने सुश्रुत की शल्यक्रिया का अन्तर्भाव किया है। सांप्रत यही चरक संहिता सर्वत्र प्रचलित है। इस संहिता का अरबी भाषा में अनुवाद हो चुका है। वाग्भट - इस नाम के दो महान् आचार्य हुए। उनमें अष्टांग संग्रहकार वाग्भट को वृद्धवाग्भट कहते हैं। इनके पितामह का नाम भी वाग्भट था और वे भी श्रेष्ठ भिषगवर थे। वृद्धवाग्भट का जन्म सिंधु देश में हुआ था। इनका समय ई. 7 वीं शती का पूर्वार्द्ध माना जाता है। दूसरे वाग्भट को धन्वन्तरि या गौतम बुद्ध का अवतार माना जाता था। वे श्रेष्ठ रसायन वैद्य थे। उनके ग्रंथों में अष्टांगहृदय सर्वमान्य है। इनका समय सामान्यतः ई. 8 वीं या 9 वीं शती माना जाता है। मिश्र के राजा को उपचार करने के हेतु वाग्भट को विदेश जाना पड़ा। उनके उपचार से राजा रोगमुक्त हुआ और भारतीय वैद्यक शास्त्र की प्रतिष्ठा उस देश में स्थापित हुई। शानाधर संहिता - ई. 11 वीं शताब्दी में शाङ्गिधराचार्य ने इस ग्रंथ की रचना की। यह ग्रंथ तीन खंडों एवं बत्तीस अध्यायों में विभाजित है। इस ग्रंथ में रोगों के विषय में अन्य प्रमाणिक ग्रंथों की अपेक्षा अधिक विवेचन हुआ है। रसायन तथा सुवर्णादि धातुओं का भस्म करने की प्रक्रिया शाङ्गधर के ग्रंथ की विशेषता है। साथ ही नाडीपरीक्षा का विवरण इस ग्रंथ का वैशिष्ट्य माना गया है। मदनकामरत्न - इसके कर्ता पूज्यपाद जैनाचार्य माने जाते हैं। यह ग्रंथ अपूर्णसा है। आयुर्वेदीय रोग विनाशक औषधों के साथ इसमें कामशास्त्र से संबंधित बाजीकरण, लिंगवर्धक लेप, पुरुष-वश्यकारी औषध, स्त्री-वश्यकारी भेषज, मधुर स्वरकारी गुटिका आदि के निर्माण की विधि बताई गई है। कामसिद्धि के लिए छह मंत्र भी दिये गये हैं। वैद्यसारसंग्रह - (या योगचिन्तामणि) - लेखक - हर्षकीर्तिसूरि । समय ई. 18 वीं शती। आत्रेय, चरक, वाग्भट, सुश्रुत, संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड । 67 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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