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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाम हैं- वेदान्ततत्त्वविवेक, तत्त्वबोधिनी, भावप्रकाशिका, अद्वैतदीपिका और भेदधिक्कार। इनके अतिरिक्त नृसिंहाश्रम ने पंचपादिका-विवरण व प्रकाशिका नामक दो टीकाएं भी लिखी हैं। न्यायविजय मुनिमहाराज - जैन मुनि। वाराणसी-निवासी। रचना-सन्देश। इस नीतिपरक काव्य में छात्रों को उपयुक्त सन्देश चार भागों में दिया गया है। नेम भार्गव - ऋग्वेद के 8 वें मंडल का 100 वां सूक्त इनके नाम पर है। इस सूक्त में नेम भार्गव ने इन्द्र की स्तुति की है। इसके साथ ही उनके द्वारा व्यक्त वाणी-विषयक विचार निम्नांकित हैं देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति । सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु ।। अर्थ- उस दिव्य वाणी को देवताओं ने ही जन्म दिया। किसी भी स्वरूप का प्राणी हो, वह बोलता ही है। (चाहे वह स्पष्ट ध्वनित हो, या न हो)। वह उल्लसित दिव्य वाणी, एक धेन ही है। वह उत्साह व ओजस्विता का भरपूर दूध देती है। तो इस प्रकार की वह मनःपूर्वक स्तुति की गई दिव्य वाणी, हम लोगों के समीप आवे। नेमिचन्द्र - प्रथम नेमिचंद्र को, सिद्धान्तग्रंथों का गहन अध्ययन मनन और चिंतन होने के कारण, "सिद्धान्त-चक्रवर्ती' की उपाधि प्रदत्त । देशीयगण के आचार्य। गुरु-अभयनन्दि, वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि । शिष्य- गंगवंशी राजा राचमल्ल के प्रधान मंत्री और सेनापति चामुण्डराय, जिन्होंने श्रवणबेलगोला (मैसूर) में स्थित विन्ध्यगिरि पर 57 फीट ऊंची बाहुबलि स्वामी की मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। चामुण्डराय का पारिवारिक नाम "गोम्मट' था। इसलिए उक्त प्रतिमा को गोम्मटेश्वर भी कहा गया है। इस मूर्ति का स्थापना काल ई. 981 है। अतः नेमिचन्द्र का समय ई. 10 वीं शती का उत्तरार्ध है। ग्रंथ-गोम्मटसार, त्रिलोकसार, लब्धिसार, क्षपणकसार, द्रव्य-संग्रह, प्रतिष्ठापाठ आदि। द्वितीय नेमिचन्द्र - नयनन्दि के शिष्य थे। समय ई. 12 वीं शती के आसपास । रचनाएं- महाभारत का जैन रूपांतर, जैनों के उत्तराध्ययन पर टीका और भववैराग्य शतक नामक स्वतंत्र ग्रंथ। तृतीय नेमिचन्द्र ने 16 वीं शती में गोम्मटसार पर "जीवतत्त्वप्रदीपिका' नामक टीका लिखी थी। चतुर्थ नेमिचन्द्र भोजकालीन "द्रव्यसंग्रह" के रचयिता हैं जिन्हें "सिद्धान्तदेव" कहा गया है। समय ई. 12 वीं शती। रचनाएं- लघुद्रव्यसंग्रह और बृहद्र्व्यसंग्रह । कार्यक्षेत्र- राजस्थान (बूंदी के पास)। नेमिचन्द्र सूरि - अपरनाम-देवेन्द्र गणि। उद्योतनाचार्य के शिष्य उपाध्याय आम्रदेव के शिष्य। गुरुभ्माता- मुनिचन्द्र सूरि । अणहिलपाटन नगर कार्यक्षेत्र । समय- ई. 11-12 वीं शती। ग्रंथ- उत्तराध्ययन-सुखबोधावृत्ति (वि.सं. 1128), शान्त्याचार्य विहित शिष्यसंहिता नामक बृहद्वृत्ति पर आधारित । नेवासकर, परमानंद कवीन्द्र - ई. 17 वीं शती। इनका मूल नाम था गोविद निधिवासकर अर्थात् नेवासकर। ये महाराष्ट्र में नेवासा के रहने वाले थे और इनके घराने की कुलदेवी थी एकवीरा। जैसा कि उन्होंने लिखा है, इस देवी से ही उन्हें वाक्सिद्धि अथवा प्रतिभा प्राप्त हुई थी। परमानंद कवीन्द्र अनेक वर्षों तक अध्ययनार्थ काशी में रहे। सन् 1673 में वे महाराष्ट्र लोटे और पोलादपुर में रहकर छात्रों को पढाने लगे। उनकी कीर्ति सुनकर शिवाजी महाराज पोलादपुर में उनसे मिले। सन् 1674 में शिवाजी का राज्याभिषेक हुआ। उस प्रसंग पर परमानंद कवीन्द्र वहां उपस्थित थे। उस समय शिवाजी ने उनसे कहा कि वे उनके जीवन पर एक बृहत् काव्य की रचना करें। यह बात परमानंद ने अपने निम्न श्लोकों द्वारा बताई है योऽयं विजयते वीरः पर्वतानामधीश्वरः । दाक्षिणात्यो महाराजः शाहराजात्मजः शिवः ।। साक्षान्नारायस्यांशस्त्रिदशद्वेशिदारणः । स एकदात्मनिष्ठं मां प्रसाद्येदमभाषत ।। यानि यानि चरित्राणि विहितानि मया भुवि । विधीयन्ते च सुमते तानि सर्वाणि वर्णय । मालभूपमुपक्रम्य प्रथितं मत्पितामहम् । कथामेतां महाभाग महनीयां निरूपय।। अर्थ - दुर्गो (किलों) के अधिपति, दक्षिण के महाराजा, प्रत्यक्ष विष्णु के अवतार, देवद्रोहियों के संहारकर्ता, शहाजी के पुत्र वीर शिवाजी जो विजयों से विभूषित है, उन्होंने एक बार मुझ ब्रह्मनिष्ठ को प्रसन्न करते हुए कहा - ____ "हे सुबुद्धे, मैने इस पृथ्वी पर जो जो कार्य किये तथा संप्रति जो कार्य कर रहा हूं, उन सब का आप वर्णन कीजिये। मेरे पितामह सुप्रसिद्ध मालोजी राजा प्रारंभ करते हुए, हे महाभाग, आप इस महनीय कथा का कथन करें। तब परमानंद ने 100 अध्यायों की योजना करते हुए शिवाजी के चरित्र पर एक महाकाव्य की रचना करने का निश्चय किया। किन्तु नियोजित महाकाव्य के 32 वें अध्याय के 9 श्लोक ही पूरे हो सके। सन् 1661 में शिवाजी द्वारा श्रृंगारपुर पर की गई चढाई तक का शिवचरित्र उसमें संगुफित है। इस महाकाव्य को परमानंद ने नाम दिया "सूर्यवंश", परंतु प्रकाशन संस्था ने इसे "शिवभारत" नाम से प्रकाशित किया। इस ग्रंथ पर शिवाजी महाराज ने उन्हें कवीन्द्र की पदवी से विभूषित किया। इस ग्रंथ को लेकर परमानंद वाराणसी गए थे। इस बारे में ग्रंथ के पहले ही अध्याय में कहा गया है कि काशी के पंडितों की प्रार्थना पर उन्होंने गंगाजी के तट पर इस महाकाव्य का पाठ किया था। 358 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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