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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में काठियावाड के वलभी नगरी में हुआ, जिसके प्रमुख थे आचार्य देवर्धिगणि। इसे “वलभो-वाचना" कहते हैं। जैनागमों के संकलन का कार्य इस अंतिम "वलभीवाचना" में संपूर्ण हुआ। श्वेताम्बरसंप्रदाय में वलभीवाचना के आगम को ही प्रमाण माना जाता है। दिगंबर संप्रदायी, कालप्रभाव के कारण मूल आगमों को लुप्त या नष्ट मानते हैं। श्वेतांबर उन्हें नष्ट नहीं मानते। द्वादशांगों के अतिरिक्त अन्य जैनागमों को "अंगबाह्य" कहते हैं। ऐसे अंगबाह्य आगम पांच वर्गों में विभक्त है:- 1) उपांग, 2) मूलसूत्र, 3) छेदसूत्र, 4) चूलिकासूत्र, और 5) प्रकीर्णक। अंगबाह्य आगम अंग-आगमों की रचना भगवान महावीर के गणधरों (अर्थात प्रधान शिष्यों) ने की है, जब कि उपयुक्त अंगबाह्य आगमों का निर्माण भिन्न भिन्न समय में अन्य स्थविरों द्वारा हुआ है। दिगम्बर (या अचेलक) परंपरा में, आगमों को 1) अंगप्रविष्ट (अर्थात् आचारांगादि बारह अंग) और 2) अंगबाह्य, नामक दो प्रकारों में विभाजित किया जाता है। उनके अंगबाह्य आगमों में, निम्नोक्त चौदह ग्रंथों का समावेश होता है:- सामायिक, चतुर्विंशातिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्पिक, महाकल्पिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निशीथिका। अचेलकों को की मान्यता है कि अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य नामों से निर्दिष्ट दोनों प्रकार के आगम विच्छिन्न हो गये हैं। सचेलक (श्वेतांबर) केवल बारहवें अंग (दृष्टिवाद) का ही विच्छेद मानते हैं। श्वेतांबरीय अंगबाह्य आगमों के प्रथम वर्ग "उपांग" में निम्न लिखित बारह ग्रंथ समाविष्ट हैं:- औपपातिक, राजप्रश्नीय जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावलिक, (या कल्पिका), कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा। इनमें प्रज्ञापना के संबंध मे जो जानकारी प्राप्त है, तदनुसार उस उपांग की रचना श्यामार्य (अपरनाम-कालकाचार्य) द्वारा ईसापूर्व द्वितीय-तृतीय शताब्दी के बीच मानी जाती है। मूलसूत्र अंगबाह्य दूसरा आगम है मूलसूत्र। इन में, 1) उत्तराध्ययन (ई.पू. 2-3 शती), 2) आवश्यक, 3) दशवैकालिक (ई.पू.चौथी शती में, आचार्य शयमभवकृत) और 4) पिण्डनियुक्ति (अथवा ओघनियुक्ति- जिस की रचना आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) ने ई.पू. छठी शती में की) इन चार ग्रंथों का अन्तर्भाव होता है। छेदसूत्र अंगबाह्य तीसरा आगम है "छेदसूत्र" जिसमें, 1) दशाश्रुतस्कंन्द, 2) बृहकल्प और व्यवहार, इन तीनों की रचना आर्य भद्रबाहु द्वारा ई.पू.चतुर्थ शती में हुई 4) निशीथ - (यह वस्तुतः "आचारांग" की पंचम चूलिका ही है) इसके प्रणेता आर्यभद्रबाहु अथवा विशाखगणि महत्तर हैं। 5) महानिशीथ- इसका संकलन आचार्य हरिभद्र द्वारा हुआ है और 6) जीतकल्प जिसके लेखक हैं आचार्य जिनभद्र, समय ई. 8 वीं शती, इन ग्रंथों का अन्तर्भाव होता है। पंचकल्पनामक छेदसूत्र अनुपलब्ध है। कुछ विद्वान जीतकल्प और पंचकल्प में अभेद मानते हैं। चूलिकासूत्र में 1) नंदीसूत्र (देवर्धिगणि अथवा देववाचक कृत) और 2) अनुयोगद्वार सूत्र (आर्य रक्षित कृत) का अन्तर्भाव होता है। प्रकीर्णक प्रकीर्णकों में निम्नलिखित ग्रंथ विशेषरूप से मान्य हैं :- चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरीक्षा, तन्दुलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविद्या, देवेन्द्रस्तव और मरणसमाधि। इनमें से चतुःशरण तथा भक्तपरीक्षा के रचयिता हैं वीरभद्रगणि (ई. 12 वीं शती)। अन्य प्रकीर्णकों के रचयिता के नाम आदि के विषय में जानकारी उपलब्ध नहीं हैं। इस प्रकार संपूर्ण जैनागमों की संख्या 11 अंग, 12 उपांग, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, 10 प्रकीर्णक और 2 चूलिकासूत्र मिलाकर- 45 होती है। इन आगमों में जैन धर्म विषयक उपदेश, विधि, निषेध, तत्त्वज्ञान इत्यादि का सर्वंकष ज्ञान प्रतिपादित किया है। इन 45 आगमों सहित उन पर लिखे गये नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीका ग्रंथों को मिलाकर समग्र आगम ग्रंथों को "पंचांगी आगम" कहा जाता है। इन धर्मग्रंथों की भाषा "आर्ष" अथवा "अर्धमागधी" नामक प्राकृत है। भगवान् महावीर का उपदेश इसी भाषा में माना जाता है। इन ग्रंथों के गद्य और पद्य भागों की भाषा में अंतर दिखाई देता है। अत्यंत प्राचीन अर्धमागधी का स्वरूप आचारांग सूत्र (आयारंगसुत्त) सूत्रकृतांग (सूयगदांग) और उत्तराध्ययन सूत्र, (उत्तरझ्झयणसुत्त) इन तीन आगम ग्रंथों में दिखाई देता है। धर्मग्रंथों के अतिरिक्त अन्य जैन वाङ्मय की भाषा भी अर्धमागधी अथवा "जैन महाराष्ट्री" ही है; किन्तु उस का स्वरूप धर्मग्रंथों की भाषा से सर्वथा भिन्न है। जिनदास गणिकृत चूर्णी नामक लघु टीका ग्रंथों की भाषा संस्कृत-प्राकृत मिश्रित है। अभयदेव, मलयगिरि, और शीलांक जैसे विद्वानों ने आगमों पर टीकाएँ लिखने के लिए संस्कृत भाषा का अवलंब किया है। जैन दर्शन का प्रारंभ ई. प्रथम शती से माना जाता है। कर्नाटक के सुप्रसिद्ध जैनाचार्य कुंदकुद (जैन प्रस्थात्रयी या नाटकत्रयी के निर्माता) के शिष्योत्तम उमास्वामी ने जैनमत के तात्त्विक विचारों का व्यवस्थित प्रतिपादन अपने "तत्त्वार्थसूत्री' नामक संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 189 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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