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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भौफेक्ट के अनुसार सत्यानन्द ही रामचन्द्र सरस्वती हैं। समयई. 1678-17101 ईश्वरोपाध्याय- ई. 8 वीं शती। आन्ध्रवासी। न्याय, मीमांसा, व्याकरण तथा धर्मशास्त्र में पारंगत । शांकर-मत के अनुयायी। इन्होंने ज्योतिष्मती एवं इलेश्वरविजय नामक ग्रंथों की रचना की है। उद्गीथ - ई. 18 वीं शती। स्कंदस्वामी, नारायण और उद्गीथ इन तीन आचार्यों ने मिलकर ऋग्भाष्य-रचना की। अर्थात् शैली में समानता न होना इन भाष्यों में स्वाभाविक है। उद्गीथाचार्य ने याज्ञिक पद्धति के अनुसार पूरे विस्तार से भाष्यरचना की है। परवर्ती भाष्यकारों ने उद्गीथाचार्यजी का निर्देश किया है। निरुक्त-भाष्य के एक रचयिता स्कंद-महेश्वर, संभवतः उद्गीथाचार्य के शिष्य थे। उद्गीथ-भाष्य में ग्रंथकार के नाम आदि का कुछ संकेत मिलता है। तदनुसार वे कर्नाटक की वनवासी नगरी के निवासी थे। उयादित्य- आयुर्वेद के विशेषज्ञ। गुरु-श्रीनन्दि। ग्रंथ-निर्माण का स्थान- रामगिरि जो त्रिकलिंग के बेंगी में स्थित है। त्रिकलिंग जनपद, मन्दाज के उत्तर पीलकट नामक स्थान से लेकर उत्तर गंजाम और पश्चिम में बेल्लारी कर्नल, बिदर तथा चान्दा तक विस्तृत है। 'रामगिरि', नागपुर का समीपवर्ती रामटेक भी हो सकता है। नृपतुंग अमोघवर्ष (प्रथम) के समय औषधि में मांस-सेवन का निराकरण करने के लिए उग्रादित्य ने 'कल्याणकारक' नामक बृहद्काय ग्रंथ का निर्माण किया था। समय-ई. 9 वीं शताब्दी। ग्रंथ के 25 परिच्छेदों और दो परिशिष्टों में स्वास्थ्य-संरक्षण, गर्भोत्पत्ति, अन्नपानविधि, वात-पित्त-कफ, रसायन आदि का विस्तृत वर्णन है। उत्प्रेक्षावल्लभ- मूल नाम गोकुलनाथ । ई. 6 वीं शती। इन्होंने 'भिक्षात्म' नामक महाकाव्य की रचना की। इसमें शंकर के शृंगार-विलास का वर्णन है। उत्पलदेव- ई. 9 वीं शती। त्रिकदर्शन के एक आचार्य। इनकी 'शिव-स्तोत्रतलि' प्रसिद्ध है। इसमें 21 श्लोक हैं कण्ठकोणविनिविष्टमीश ते कालकूटमपि मे महामृतम्। अप्युपात्तममृतं भवद्वपुर् भेदवृत्ति यदि मे न रोचते।। अर्थ- हे भगवन् तुम्हारे कंठ के कोने में जो विष है, वह भी मुझे अमृत समान है। पर तुम्हारे शरीर से अलग अमृत भी मिला तो वह मुझे अच्छा नहीं लगेला। यह श्लोक सुप्रसिद्ध काव्यप्रकाश में उद्धृत है। उदय कवि- 'मयूर-संदेश' नामक संदेश-काव्य के प्रणेता । समय- ई. 14 वीं शताब्दी। इन्होंने 'ध्वन्यालोकलोचन' पर 'कौमुदी' नामक टीका भी लिखी थी जो प्रथम उद्योग तक ही प्राप्त होती है। इसके अंत में जो श्लोक है, उससे पता चलता है कि इस ग्रंथ के रचयिता उदय नामक राजा (क्षमाभृत्) थे। उदयप्रभदेव- ज्योतिष-शास्त्र के एक आचार्य । समय- ई. 13 वीं शती। इन्होंने 'आरम्भसिद्धि' या 'व्यवहारचर्या' नामक ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ में उन्होंने प्रत्येक कार्य के लिये शुभाशुभ मुहूतों का विवेचन किया है। इस पर रत्नेश्वर सरि के शिष्य हेमहंसगणि ने वि.सं. 1514 में टीका लिखी थी। उदयप्रभदेव का यह ग्रंथ व्यावहारिक दृष्टि से 'मुहूर्तचिंतामणि' के समान उपयोगी है। उदयानाचार्य- रचना- 'वंशलता'। इस महाकाव्य में पौराणिक तथा ऐतिहासिक राजवंशों का वर्णन है। उदयनाचार्य- एक सुप्रसिद्ध मैथिल नैयायिक। इनका जन्म दरभंगा से 20 मील उत्तर कमला नदी के निकटस्थ मंगरौनी नामक ग्राम में एक संभ्रांत ब्राह्मण-परिवार में हुआ था। 'लक्षणावली' नामक अपनी कृति का रचना-काल इन्होंने 906 शकाब्द दिया है। इनके अन्य ग्रंथ है- न्यायवार्तिक-तात्पर्य-टीकापरिशुद्धि, न्यायकुसुमांजलि तथा आत्मतत्त्व-विवेक । इन ग्रंथों की रचना इन्होंने बौद्ध दार्शनिकों द्वारा उठाये गए प्रश्नों के उत्तर-स्वरूप की थी। इन्होंने 'प्रशस्तपाद-भाष्य' (वैशेषिकदर्शन का ग्रंथ) पर 'किरणावली' नामक व्याख्या लिखी है। इसमें भी इन्होंने बौद्ध-दर्शन का खंडन किया है। 'न्याय-कुसुमांजलि' भारतीय दर्शन की श्रेष्ठ कृतियों में मानी जाती है और उदयनाचार्य की यह सर्व श्रेष्ठ रचना है। ईश्वर के अस्तित्व के लिये बौद्धों से विवाद के समय, अनुमान-प्रमाण से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नहीं कर पाने पर, एक ब्राह्मण और एक श्रमण को लेकर वे एक पहाड़ी पर चले गये। दोनों को वहां से नीचे धकेल दिया। गिरते हुए ब्राह्मण चिल्लाया- 'मुझे ईश्वर का अस्तित्व मान्य है', तो श्रमण चिल्लाया 'उसे मान्य नहीं । ब्राह्मण बच गया, श्रमण की मृत्यु हो गई परंतु उदयनाचार्य पर हत्या का आरोप लगा। इस पर उदयन पुरी के जगन्नाथ मंदिर में जाकर भगवान् के दर्शन की प्रार्थना करने लगे। उस समय मान्यता थी कि भगवान् पुण्यवान् लोगों को ही दर्शन देते हैं। तीसरे दिन भगवान् ने स्वप्न में आकर कहा- काशी जाकर स्वयं को जला कर प्रायश्चित्त करो, उसके बाद ही मेरा दर्शन हो सकेगा। उसके अनुसार उदयनाचार्य ने अग्नि को देह अर्पित किया पर मरते समय उन्होंने कहा ऐश्वर्यमदमत्तः सन् मामवज्ञाय वर्तसे। प्रवृत्ते बौद्धसंपाते मदधीना तव स्थितिः।। अर्थः- भगवन्, ऐश्वर्य के मद में आप मेरा धिक्कार कर रहे हैं, पर बौद्धों का प्रभाव बढ़ने पर तो आपका अस्तित्व मेरे अधीन ही था। उदयराज-प्रयागदत्त के पुत्र । रामदास के शिष्य । रचना-राजविनोद काव्यम्। सात सगों के इस काव्य में गुजरात के सुलतान 282 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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