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2) कोट्याचार्य
3) गन्धहस्ति (सिद्धसेन)
4) शीलांक (तत्वादित्य)
5) शांतिसूर (वादिबेताल) 6) द्रोणसूरि
7) अभक्देव
8) मलयगिरि
9) मलधारी हेमचंद्र 10) नेमिचंद्र 11) श्रीचंद्रसूरि
12) क्षेमकीर्ति
13) माणिक्यशेखर
14) अजितदेवरि 15) विजयाविमलगणि
16) वानरर्षि
17 ) विजयविमल
18) भावविजयगणि
19 ) समयसुंदरसूरि
20) ज्ञानविमलसूरि
21) लक्ष्मीवल्लभगणि
22) दानशेखरसूरि
23) विनयविजय उपाध्याय 24) समयसुन्दरगणि 25) शान्तिसागरगणि
26) पृथ्वीचंद्र
27) विजयराजेद्रसूरि
इतिहास (भाग-3 ले. डॉ. मोहनलाल मेहता) में पृ. 362 पर हरिभद्र के 73 टीकाग्रन्थों की सूची दी है। विशेषावश्यकभाष्य विवरण।
1) शस्त्रपरिज्ञाविवरण 2 ) तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति
1) आचारंग विवरण 2 ) सूत्रकृतांगविवरण | उत्तराध्ययनटीका ।
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ओघनियुक्तिवृत्ति ।
1) स्थानांगवति, 2) समवायांगवृत्ति, 3) व्याख्याप्रज्ञाप्तिवृत्ति, 4) ज्ञानाधर्म कथा विवरण, 5) उपासक दशांगवृत्ति, 6) अन्तकृद्दशावृत्ति 7 ) प्रश्नव्याकरणवृत्ति और 8) विपाकवृत्ति । इनके उपलब्ध ग्रंथों की संख्या 20 एवं अनुपलब्धों की 6 मानी जाती है जिनमें 1) नदीवृत्ति, 2) प्रज्ञापनावृत्ति, 3) सूर्यप्रज्ञाप्ति विवरण 4) ज्योतिष्करणकवृत्ति 5) जीवाभिगमविवरण, 6) राजप्रश्रीयविवरण, 7) पिण्डनियुक्तिवृत्ति 8 ) बृहत्कल्पपीठिकावृत्ति, इत्यादि टीकाग्रंथ उल्लेखनीय हैं।
1) आवश्यकवृत्ति प्रदेशव्याख्या, 2) विशेषावश्यकभाष्य बृहद्वृत्ति ।
आचारांगदीपिका ।
गच्छाचारवृत्ति ।
गच्छाचारटीका ।
तन्दुलवैचारिकवृत्ति ।
उत्तराध्ययनवृत्ति ।
1) निशीथचूर्णिदुर्ग पदव्याख्या, 2) निरयावलकावृत्ति, 3) जीतकल्पचूर्णि विषमपदव्याख्या । बृहत्कल्पवृत्ति (मलयगिरिकृत अपूर्ण वृत्ति को इसमें पूर्ण किया है) ।
आवश्यक निर्मुक्ति दीपिका
उत्तराध्ययन व्याख्या ।
दशवैकालिक दीपिका ।
व्याकरण सुवोधिकावृत्ति ।
उत्तराध्ययन दीपिका |
भगवती विशेषपदव्याख्या । कल्पसूत्रबोधिका ।
कल्पसूत्रकल्पकता । कल्पसूत्र कल्पकौमुदी कल्पसूत्र टिप्पणक । कल्पसूत्रार्थबोधिनी ।
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आगम ग्रंथोंपर लिखी हुई संस्कृत टीकाओं की संख्या यहाँ निर्दिष्ट टीकाओं से बहुत अधिक है। सारी टीकाओं का निर्देश प्रस्तुत संक्षिप्त प्रकरण में देना असंभव है। इन संस्कृत टीकाओं के अतिरिक्त हिन्दी भाषा में हस्तिमल, उपाध्याय आत्माराम, उपाध्याय अमरमुनि आदि विद्वानों ने तथा गुजराती में मुनिधर्मसिंह, पार्थचंद्रगणि आदि विद्वानों ने व्याख्या ग्रंथ लिखे हैं।
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2 जैन दर्शनिक वाङ्मय
जैन धर्म का दार्शनिक वाङ्मय विपुल है। इस दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण विषय है कर्मवाद, जिस के पाच सिद्धान्त माने जाते हैं। 1) प्रत्येक कर्म का कोई फल अवश्य होता ही है ।
2) कर्म करने वाले प्राणी को उसका फल भोगना ही पड़ता है। इस जन्म में भोग न हुआ तो उसके लिए पुर्नजन्म लेना पड़ता है।
3) कर्मफल के इस भोगबन्धन से मुक्त होना जीव के ही अधीन है। मुक्तिदाता अन्य कोई नहीं होता ।
4) संसार में व्यक्ति व्यक्ति के सुख-दुःख में जो वैषम्य दिखाई देता है, उसका मूल कारण कर्म ही है। पुण्य कर्म का फल सुख और पाप का फल दुःख होता है।
5) कर्मबन्ध तथा कर्मभोग का अधिष्ठाता प्राणी स्वयं है। इसके अतिरिक्त जितने भी हेतु दीखते हैं, वे सब सहकारी अथवा निमित्तभूत है।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 191
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