SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रसिद्ध संस्कृत ग्रंथ में ग्रथित किया। बाद में समंतभद्र, सिद्धसेन, (इन दोनों ने जैन दर्शन के "स्याद्वाद" की स्थापना की), अकलंकदेव, सिद्धसेन दिवाकर, विद्यानंद, वादिराजसूरि, हरिभद्रसूरि, हेमचंद्र, मल्लिषेण, गुणरत्न, यशोविजय, ज्ञानचंद्र इत्यादि स्वनामधन्य जैनाचार्यों ने, संस्कृत भाषा में अपने दर्शन के अंगोपांगों का प्रतिपादन किया। इसके अतिरिक्त महाकाव्य, खंडकाव्य, चम्पू, स्तोत्र, व्याकरण, ज्योतिष, साहित्यशास्त्र, योगविद्या इत्यादि विषयों पर प्रतिभाशाली जैन विद्वानों ने पर्याप्तमात्रा में संस्कृत ग्रन्थों की रचना की है। जैनाचार्यों का न्याय, व्याकरण ज्योतिष, विषयक संस्कृत वाङ्मय सर्वत्र प्रमाणभूत माना जाता है। वाङ्मय निर्मिति में संस्कृतभाषा का उपयोग, प्रथम दिगंबर और बाद में श्वेताम्बर जैनाचार्यों ने किया, जिससे उस काल में संस्कृत भाषा के सार्वत्रिक महत्त्व का प्रमाण उपलब्ध होता है। आज सर्वत्र सुशिक्षित समाज में अंग्रेजी भाषा का जो महत्त्व है, वही उस युग में संस्कृत भाषा को था यह तथ्य जैन तथा बौद्ध आचार्यों की संस्कृत वाङ्मयनिर्मिति से सिद्ध होता है। आधुनिक काल में सर्वत्र हिंदी भाषा में जैन वाङ्मय का प्रसार हो रहा है। हिंदी आज दिगंबर संप्रदाय की "धर्मभाषा" सी हुई है व्याख्याग्रंथ प्राचीन भारतीय वाङ्मय में प्रमाणभूत तथा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के गूढार्थ का उद्घाटन करने के लिए उन पर विवरणात्मक लेखन करने की परंपरा थी। दुर्बोध ग्रंथों का रहस्य समझने में इस प्रकार के ग्रंथों की आवश्यकता जिज्ञासु को प्रतीत होती है। जैन धर्म विषयक आगमों" का विवरण करने वाले अनेक व्याख्या, ग्रंथ, यथावसर निर्माण हुए। ये आगमिक व्याख्याग्रंथ पांच प्रकारों में विभक्त किये जाते हैं : 1) नियुक्तियाँ, 2) भाष्य, 3) चूर्णियाँ, 4) संस्कृत टीकाएं और लोक भाषा में विरचित टीकाएं। नियुक्ति : नियुक्तियाँ और भाष्य जैनागमों की पद्यबद्ध टीकाएं होती हैं। इन दोनों प्रकार के विवरणात्मक ग्रंथों की भाषा प्राकृत है। नियुक्तियों में मूल ग्रंथ के प्रत्येक पद का व्याख्यान न किया जाकर विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों का ही व्याख्यान किया गया है। उपलब्ध नियुक्तियों में आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) कृत दस नियुक्तियाँ प्रसिद्ध हैं। नियुक्तियों में "निक्षेपपद्धति' से शब्दार्थ का व्याख्यान होता है। किसी भी वाक्य में एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। शब्दों के संभावित विविध अर्थों का निरूपण करने के बाद, उनमें से अप्रस्तुत अनेक अर्थों का निषेध करके, प्रस्तुत एकमात्र अर्थ की स्थापना करना, इस शैली को 'निक्षेपपद्धति' कहते हैं। इस प्रकार से निर्धारित अर्थ का मूल वाक्य के शब्दों के साथ संबंध स्थापित करना, यही 'नियुक्ति' का प्रयोजन होता है। भाष्य : नियुक्तियों की भाँति "भाष्य" भी पद्यबद्ध प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। कुछ भाष्य केवल मूलसूत्रों पर और कुछ भाष्य सूत्रों की नियुक्तियों पर भी लिखे गये हैं। भाष्यकारों में जिनभद्रगणि और संघदास गणि ये दो आचार्य विशेष प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने व्याख्येय आगम ग्रंथों के शब्दों में छिपे हुए विविध अर्थ अभिव्यक्त करने का कार्य किया। इन प्राचीन भाष्य ग्रंथों में तत्कालीन भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, एवं धार्मिक स्थिति पर प्रकाश डालने वाली भरपूर सामग्री का दर्शन होता है। जैनों के आगमिक वाङ्मय में इस विशाल भाष्य वाङ्मय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। चूर्णि : जैन आगमों की, संस्कृत मिश्रित प्राकृत व्याख्या "चूर्णि" कहलाती है। इस प्रकार की कुछ चूर्णियाँ आगमेतर वाङ्मय पर भी लिखी गई हैं। चूर्णिकारों में जिनदासगणि, सिद्धसेनसूरि (प्रसिद्ध सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न), प्रलंबसूरि और अगस्त्यसिंह इत्यादि नाम उल्लेखनीय हैं। नियुक्तियों, भाष्यों और चूर्णियों की रचना के बाद जैन आचार्यों ने संस्कृत में टीकाओं का लेखन प्रारंभ किया। प्रत्येक आगम पर कम से कम एक संस्कृत टीका लिखी ही गई। संस्कृत टीकाकारों में हरिभद्र सूरि, शीलांकसूरि, वादिवेताल, शान्तिसूरि, अभयदेव सूरि, मलयगिरि, मलधारी हेमचंद्र, आदि विद्वानों के नाम संस्मरणीय हैं। इन टीकाकारों ने प्राचीन भाष्य आदि के विषयों का विस्तृत विवेचन किया तथा नये नये हेतुओं द्वारा उन्हें पुष्ट किया। अपनी टीकाओं के लिए आचार्यों ने, टीका, वृत्ति, विवृत्ति, विवरण, विवेचन, व्याख्या, वार्तिक, दीपिका, अवचूरि, अवचूर्णि, पंजिका, टिप्पन, टिप्पनक, पर्याय, स्तबक, पीठिका अक्षरार्थ इत्यादि विविध नामों का प्रयोग किया है। जिनरत्नकोश जैसे ग्रंथ में 75 से अधिक विद्वानों की नामावलि मिलती है, जिन्होंने आगमों पर संस्कृत टीकाएं लिखी हैं। जैनवाङ्मयान्तर्गत संस्कृत टीका ग्रंथों की संख्या काफी बड़ी है। उनमें से कुछ विशेष उल्लेखनीय टीकाकारों एवं टीकाओं की सूची :टीकाकार टीकाग्रंथ 1) हरिभद्र 1) नन्दीवृत्ति, 2) अनुयोगद्वार टीका, 3) दशवैकालिकवृत्ति (नामान्तर शिष्यबोधिनी या बृहवृत्ति) 4) प्रज्ञापनाप्रदेश व्याख्या, 5) आवश्यकवृत्ति इत्यादि । कहा जाता है कि आचार्य हरिभद्र ने अपने गुरु के आदेशानुसार 1444 ग्रंथों की रचना की थी। जैन साहित्य का बृहद् 190/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy