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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पथिकोक्तिमाला। (गद्य)- यदुवंशचरित (प्रकाशित) और उत्तरार्ध सिद्ध होता है। आपकी यह कृति न्यायशास्त्र पर एक उपाख्यान-रत्नमंजूषा (अप्रकाशित)। (चम्पू) भारत-संग्रह स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है। (प्रकाशित) व यतिराज (अप्रकाशित)। इनके अतिरिक्त चार जयन्त- 16 वीं शती। तत्त्वचन्द्रिका नामक प्रक्रिया कौमुदी दण्डक स्तोत्र । कुल 30 रचनाएं। की टीका के लेखक। जटाधर - ई. 15 वीं शती। फेणी नदी के तट पर स्थित जयकान्त - रचनाएं हैं- (1) "ध्रुवचरितम्" (2) "प्रह्लाद चाटीग्राम के निवासी। कृति-अभिधानतन्त्र ।। चरि म्" (3) "अजामिलोपाख्यानम्"। (4) गोवर्धन कृष्ण जटासिंह नन्दि - जिनसेन, उद्योतनसूरि, चामुण्डराय आदि चरितम्। आचायों द्वारा उल्लिखित । कर्नाटकवासी। कोप्पल में समाधिमरण । जयकीर्ति - कर्नाटकवासी। समय- ई. 10 वीं शती। ग्रंथलहराती हुई लम्बी जटाओं के कारण जटिल या जटाचार्य छन्दोऽनुशासन"। इनमें वैदिक छन्दों को छोडकर आठ अध्यायों कहलाये थे। समय- ई. 7 वीं शताब्दी का अन्तिम पाद।। में विविध लौकिक छंदों का विवरण किया है। असंग कवि रचना- वराङ्गचरित नामक पौराणिक महाकाव्य (31 सर्ग और ने इनका उल्लेख किया है। 1805 श्लोक)। जैन पुराणकथा पर महाकाव्य आधारित है। जयतीर्थ - समय- लगभग 1365-1388। इनके जीवन की जनार्दन - ई. 13 वीं शती । बंगाल-निवासी। रचना- रघुवंश। सामान्य घटनाओं का ज्ञान, उनके "दिग्विजय-ग्रंथ' से भली-भांति जन्न - समय- 12-13 वीं शती। कर्नाटकनिवासी। वंश कम्मे । प्राप्त होता है। तदनुसार उनका पूर्वाश्रम का नाम धोंडोंपत पिता-शंकर। माता- गंगादेवी। गुरु- नागवर्म। इनके पिता रघुनाथ था। महाराष्ट्र में पंढरपुर से लगभग 12 मील की शंकर, हयशालवंशीय राजा नरसिंह के सेनापति थे। जन्नकवि, दूरी पर स्थित एक गांव में उनका जन्म हुआ था। उनके सूक्तिसुधार्णव ग्रंथ के कर्ता मल्लिकार्जुन के साले और पिता जमीनदार थे। इनकी आरंभिक शिक्षा-दीक्षा अच्छी हुई शब्दमणिदर्पण के कर्ता केशिराज के मामा थे। चोलकुल थी। 20 वर्ष की आयु में ही इनके जीवन में आध्यात्मिक नरसिंह देव के सभाकवि। दुर्ग में जैन मंदिर के निर्माता। मोड आया। एक बार घोड़े पर सवार होकर ये कहीं जा रहे रचना- यशोधरचरित्र और अनन्तनाथ-पुराण। थे। प्यास जोरों से लगी थी। अतः समीपस्थ पर्वत की जमदग्नि - पिता- भृगुकुल के ऋचीक ऋषि (पद्मपुराण के तलहटी से बहने वाली नदी में, घोडे पर सवारी कसे ही ये अनुसार भृगु)। माता-सत्यवती। पत्नी-रेणुका। रुमण्वान, सुषेण, भीतर चले गए और घोडे की पीठ पर बैठे-बैठे ही मुंह वसुमान, विष्वावसु तथा परशुराम नामक पुत्र । भिन्न-भिन्न पुराणों नवाकर इन्होंने अपनी प्यास बुझाई। नदी के दूसरे किनारे से में इनका चरित्र भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णित है। एक महात्मा इन्हें देख रहे थे। महात्मा के बुलाने पर ये ऋग्वेद के नवम मण्डल के 62 तथा 65 एवं दसवें उनके पास गए। उन्होंने कुछ प्रश्न पुछे। फलतः इनको अपने मण्डल के 110 वें सूक्त की रचना इन्होंने की है। पूर्व जन्म की घटनाएं स्मरण हो आईं। महात्मा थे माध्व-मत जमदग्नि नाम के अनुरूप क्रोधी थे। एक बार पत्नी को की गुरु-परंपरा में 5 वें गुरु अक्षोभ्यतीर्थ। उन्होंने दीक्षा देकर सरोवर से स्नान कर लोटने में देरी हुई, तो इन्होंने पुत्रों को इन्हें अपना शिष्य बनाया और नाम रखा जयतीर्थ। प्रसिद्ध अद्वैती विद्वान विद्याचरण स्वामी के ये समकालीन थे। इन्होंने अपनी माता का वध करने की आज्ञा की परन्तु उस का अपने ग्रंथों में श्रीहर्ष, आनंदबोध एवं चित्सुख के मतों को आज्ञा पालन केवल परशुराम ने किया। इस लिये जमदग्नि ने शेष चार पुत्रों का वध कर डाला। जमदग्नि परशुराम पर उद्धृत कर, उनका खंडन किया है। अत्यन्त प्रसन्न हुये थे। अतः उन्होंने उसे वर मांगने के लिये जयतीर्थ ने मध्वाचार्य के ग्रंथों पर नितांत प्रौढ एवं कहा। तब परशुराम ने अपनी मातासमेत चारों भाइयों को प्रमेय-संपन्न टीकाएं लिखी हैं, उनके सिद्धांतों को अपने जीवित करने की प्रार्थना की। जमदग्नि ने उसकी प्रार्थना व्याख्यानों द्वारा विशद, बोधगम्य तथा हृदयाकर्षक बनाया और स्वीकार कर ली और अपनी पत्नी और चारों पुत्रों को पुनर्जीवित नवीन ग्रंथों का निर्माण कर मध्व-मत को शास्त्रीय मान्यता के किया। उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित किया। जयतीर्थ द्वारा प्रणीत ग्रंथों जयंतभट्ट - "न्याय-मंजरी" नामक प्रसिद्ध न्यायशास्त्रीय की संख्या 20 है जिनमें प्रमुख हैं- तत्त्व-प्रकाशिका, न्यायसुधा, टीका-ग्रंथ के प्रणेता। समय-नवम शतक का उत्तरार्ध । भट्टोजी गीताभाष्य-प्रमेय-टीका, गीता-तात्पर्य-न्यायदीपिका, वादावलि और ने अपने इस ग्रंथ में "गौतम-सूत्र" के कतिपय प्रसिद्ध सूत्रों प्रमाण-पद्धति । प्रमाण-पद्धति पर 8 टीकाएं प्राप्त हुई हैं। मध्व पर प्रमेयबहुला वृत्ति प्रस्तुत की है। इसमें चावार्क, बौद्ध, तथा व्यासराय के साथ जयतीर्थ द्वैत-संप्रदाय के "मुनित्रय" मीमांसा, वेदान्त-मतावलंबियों के मतों का खंडन किया है। में समाविष्ट होते हैं। जयतीर्थ की ऋक्भाष्य-टीका पर नरसिंहाचार्य "न्याय-मंजरी" में वाचस्पति मिश्र व ध्वन्यालोककार आनंदवर्धन की विवृत्ति तथा बारायणाचार्य की भाष्यटीकाविवृत्ति प्रसिद्ध है। का उल्लेख होने के कारण इनका समय नवम शतक का जयतीर्थ ने कई स्थलों पर सायणाचार्य का खण्डन किया संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 325 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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