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न पाणिलाभादधिको लाभः कश्चन विद्यते।
शास्त्रार्थ में परास्त करते हुए इन्होंने अपने पांडित्य का परिचय दिया। (म.भा. शांति 180-11-1)
___व्यासराय के जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण काल आरंभ अर्थ - जिनके हाथ हैं, वे क्या नहीं कर सकते। वे होता है 1509 ई. से जब विजयनगर के सिंहासन पर सिद्धार्थ हैं। जिनके हाथ हैं, वे मुझे अच्छे लगते हैं। जैसी कृष्णदेवराय आरूढ हुए। कृष्णदेवराय स्वयं कवि थे और तुझे धन की आकांक्षा है, उसी प्रकार मुझे हाथ की, पाणिलाभ गुणग्राही भी। व्यासराय को वे अपने "कुल-देवता" के समान से बढ कर और कोई लाभ नहीं।
मानते थे। व्यास राय उनके गुरु भी थे। राजा ने उन्हें अनेक __महाभारत लिखने के बाद व्यास उदास हो गये थे। एक गांव दान में दिये थे। उस युग के शिलालेख इसके साक्षी बार नारद मुनि से भेंट हुई। उनके परामर्श पर उन्होंने हैं। 1530 ई. में राजा की मृत्यु के पश्चात् अच्युत राय के भागवत-पुराण की रचना की। कृष्णचरित्र का वर्णन उसमें शासन-काल में भी व्यास राय की प्रतिष्ठा तथा मर्यादा पूर्ववत् किया। श्रीमद्भागवत भक्ति का महाकाव्य बना और व्यासजी अक्षुण्ण बनी रही। दि. 8 मार्च 1539 को व्यास राय की के मन की उदासीनता भी दूर हुई।
ऐहिक लीला समाप्त हुई। तुंगभद्रा नदी के "नव वृंदावन" ___ "महाभारत' के अंत में जो चार श्लोक हैं, उन्हें
नामक टापू पर इनके भौतिक अवशेष समाधिस्थ किये गये "भारत-सावित्री" कहा जाता है। व्यासजी ने मानव जाति को
जो आज भी वहां विद्यमान हैं। इनका पीठाधीश्वर रहने का उसमें शाश्वत सन्देश दिया है।।
काल 61 वर्ष (1478 ई. 1539 ई.) माना जाता है। न जातु कामान्न भयान्न लोभात्
व्यासराय द्वैत-संप्रदाय के द्वितीय प्रतिष्ठापक हैं। मध्व ने धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः
अपनी अलौकिक प्रतिभा के बल पर जिस द्वैत-मत का प्रवर्तन धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्येः ।
किया था, उसके विरोधियों के सिद्धांतों का प्रबल खंडन तथा जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः।
मीमांसा, न्यायादि शास्त्रों के आधार पर स्वमत अर्थ - काम, भय या लोभ किंबहुना जीवित के भी।
का युक्तियुक्त मंडन करते हुए, इन्होंने द्वैत-मत का प्राबल्य कारण से धर्म का त्याग मत करो क्यों कि धर्म शाश्वत है।
एवं प्रामुख्य सदा के लिये स्थापित कर दिया। इसी प्रकार सुख-दुःख अनित्य हैं। जीव (आत्मा) नित्य है, जन्म-मृत्यु
न्यायामृत, तात्पर्यचंद्रिका तथा तर्क-ताण्डव जैसे श्रेष्ठ ग्रंथों का अनित्य हैं।
प्रणयन कर, इन्होंने अखिल भारतीय विद्वानों में अपनी अपूर्व व्यासराय - द्वैत-मत के "मुनित्रय' में अंतिम मुनि तथा प्रतिष्ठा स्थापित की। कहते हैं कि जब मैथिल नैयायिक पक्षधर माध्व-मत की गुरु-परंपरा में 14 वें गुरु। मध्य तथा जयतीर्थ मिश्र दक्षिण गए, तब उन्होंने व्यास राय की प्रशंसा में कहा थाके साथ में व्यासराय द्वैत-संप्रदाय के "मुनित्रय" में समाविष्ट यदधीतं तदधीतं यदनधीतं तदप्यधीतम् होते हैं। अपने प्रगाढ पांडित्य, उदात्त चरित्र एवं गंभीर साधना पक्षधर-विपक्षो नावेक्षि विना नवीनव्यासेन ।। के कारण इन्हें “द्वितीय मध्वाचार्य" माना जाता है। इन्होंने व्यासराय केवल तार्किक-शिरोमणि ही न थे, प्रत्युत भक्तिरस अपने पांडित्यपूर्ण भाष्यों के द्वारा भारतीय दार्शनिक गोष्ठी में से स्निग्ध कन्नड भाषीय सरस गीतियों के रचयिता भी थे। दैत-दर्शन को उच्चतम स्तर पर प्रतिष्ठित किया और भारत के इनके पद आज भी साधकों तथा संतों के मार्ग-प्रदर्शक हैं दार्शनिक इतिहास में द्वैत-वेदांत को शास्त्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त कराई। और कन्नड-कविता के गौरवस्वरूप माने जाते हैं। इनके
सोमनाथ ने "व्यास-योगि-चरित" नामक अपने ऐतिहासिक पांडित्यपूर्ण ग्रंथों ने द्वैत-वेदांत के इतिहास में एक नई शैली काव्य में व्यासराय का चरित्र विस्तारपूर्वक दिया है। वह सर्वथा को जन्म दिया, जो अब "नव्य वेदांत' के नाम से प्रख्यात प्रामाणिक तथा इतिहाससंगत है तदनुसार इनका जन्म मैसूर है। अद्वितीय तार्किक होने के साथ ही, व्यासराय मधुर कवि के एक गांव में 1460 ई. के आसपास हुआ। पिता वल्लण्ण तथा नैष्ठिक साधक भी थे। इन्हींके शिष्य पुरंदरदास ने कन्नड सुमति थे कश्यप-गोत्री। ब्रह्मण्यतीर्थ इनके दीक्षागुरु थे। उनकी भाषा में सरस पदों एवं गीतियों की रचना कर वही कीर्ति 1475-76 ई. में आकस्मिक मृत्यु होने के कारण व्यासराय __ अर्जित की, जो हिन्दी-जगत् में संत सूरदासजी को प्राप्त है। को शास्त्रों के अध्ययन का अवसर न मिल सका। पीठाधिपति इस प्रकार कन्नड में "दासकूट" (भ्रमणशील पदगायक संत) बनने के पश्चात् ही ये दक्षिण भारत के विश्रुत विद्यापीठ में के उद्भावक के रूप में तथा सुदूर बंगाल में अपने प्रभाव अध्ययनार्थ कांची गए, और वहां पर न्याय-वेदांत का पांडित्य का विस्तार करने में व्यासराय अद्वितीय हैं। अर्जित किया। श्रीपादराज नामक पंडित से भी इन्होंने द्वैत-शास्त्रों ___व्यासराय ने 8 ग्रंथों का निर्माण किया जिनमें 3 ग्रंथ का विशद अध्ययन किया। इनकी कीर्ति चारों ओर फैलने मूर्धाभिषिक्त कृतियां मान सकते है। वे हैं- न्यायामूत, तात्पर्य-चंद्रिका लगी। चंद्रगिरि के शासक सालुव नरसिंह ने इनका बडा और तर्क-तांडव । इन्हें "व्यासत्रय" के समवेत नाम से अभिहित आदर-सत्कार किया। उनकी राजसभा में अनेक पंडितों को किया गया है। तीनों ही ग्रंथ समवेत रूप से द्वैत-वेदांत के
464 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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