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जैन सिद्धान्तानुसार यह विश्व षड् द्रव्यों से निर्मित है, जो अनादि अनन्त और स्वयमेव विद्यमान हैं। उनमें से एक द्रव्य अजीव है। "जीव" के विपरीत यह द्रव्य अस्थिर और अनन्त परिवर्तनशील है। प्राणी के शरीर में "जीव" तत्त्व के साथ "अजीव" तत्त्व घनिष्ठ संबंध से रहता है। उसके अनुसार सर्व प्रकार की क्रिया होने के कारण, प्राणी प्रतिक्षण "अजीव" तत्त्व के सूक्ष्म परमाणुओं को आकर्षित करता रहता है। कर्म स्वयमेव क्रियाशील है, उसे कार्य करने के लिए किसी अन्य शक्ति की आवश्यकता नहीं होती। भारतीय दार्शनिकों में चार्वाकों के अतिरिक्त सभी दार्शनिकों ने "कर्मवाद" को अपनाया है। इस सिद्धान्त का प्रभाव संपूर्ण भारतीय साहित्य, कला, धर्ममत इत्यादि पर स्पष्ट दिखाई देता है।
जैन दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित कर्मवाद में कर्म की आठ मूलप्रकृतियाँ मानी गई हैं :
1) ज्ञानावरण, 2) दर्शनावरण, 3) वेदनीय, 4) मोहनीय, 5) आयु, 6) नाम गोत्र और 7) अन्तराय। इन मूल कर्मप्रकृतियों के अवान्तर भेद कुल मिलाकर 158 माने गये हैं। कर्म और पुनर्जन्म का अविच्छेद्य संबंध है। पुनर्जन्म न मानने पर विचार में तर्कदृष्ट्या 1) कृतप्रणाश (अर्थात् कृत कर्म का अहेतुक विनाश) और 2) अकृताभ्यागम (अर्थात् अकृत कर्म का भोग) दोष उत्पन्न होते हैं। इन दोषों से मुक्त होने के लिए सभी कर्मवादियों ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मान्यता दी है। जैन धर्म के श्वेताम्बर और दिगंबर संप्रदायों में इस कर्मवाद का प्रतिपादन विविध ग्रन्थों में हुआ है। दिगम्बर संप्रदाय में जिस "कर्मप्राभृत" एवं "कषायप्राभृत" को आगमरूप मान्यता प्राप्त है, उनमें कर्मविषय के प्रतिपादन को विशेष प्राधान्य है। “कर्मप्राभृत" अथवा "महाकर्मप्रकृति-प्राभृत" इस संज्ञा का कारण, यही माना जाता है। इसमें छः खण्ड होने के कारण इसे “षट्खण्डागम" अथवा "षखण्ड सिद्धान्त" कहते हैं। दिगम्बरों के इस "आगम" का उद्गमस्थान पूर्वोक्त "दृष्टिवाद" नामक जैनागम का बारहवां "अंग" (जो अब लुप्त है) माना गया है। इसके रचियता थे धरसेन आचार्य के शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि।
कर्मप्रामृत (षट्खंडागम) पर कुन्दकुन्दाचार्य (अपरनाम पद्मनन्दिमुनि) श्यामकुण्ड, तुम्बुलूर बप्पदेव जैसे महान् आचार्यों की प्राकृत टीकाओं के अतिरिक्त, समन्तभद्र कृत संस्कृत टीका (48 हजार श्लोक) एवं वीरसेन (ई. 8 वीं शती) और जयसेन (जितसेन) कृत धवला तथा "जयधवला" नामक प्राकृत-संस्कृत मिश्रित टीकाएं प्रसिद्ध हैं। कर्मवाद पर दिगम्बरीय साहित्य में अमितगतिकृत तथा श्रीपालसुत डड्ढकृत "पंचसंग्रह" नामक संस्कृत ग्रंथ उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त नेमिचंद्रकृत गोम्मटसार (ई. 11 वीं शती) पर अभयचंद्र की नेमिचंद्रकृत लब्धिसार पर केशववर्णी की संस्कृत टीकाएँ उल्लेखनीय हैं। शिवशर्मसूरिकृत कर्मप्रकृति (475 गाथाएं) कर्मसिद्धान्त विषयक एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इस पर मलयगिरिकृत वृत्ति (8 हजार श्लोक) और यशोविजयकृत टीका (13 हजार श्लोक तथा चंद्रर्षिमहत्तर कृत पंचसंग्रह पर स्वयं लेखक की (9 हजार श्लोक) और मलयगिरि की (18 हजार श्लोक) टीका इत्यादि भी उल्लेखनीय हैं।
जैनागमों और उनकी व्याख्याओं के अतिरिक्त उनके सारांशरूप आगमिक प्रकरणों की रचना प्राकृत पद्यों में हुई। प्राचीन काल के विशाल आगम वाङ्मय में प्रतिपादित अनेक गहन विषयों को सुबोध एवं संक्षिप्त करने का प्रयत्न कुन्दकुन्दाचार्य, शान्तिसूरि, अभयदेवसूरि, रत्नशेखरसूरि, हरिभद्रसूरि, श्रीचंद्रसूरि, नेमिचंद्रसूरि, अमृतचंद्रसूरि, मुनिचंद्रसूरि, जिनेश्वरसूरि, देवसूरि आदि अनेक विद्वानों ने अपने प्राकृत ग्रन्थों द्वारा किया है। इन प्राकृत प्रकरणग्रन्थों में से बहुसंख्य ग्रन्थों पर संस्कृत टीकाएं जैन विद्वानों द्वारा लिखी गई हैं।
प्रकरण ग्रंथों का दूसरा प्रकार आचारधर्मविषयक है। इस प्रकार के प्रकरणों में उपदेशमाला, उपदेशप्रकरण, उपदेशरसायन, उपदेशचिंतामणि, उपदेशकन्दली, हितोपदेशमाला, शीलोपदेशमाला, उपदेशरत्नाकर, उपदेशसप्ततिका, धर्मकरण्डक, आत्मानुशासन इत्यादि ग्रंथ उल्लेखनीय हैं।
3 जैन-योगदर्शन जैन धर्म के सभी परमपूज्य तीर्थकर योगसिद्ध महापुरुष थे, अतः जैन साधकों में योगमार्ग के प्रति विशेष आस्था सदैव रही और अनेक जैन विद्वानों ने योगविषयक ग्रंथों की रचना भी की है। यशोविजयगणि ने पातंजल योगदर्शन के 27 सूत्रों पर व्याख्या लिखी, जिस में सांख्यदर्शन और जैन दर्शन में भेद तथा साम्य का सम्यक् परिचय देने का प्रयास किया है। योग विषयक महत्त्वपूर्ण जैन ग्रंथः
1) योगबिन्दु : ले. हरिभद्र सूरि। श्लोक-527। इस ग्रंथ पर सद्योगचिन्तामणि नामक महत्त्वपूर्ण वृत्ति (श्लोक-3720) हरिभद्रसूरि की रचना मानी जाती है। इसके अतिरिक्त हरिभद्रसूरि ने जोगसयग (योगशतक) और जोगविहाण वीसिया (योग विधान विशिका) नामक अपने दो प्राकृत ग्रंथों पर, संस्कृत में विस्तृत वृत्ति लिखी है। यशोविजयगणि ने भी जोगविहाणवीसिया पर संस्कृत में विवरण लिखा है।
192 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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