________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
हीन कहलाने वाली अनेक जातियों के लोगों ने संस्कृत एवं वेदांत का ज्ञान प्राप्त किया।
नारायणतीर्थ - ई. 17 वीं शती का पूर्वार्ध। ये स्मार्त ब्राह्मण थे, और तंजौर में रहते थे गुरु-शिवरामानंदतीर्थ । श्रीकृष्णलीला-तरंगिणी (12 तरंग) नामक ग्रंथ में नारायणतीर्थ ने स्वयं का निर्देश शिवरामानंदतीर्थपादसेवक कह कर किया है। आपने जयदेव के गीतगोविंद का गहरा अध्ययन किया था उन्हें जयदेव का अवतार माना जाता है। नारायणतीर्थ ई. 18 वीं शती। आंध्र में गोदावरी जिले में कृषिमन्त्री के निवासी मीमांसा दर्शन के एक प्रख्यात विद्वान् । संन्यास लेने के पहले का नाम गोविंद शास्त्री । काशी के नीलकंठ सूरि के सुपुत्र शिवरामतीर्थ से संन्यास-दीक्षा ली। दीक्षा से पूर्व, मीमांसा पर भाट्टपरिभाषा नामक ग्रंथ की रचना । इस ग्रंथ में जैमिनीय सूत्र के बारह अध्यायों का सारांश संकलित किया गया है। मीमांसा के समान ही आपने वेदांत पर भी ग्रंथ लिखे है। आपको एक प्रतिभाशाली विद्वान् के रूप में मान्यता प्राप्त है । नारायण दीक्षित तंजौर के राजा शाहजी भोसले (1683-1711) की राजसभा के सदस्य रचना अद्भुतपंजर (नाटक) । नारायण पण्डित काल 900 तथा 1373 ई. के बीच माना जाता है। धवलचन्द्र का समाश्रय प्राप्त । सुप्रसिद्ध "हितोपदेश” नामक नीतिकथा संग्रह के रचयिता । (2) आश्लेषाशतकम् के लेखक ।
·
-
·
www.kobatirth.org
नारायण नायर केरल में नेम्मर ग्राम के निवासी रचनाशीलपट्टिकारम् नामक प्रसिद्ध मलयालम् भाषीय ग्रंथ का अनुवाद । नारायण भट्ट समय- ई. 16 वीं शती । जन्म- मदुरा के निवासी एक भृगुवंशी दीक्षित ब्राह्मण कुल में । बाल्यकाल से ही कृष्णभक्ति में पले हुए नारायणभट्ट, बाद में स्थायी निवास हेतु ब्रजमंडल गए और वहां पर उन्होंने कृष्णदास ब्रह्मचारी से दीक्षा ग्रहण की। नारायणभट्ट ने ब्रजमंडल के माहात्म्य को बहुत वृद्धिंगत किया। भागवत तथा वराहादि पुराणों में श्रीकृष्ण लीला के जिन स्थानों का उल्लेख है, वे स्थान कालप्रवाह में विस्मृत हो चुके थे। नारायणभट्ट ने उन स्थानों को खोज निकाला और ब्रजमंडल के वनों, उपवनों, तीथों तथा देवी-देवताओं का माहात्य वृद्धिंगत करने की दृष्टि से एवं कृष्णभक्ति के प्रसारार्थ अनेक ग्रंथों की रचना की। उसी प्रकार भक्तों द्वारा कृष्णलीला का अनुकरण किया जाने हेतु उन्होंने रास नृत्य का भी प्रसार किया। तदर्थ उन्होंने ब्रजमंडल में अनेक स्थानों पर रास-मंडलों की स्थापना की।
नारायणभट्ट ने संस्कृत भाषा में व्रजोत्सवचंद्रिका, व्रजोत्सवाह्लादिनी
ब्रजभक्तिविलास, भक्तभूषणसंदर्भ
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
बृहत्नजगुणोत्सव, भक्तिविवेक, साधनदीपिका आदि साठ ग्रंथ लिखे है।
गोवर्धन पर्वत के समीप स्थित राधाकुंड के तट पर बारह वर्षो तक वास्तव्य करने के पश्चात् नारायणभट्ट ब्रजमंडल के अंतर्गत ऊंचेगाव में रहने गए, और वहां पर उन्होंने अपना गृहस्थजीवन प्रारंभ किया। ऊंचेगांव में उन्होंने बलदेवजी की, और बरसाना में लाडलीलालजी की पूजा-अर्चा प्रारंभ की। वह वृत्ति (कार्य) उनके वंशजों द्वारा अभी तक चालू है । ऊंचेगांव में ही नारायणभट्ट की समाधि है । नारायणभट्ट जन्म सन 1513 में एक श्रेष्ठ मीमांसक तथा धर्मशास्त्री । विश्वामित्र गोत्रीय देशस्थ ऋग्वेदी ब्राह्मण। मूल निवासस्थान पैठण (महाराष्ट्र)। कुलदेवता - कोल्हापुर की महालक्ष्मी । कहते हैं कि इनके पिता रामेश्वरभट्ट ने पुत्रप्राप्ति के हेतु महालक्ष्मीजी की मनौती मानी थी और उन्हीं के कृपाप्रसाद से नारायणभट्ट का जन्म हुआ । इनके पुत्र का नाम शंकरभट्ट । आपने अपने पिताजी के पास ही शास्त्रों का अध्ययन किया था। राजा टोडरमल से इनकी मित्रता थी । गाधिवेशानुचरित तथा भट्ट नामक ग्रंथों के उल्लेखानुसार नारायणभट्ट ने बंगाल व मिथिला के पंडितों को वाद विवाद में पराजित किया था। आपकी विद्वत्ता के कारण ही काशीक्षेत्र में दाक्षिणात्य पंडितों को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई थी। आपने काशी में महाराष्ट्रीय लोगों की एक बस्ती बसाई। उत्कृष्ट विद्वत्ता तथा सदाचरण के कारण आपको "जगद्गुरु" की पदवी प्राप्त हुई थी । अतः मंत्रजागर के प्रसंग पर समस्त वैदिकों में इनके घराने को अग्रपूजा का सम्मान दिया जाने लगा, जो अभी तक चालू है। इनके वंशजों ने इन्हें प्रत्यक्ष विष्णु का अवतार माना है निर्णयासिंधुकार कमलाकर भट्ट कहते हैं "वेदों के उद्दिष्ट धर्म की रक्षार्थ श्रीहरि ने नारायणभट्ट के नाम से मनुष्य रूप धारण किया, मेरे ऐसे पितामह को मैं वंदन करता हूं।
1
कहा जाता है कि मुगलों द्वारा उध्वस्त काशी विश्वेश्वर का मंदिर इन्होंने फिर से बनवाया था ।
इन्होंने पार्थसारथी मिश्र के शास्त्रदीपिका नामक ग्रंथ के एक भाग पर टीका लिखी और दूसरे भाग पर उनके सुपुत्र शंकरभट्ट ने नारायणभट्ट की वृत्तरत्नाकर पर लिखी टीका प्रसिद्ध है, और उनके मूहूर्तमार्तंड, अंत्येष्टि-पद्धति, त्रिस्थलीखेतु तथा प्रयोगरत्न नामक ग्रंथ उल्लेखनीय है। प्रयोगरल में विवाह से गर्भाधान तक के सभी संस्कारों का इन्होंने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
अन्य ग्रंथ अवननिर्णय, आरामोत्सर्गपद्धति आतुरसंन्यासविधि, जीवच्छ्रद्धप्रयोग आहिताग्निमरणदाहादि पद्धति, महारुद्रपद्धति अथवा रुद्रपद्धति, काशीमरणमुक्तिविवेक, गोत्रप्रवरनिर्णय, तिथिनिर्णय, तुलापुरुषदानप्रयोग, दिव्यानुष्ठानपद्धति, मासमीमांसा, कालनिर्णयकारिका व्याख्या, वृक्षोत्सर्गपद्धति, लक्षहोमपद्धति और
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 351
For Private and Personal Use Only