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पिता- अनंतनंदन, जो टापर ग्राम के निवासी थे। इन्होंने "मुहूर्त-मार्तण्ड" नामक मुहूर्तविषयक ग्रंथ की रचना की है। नारायण नामक एक अन्य विद्वान ने भी ज्योतिष-विषयक ग्रंथ की रचना की है, जिनका समय 1588 ई. है। "केशवपद्धति" पर रचित इनकी टीका प्रसिद्ध है। इन्होंने बीजगणित का भी एक ग्रंथ लिखा था। नारायण - ई. 16 वीं शती। पिता-शंकर, जिन्हें गणित तथा ज्योतिषज्ञान के कारण बृहस्पति का अवतार माना गया। केरल में कोचीन के राजा राजराज का इन्हें आश्रय प्राप्त था। गणित-शास्त्र के विशेषज्ञ होते हुए भी नारायण साहित्योपासक थे।
कृतियां- महिषमंगल (भाण), रासक्रीडा (पद्य), उत्तररामचरित (चम्पू) और भाषानैषधचम्पू (मलयालम भाषा में)। नारायण गांगाधरि - समय 18 वीं शती । रचना- विक्रमसेनचम्पू।। तंजौर के शाहजी राजा के अमात्य त्र्यंबक के पोते। नारायण गुरु - सन 1856-1928। केरल के एक महान् धर्मसुधारक । त्रिवेंद्रम से सात मील की दूरी पर स्थित चंबाझन्ती ग्राम तथा एलुवा नामक अस्पृश्य जाति में जन्म। पिता-मातन । माता- कुही। प्रारंभ में अपने चाचा तथा बाद में रामन् पिल्ले नामक एक विद्वान से संस्कृत भाषा की शिक्षा ग्रहण की। केरल प्रदेश में उस समय भी अछूतों को संस्कृत सीखने की छूट थी। अतः नारायण गुरु ने प्रारंभिक तीन वर्षों तक संस्कृत व तमिल के वेदान्तविषयक ग्रंथों का अध्ययन किया और छात्रों को संस्कृत तथा तमिल पढाई।
वेदांत का अध्ययन करते हुए उन्हें विरक्ति उत्पन्न हुई। उसी अवस्था में उनकी भेट चट्टांबी स्वामी और थैक्कर अय्युबू नानक दो योगियों से हुई। उनके मार्गदर्शन में नारायणगुरु ने योगाभ्यास प्रारंभ किया। फिर कन्याकुमारी के समीप मरुत्तमलै नामक स्थान पर पिल्ला थाडम नामक गुफा में रहते हुए उन्होंने घोर तपस्या की। फिर समाज जीवन के निरीक्षणार्थ तमिलनाडु तथा केरल प्रदेशों की यात्रा की।
उन दिनों सवर्ण हिन्दुओं द्वारा अछूतों की बडी अवहेलना की जा रही थी। अस्पृश्य होने के कारण स्वयं नारायण गुरु को भी सतत तीस वर्षों तक अनेक कठिनाइयां झेलनी पडी थीं। उस स्थिति से लाभ उठाते हुए ईसाई तथा मुसलमान लोग अछूतों को अपने-अपने धर्मों में खींचने हेतु संलग्न थे। विशेष कर मछुए एवं एलुवा जाति के लोग ईसाई बनाये जा रहे थे। उस स्थिति को देखते हुए नारायण गुरु ने अपनी भारत-भ्रमण की योजना स्थगित की और वे समाजोद्धार के कार्य में जुट गए। तदर्थ अरूविप्पुरम नामक गाव में उन्होंने अपना वास्तव्य स्थिर किया। प्रतिदिन ध्यान-धारणा के पश्चात् नारायण गुरु दीन-दुखियों
परिणामस्वरूप अधिकांश निम्न वर्ग के लोग उनसे प्रेम करने लगे। उन्होंने अधिकारी परुषों को परमार्थ मार्ग का उपदेश देना भी प्रारंभ किया। ___ केरल के विकृत बने धार्मिक एवं सामाजिक जीवन को सुधारने हेतु, सर्वप्रथम उन्होंने अछूतोद्धार का कार्य प्रारंभ किया। उस समय स्पृश्यों के मंदिरों में अछूतों को प्रवेश बंदी थी, किन्तु अछूत समाज के अंतःकरण पर सुसंस्कारों की दृष्टि से, उनके लिये देवालयों का होना आवश्यक था। अतः नारायण गुरु ने एक शिवमंदिर बनवाया। किसी अस्पृश्य व्यक्ति द्वारा निर्मित यही भारत का पहला मंदिर है। बाद में उन्होंने कुछ और मंदिरों का भी निर्माण कराया। इन मंदिरों के लिये उन्होंने एक स्वतंत्र उपासना-पद्धति भी निर्माण की। साथ ही समाज में वेदांत के प्रचार हेतु, नारायण गुरु ने नवीन संन्यासी-मठ भी स्थापित किये। अल्पावधि में ही ये मठ-मंदिर, हिन्दू समाज के संगठन तथा ज्ञान-प्रचार के प्रभावी केन्द्र बन गए।
नारायण गुरु ने सभी जातियों को समान माना और सभी को संन्यास लेने की छूट दी। उन्होंने अस्पृश्यों को अद्वैत की सीख दी और मद्यपान पर प्रतिबंध लगाया। पशुबलि की प्रथा का अंत करते हुए आपने अनेक सामाजिक सुधारों की नींव रखी।
"सदाचार ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। जातिभेद का विचार एवं उसकी चर्चा मत करो। इस संसार में केवल एक ही जाति है, और वह है मानव जाति। परमात्मा भी एक ही है- इस प्रकार के अपने उपदेशों से नारायण गुरु ने लोगों के हृदय जीत लिये। परिणामस्वरूप विदेशी ईसाई धर्म की ओर प्रवाहित अस्पृश्य समाज का प्रवाह केरल प्रदेश में रुक गया। कहा जाता है कि यदि नारायण गुरु न हुए होते, तो केरल का बहुसंख्य हिन्दू समाज ईसाई बन गया होता। उनका प्रतिपादन था कि जतिहीन व वर्गहीन नवीन समाज का निर्माण करने हेतु, हिन्दू समाज में आंतर्जातीय विवाह होने चाहिये। जो धर्म अच्छाई की ओर उन्मुख होने की प्रेरणा देता है, वही सच्चा धर्म है।
नारायण गुरु के इन विचारों एवं कार्यकलापों से, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर और महात्मा गांधी जैसे श्रेष्ठ पुरुष भी उनकी ओर आकृष्ट हुए थे। शिवगिरिस्थित उनके आश्रम जाकर, ये दोनों ही महापुरुष नारायण गुरु से मिले थे।
उनके द्वारा मलयालम् भाषीय ग्रंथों में "आत्मोपदेशतकम्" नामक काव्य ग्रंथ में, उनके सभी उपदेशों का सार है। इसके अतिरिक्त संस्कृत में नारायण गुरु ने विपुल उपदेशपरक एवं स्तोत्रात्मक वाङ्मय की निर्मिति की है, जो ग्रंथरूप में प्रकाशित है। केरल के बरकम नामक गांव में आपका देहान्त हुआ। वहां पर उनकी समाधि बनाई गई है। वहां के आश्रम में,
निःशुल्क देने लगे। वे औषधियां रामबाण सिद्ध होने लगीं।
350 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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