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"अग्निमीळे पुरोहितम्। यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातरम्।" इस आद्य वेदमंत्र में भाषा के प्रमुख स्वरों और व्यंजनों का अन्तर्भाव होता है। अतः यह आद्य वेदमंत्र ही सर्व वर्गों का अर्थात् वर्णात्मक भाषाओं का मूल है।।
प्राचीन वैदिक विद्वानों की वेदविषयक धारणाएं किस प्रकार की थीं, और उनका समर्थन किस प्रकार के युक्तिवादों से किया जाता था इसकी संक्षेपतः सामान्य कल्पना प्रस्तुत विवेचन से आ सकती है। हमने यहां अर्वाचीन और प्राचीन दोनों मतों का यथाशक्ति संक्षेपतः परिचय दिया है। पाठक अपना मत निर्धारित करें।
8 अथर्ववेद यज्ञविधि में ऋग्वेदी होता, यजुर्वेदी अध्वर्यु, सामवेदी उद्गाता के अतिरिक्त ब्रह्मा नामक एक चौथा ऋत्विक् रहता है। यह ब्रह्मा चारों वेदों का विशेषज्ञ हों ऐसी अपेक्षा होती है। अतः वह अथर्ववेद का विशेषज्ञ भी होता है। ऋग, यजुस् और साम इस "वेदत्रयी" से अर्थवेद का स्थान स्वतंत्र है। तथापि वैदिकों के कर्मकाण्ड में अथर्ववेद का स्थान त्रयी के समान महत्वपूर्ण रहता है। वैदिक वाङ्मय के अनुक्रम में सर्वत्र ऋग्वेद को प्रथम स्थान दिया है। “यज्ञैरथर्वा प्रथमः पथस्तते" (ऋ.1-83-5) इस ऋग्वेद वचन से यह भी सिद्ध होता है कि ऋग्वेद के मंत्रदृष्टा को अथर्वा का ज्ञान था। अर्थात् इस वचन के आधार पर ऋग्वेद का प्राचीनत्व और अथर्व वेद अर्वाचीनत्व मानने वाले आधुनिक विद्वानों का भी खंडन होता है।
अथर्ववेद का संपूर्ण नाम है अथर्वाङ्गिरस। यज्ञविधि में ब्रह्मा नामक ऋत्विक् इस वेद के मन्त्रों का प्रयोग करता है अतः इसे "ब्रह्मवेद" भी कहते हैं।
गोपथ ब्राह्मण (1-4) में अथर्वण और अंगिरस (जिनके नामों से इस चतुर्थ वेद का नामकरण हुआ) के उपपत्ति की एक कथा आती है। तदनुसार, सृष्टि की उपपत्ति के लिए ब्रह्मदेवजी ने जब घोर तपश्चर्या की, तब उनके शरीर से दो वेद-प्रवाह बहने लगे, जिनके एक प्रवास से भृगु ऋषि निर्माण हुए, जिन्हें अथर्वण नाम प्राप्त हुआ और दूसरे प्रवाह से अंगिरा नामक ऋषि की उत्पत्ति हुई। इन दो ऋषियों द्वारा प्रवर्तित मन्त्रराशि को ही अथर्वांगिरस संज्ञा प्राप्त हुई। दूसरी उत्पत्ति के अनुसार, सृष्टि के आरंभ काल में अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चार ऋषियों के अन्तकरण में संपूर्ण वेदराशि का स्फुरण हुआ। इनमें से अंगिरा ऋषिका नाम अथर्वाङ्गिरस वेद के नाम में पाया जाता है। तीसरी उपपत्ति के अनुसार, अथर्वा और अंगिरस नाम के दो ऋषि थे, जिन्हें अभिचार मन्त्रों का विशेष ज्ञान था। अथर्वा ऋषि रोगनाशक मंत्रों के और अंगिरस ऋषि शत्रुनाशक मन्त्रों के ज्ञाता थे। इस प्रकार के आभिचारिक मन्त्रों का प्राधान्य, अथर्वागिरस की विशेषता मानी जाती है।
अथर्ववेद में दो प्रकार के मन्त्र हैं : (1) रोग, हिंस्रपशु, पिशाच्च, मंत्रप्रयोग करने वाले शत्रु इत्यादि के विरोध अथवा विनाश करने में उपयोगी, और (2) परिवार में, गांव में तथा इतरत्र शांति स्थापन करने में, शत्रुओं से मित्रता करने में, जीवन में दीर्घ आयुरारोग्य तथा धनसमृद्धि प्राप्त करने में, प्रवास में संरक्षण मिलने में उपयोगी। अर्थात् अथर्ववेद के कुछ मंत्र विनाशक
और कुछ विधायक स्वरूप के हैं। भारतीय आयुर्वेद का मूल अथर्ववेद में ही मिलता है। ज्वर, कुष्ट, राजयक्ष्मा, खांसी, गंजापन, दृष्टिक्षय, शक्तिक्षय, सर्पबाधा, व्रण, बुद्धिभ्रंश इस प्रकार की व्याधियों का उपचार करनेवाले मन्त्र इस वेद में होने के कारण आयुर्वेद का मौलिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन करने वालों के लिए अथर्ववेद का अध्ययन उपकारक होता है। उसी प्रकार धर्मशास्त्र के (विशेषतः गृह्य सूत्रों के) पुत्रजन्म, विवाह, राज्याभिषेक, मृत्यु इत्यादि विषयों से भी अथर्ववेद के कई सूक्तों का संबंध स्पष्ट दिखाई देता है।
अथर्ववेद की संहिता के 20 काण्ड हैं, जिनमें 34 प्रपाठक, 111 अनुवाक, 739 सूक्त और 5849 मन्त्र हैं। उनमें से लगभग 1200 मन्त्र ऋग्वेद में मिलते हैं। प्रारंभिक 13 काण्डों का विषय जारण, मारण, उच्चाटन से संबंधित है। 14 वें काण्ड में विवाह, 18 वें कांड में श्राद्ध और 20 वें काण्ड में सोमयाग इन विषयों के मन्त्र हैं। इस वेद का षष्ठांश भाग गद्यात्मक है। अन्वेषक मानते हैं कि 19 और 20 वां कांड इस संहिता में बाद में जोड़ा गया, क्यों कि 20 वें कांड में मात्र ऋग्वेद की ऋचाएं हैं। अथर्ववेदान्तर्गत ऋग्वेदीय ऋचाओं में से पचास प्रतिशत ऋचाएं दशम मंडल में मिलती हैं और बाकी प्रथम तथा अष्टम मंडल में मिलती हैं। इसी प्रकार संपूर्ण वेदत्रयी के अनेक मन्त्र आथर्वण संहिता में उपलब्ध होने के कारण उसे त्रयी का सार अथवा मूल मानते हैं।
पतंजलि ने अथर्ववेद की नौ शाखाओं का निर्देश (नवधा आथर्वणो वेदः) किया है। परंतु आज उसकी पैप्पलाद तथा शौनक नामक दो ही शाखाएं सायण भाष्य सहित प्राप्त होती हैं। पैप्पलाद शाखा की पाण्डुलिपि प्रो. बूल्हर ने प्रथम खोज निकाली। उसके पश्चात् ब्लूमफिल्ड ने उसका छायांकन कर प्रकाशन किया। सन 1870 में काश्मीर-नरेश रणवीरसिंह को पैप्पलाद शाखा की एक प्रति उनके ग्रंथ संग्रहालय में मिली। वह भूर्जपत्र पर शारदा लिपि में लिखी थी। उन्होंने डॉ. राथ को उपहार रूप में वह प्रति समर्पण की। राथ की मृत्यु के पश्चात् ट्यूव्हिजन विश्वविद्यालय को वह प्राप्त हुई। उसके अधिकारियों ने सन 1901 में अमेरिका में उसका प्रकाशन किया।
20 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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