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है, ऐसा माना जाता है। यदि वह सच हो, तो जयतीर्थ का समय 14 वीं शती के बाद मानना उचित होगा। जयदेव - छन्द शास्त्र के रचयिता । अभिनवगुप्त द्वारा उल्लिखित । समय ई. की प्रारम्भ की शतियां। यह रचना सूत्ररूप होने से इनका समय सूत्रकाल में ईसा पूर्व 2 री या 3 री शती हो सकता है। जयदेव (पीयूषवर्ष) - "चंद्रालोक" नामक लोकप्रिय काव्यशास्त्रीय ग्रंथ के प्रणेता। "गीत-गोविंद" के रचयिता जयदेव से सर्वथा भिन्न। इन्होंने "प्रसन्न-राघव" नाटक की भी रचना की है। तत्कालीन समाज में ये "पीयूषवर्ष" के नाम से विख्यात थे- "चंद्रालौकममुं स्वयं वितनुते पीयूषवर्षः कृती"(चंद्रालोक 1-2) । पिता- महादेव। माता- सुमित्रा । - "प्रसन्न राघव नाटक (हिन्दी अनुवाद सहित) चौखंबा से प्रकाशित हो चुका है।
ये संभवतः 13 वीं शताब्दी के मध्य चरण में रहे होंगे। "प्रसन्नराघव" के कुछ श्लोक "शाङ्गधरपद्धति" में उद्धृत हैं जिसका रचना-काल 1363 ई. है। आचार्य जयदेव ने मम्मट के काव्यलक्षण का खंडन किया है, अतः वे उनके परवर्ती हैं। इन्होंने "विचित्र" एवं विकल्प" नामक अलंकारों के लक्षण रुय्यक के ही शब्दों में दिये हैं। अतः ये रुय्यक के भी पश्चाद्वर्ती सिद्ध होते हैं। इस प्रकार इनका समय रुय्यक (1200 ई.) एवं शागधर (1350 ई.) का मध्यवर्ती निश्चित होता है। कुछ विद्वान इन्हें तथा मैथिल नैयायिक पक्षधरमिश्र अभिन्न सिद्ध करना चाहते हैं। पर अब यह प्रायः निश्चित हो गया है कि ये दोनों भिन्न व्यक्ति थे। पक्षधर मिश्र का समय 1464 ई. है।
कौण्डिण्य गोत्रीय आचार्य जयदेव हरि मिश्र के शिष्य थे। एक तर्कशास्त्रज्ञ के रूप में इन्होंने गंगेश उपाध्याय के "तत्त्वचिंतामणि" पर "आलोक" नामक टीका लिखी है जो इनके "प्रसन्नराघव' में उल्लेख से विदित होती है। ये दक्षिण भारत के राजाश्रय में रहे थे। जयदेव - एक युग-प्रवर्तक गीतिकार। इन्होंने "गीतगोविंद" नामक एक लोकप्रिय गीति-काव्य की रचना की है। ये बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन के सभा-कवि थे। इनका समय ई. 12 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। "गीत-गोविंद" में राधा कृष्ण की ललित लीला का मनोरम व रसस्निग्ध वर्णन है। इस पर राजस्थान के राजा कुंभकर्ण व एक अज्ञातनामा लेखक की टीकाएं प्राप्त होती हैं, जो निर्णयसागर प्रेस से प्रकाशित है। जयदेव का निवास स्थान केंदुबिल्ब या कंदुली (बंगाल) था, पर कतिपय विद्वान इन्हें बंगाली न मानकर उत्कल-निवासी कहते हैं। जयदेव के संबंध में कतिपय प्रशस्तियां प्राप्त होती हैं, तथा कवि ने स्वयं भी अपनी कविता के संबंध में प्रशंसा के वाक्य कहे हैं -
यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासुकुतूहलम्।
कलितकौमलकांतपदावलीं श्रुणु तदा जयदेव-सरस्वतीम्।
(स्ववचन : गीत-गोविंद, 1-3) साध्वी माध्वीक चिंता न भवति भवतःशर्करे कर्कशासि, द्राक्षे द्रक्ष्यन्ति के त्वाममृतमृतमसि क्षीर नीरं रसस्ते । माकंद कंद, कांताधर धरणितलं गच्छ, यच्छन्ति भावं, यावच्छृङ्गारसारं स्वयमिह जयदेवस्य विश्वग्वचांसि ।।
(गीत-गोविंद) __ जयदेव के पिता का नाम भोजदेव और माता का नाम रमादेवी था। बहुत दिनों तक इस दंपति को संतान नहीं हुई। इसके लिये उन्होंने जगन्नाथ की आराधना की। जगन्नाथ की कृपा से उन्हें पुत्रप्राप्ति हुई। जयदेव के समय उत्कल पर कामदेव का शासन था। कतिपय विद्वानों के अनुसार, उन्हीं के आश्रय में रहते हुये जयदेव ने "गीत-गोविंद" की रचना की। कहते हैं कि गीतगोविंद के श्रवण के बिना राजा कामदेव अन्नग्रहण नहीं करते थे। ____किंतु जयदेव के विवाह के संबंध में एक किंवदंती हैकेंदुपाटण (किंदुबिल्व) में देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह निःसंतान था। उसने भगवान जगन्नाथ से मनौती की कि यदि उसे संतान हुई तो वह उसे भगवान् के चरणों में समर्पित कर देगा। कुछ दिनों पश्चात् उसके यहां एक कन्या ने जन्म लिया। उसने उसका नाम पद्मावती रखा, और उसके युवा होने पर उसे मंदिर के पुजारी को सौंप दिया। रात को पुजारी ने स्वप्न देखा कि भगवान जगन्नाथ उसे आदेश दे रहे हैं कि वे पद्मावती को जयदेव को समर्पित कर दें। भगवान के आदेशानुसार दूसरे दिन प्रातः पुजारी पद्मावती को अपने साथ लेकर जयदेव के पास पहुंचा। जयदेव गांव के बाहर कुटिया में संन्यस्त वृत्ति से रहते थे। पुजारी ने अपने स्वप्न की बात उनसे कही। जयदेव को उस पर विश्वास नहीं हुआ पर पुजारी पद्मावती को वहीं छोडकर चला गया। अंततः अनिच्छापूर्वक जयदेव को उसे पत्नी के रूप में स्वीकार करना पड़ा।
पद्मावती के पातिव्रत्य के संबंध में भी एक बहुत ही अद्भुत आख्यायिका प्रचलित है :
एक बार राजा लक्ष्मणसेन जयदेव के साथ शिकार खेलने गये। इधर रनिवास में लक्ष्मणसेन की रानी और पद्मावती वार्तालाप में मग्न थीं। रानी को पद्मावती के पातिव्रत्य की परीक्षा लेने की इच्छा हुई। उसने एक दूत के साथ कानाफूसी कर षडयंत्र रचा।
कुछ समय पश्चात् दूत दौडा-दौडा रानिवास में आया और उसने शिकार खेलते समय जयदेव की मृत्यु हो जाने की वार्ता सुनाई। वह समाचार सुनते ही पद्मावती के प्राणपखेरू उड गये।
कुछ समय पश्चात् राजा लक्ष्मणसेन और जयदेव आखेट से राजप्रासाद लोटे। राजा ने जब यह सुना कि उनकी रानी
326/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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