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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra की है। तत्संबंधी उनकी एक ऋचा इस प्रकार है न्यग्ने नव्यसा वचस्तनूषु शंसमेषाम् । न्यराती रराव्णां विश्वा अयो अरारितो युच्च्छन्त्वामुरो नभन्तामन्यके समे।। (ऋ. 8-39-2) अर्थ है अग्निदेव हमारी इस अपूर्व प्रार्थना से इन (दुष्टों) की गालियों को उनके शरीरों ही में भस्म कर डालिये। उसी प्रकार दानशील भक्तों के शत्रु और आर्यों के सभी शत्रु मूढ होकर यहां से पूरी तरह चलते बने तथा सभी दुष्टों का नाश हो जाये। नाभाक ने अपनी एक ऋचा में अपने काव्य के मननीय होने का आत्मविश्वास व्यक्त किया है (ऋ. 8-39-3)। www.kobatirth.org नाभानेदिष्ठ ऋग्वेद के दसवें मंडल के 61 व 62 क्रमांक सूक्त इनके नाम पर हैं। विश्वेदेवों की प्रार्थना इन सूक्तों का विषय है। नाभानेदिष्ठ हैं मनु के पुत्र । इनकी कथा इस प्रकार है : - नाभानेदिष्ठ जब विद्यार्जन हेतु गुरुगृह रहते थे, तब उनके तीन भाइयों ने समूचे पितृधन को आपस में बांट लिया। घर लौटने पर जब उन्होंने अपने हिस्से के बारे पूछा, तो उनके पिता बोले- "वत्स, संपत्ति का बंटवारा क्या कोई बडी बात हैं । तुम अच्छे सुशिक्षित हो। तुम्हें कहीं पर भी संपत्ति प्राप्त हो सकती है । अब यदि तुम्हें संपत्ति चाहिये ही हो तो सुनो। पास ही नवग्व अंगिरस स्वर्ग-प्राप्ति के लिये एक यज्ञ कर रहे हैं। उस यज्ञ में 6 दिनों तक अनुष्ठान करने पर उनको बुद्धिभ्रम होगा। तब तुम वहां एक सूक्त कहना। इससे उनका कार्य सफल होगा और वे तुम्हें एक सहस्र गोधन देंगे । तब नाभानेदिष्ठ यज्ञस्थल पहुंचे। सातवें दिन यज्ञ में गड़बड़ी हो गई। यह देख नाभानेदिन आगे बड़े और "इदमित्था" (ऋग्वेद 10-61) यह सूक्त उन्होंने कहा । परिणामस्वरुप यज्ञ की निर्विघ्न सफल समाप्ति हुई। नाभानेदिष्ठ की विद्वत्ता से अंगिरस प्रसन्न हुए, और उन्होंने नाभानेदिष्ठ को एक सहस्र गोधन दान में दिया । इस गोधन को घर ले जाते समय मार्ग में उन्हें वास्तोष्यति रुद्र मिले। बोले "यह मेरा भाग होने के कारण, यह गोधन तुम मुझे दे डालो।" सुनकर नाभानेदिष्ठ ने कहा" अपने पिता की सूचनानुसार मैने इस दान का स्वीकार किया है। अतः में वह तुम्हें नहीं दूंगा। तब रुद्र बोले- "अच्छा, तो तुम जाकर इस बारे में अपने पिता से पूछ आओ और फिर मुझे उचित उत्तर दो।” तदनुसार नाभानेदिष्ठ ने जाकर अपने पिता से पूछा । पिता ने बताया- "वत्स, वह भाग रुद्र का ही है"। नाभानेदिए ने लौटकर पिता का निर्णय ज्यों-का-त्यों सुना दिया। इस सत्य कथन से रुद्र प्रसन्न हुए और उन्होंने वह गोधन नाभानेदिष्ट को पुरस्कार में दे दिया। न्याय्य व सत्य भाषण उन्हें अत्यंत प्रिय है। उनके सूक्तों पर से भी - यही बात परिलक्षित होती है। वे कहते हैं। मक्षू कनायाः सख्यं नवग्वा ऋतं वदतं ऋतयुक्तिमग्मम् । द्विवर्हसो य उप गोपमागुदक्षिणासो अच्युता दुदुक्षन् ।। (12-61-10) अर्थ- न्याय भाषण तथा धर्मानुकूल योजना करने वाले नवग्वों ने युवती का प्रेम तत्काल संपादन कर लिया। वे सव्यसाची नवग्व-रक्षक जो देवता की ओर गए उन्होंने ऐहिक लाभ की आशा न कर जो अचल एवं शाश्वत के रूप में (प्रसिद्ध ) था उसी का दोहन किया। इनकी कथा ऐतरेय ब्राह्मण के समान ही सांख्यायन ब्राह्मण तथा सांख्यायन श्रौतसूत्र में भी आयी है। नारद काण्व पौराणिक नारद से ये भिन्न हैं। ऋग्वेद के आठवें मंडल का 13 वां सूक्त इनके नाम पर है। इन्द्र की स्तुति इस सूक्त का विषय है। ऋषि नारद काण्व कहते हैं। कि जिस प्रकार इन्द्र बलवान और सज्जनप्रतिपालक है, उसी प्रकार वे काव्य के स्फूर्तिदाता भी हैं। उनके सूक्त की एक ऋचा इस प्रकार है : वृषायमिन्द्र ते रथ उतो ते वृषणा हरी । वृषा त्वं शतक्रतो वृषा हवः ।। ( 8-13-31) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अर्थ- हे इन्द्र, तुम्हारा यह रथ वीर्यशाली है उसी प्रकार तुम्हारे अश्व भी वीर्यशाली हैं। हे अपार कर्तृत्त्व वाले देवता, आप स्वयं तो वीर्यशाली हैं ही, किन्तु आपका नामसंकीर्तन भी वैसा ही वीर्यशाली है। इसके अतिरिक्त 9 वें मंडल के 104 और 105 क्रमांक के दो सूक्त, पर्वत नारदी इस संयुक्त नाम पर है। सोम की स्तुति इन सूक्तों का विषय है। नारायण ई. छठी शती । वैदिक साहित्य में नारायण नाम के अनेक लेखक हुए है। स्कन्दस्वामी, नारायण और उद्गीथ इन तीन आचार्यों ने मिल कर ऋग्वेद पर भाष्य रचना की । नारायण नामक अन्य दो विद्वानों ने आश्वलायन श्रौतसूत्र और आश्वलायन गृह्यसूत्र पर भाष्य लिखे हैं । - For Private and Personal Use Only श्रीमध्वाचार्य कृत ऋग्भाष्य पर जयतीर्थ प्रणीत व्याख्या की विवृत्ति लिखने वाले और एक नारायण हुए हैं । ऋग्भाष्यकार नारायण के पुत्र थे सामवेद-विवरणकार माधव भट्ट । उन्हीं का श्लोक बाणभट्ट ने मंगल श्लोक के स्वरूप में स्वीकार किया है। इसी आधार पर नारायणाचार्य का काल सातवीं शताब्दी के पहले माना गया है। आश्वलायन श्रौतसूत्र भाष्यकार नारायणाचार्य के पिता का नाम नरसिंह, और गोत्र गर्ग था। आश्वलायन गृह्यसूत्र के भाष्यकार नारायण, श्रौतसूत्र भाष्यकार नारायण से अर्वाचीन है। जयतीर्थ प्रणीत व्याख्या की विवृत्ति लिखने वाले नारायणाचार्य बहुत ही अर्वाचीन हैं इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता । नारायण ज्योतिष-शास्त्र के एक आचार्य। समय 1571 ई. । - - संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 349
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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