________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
जिले के हलदीपुर नामक गांव में आपका जन्म हुआ। आप वैष्णव सम्प्रदायी सारस्वत ब्राह्मण थे। पिता- वेंकटेशभट्ट | माता - सतीदेवी । धर्मशास्त्र, ज्योतिष, याज्ञिक आदि विषयों में नागेशभट्ट निष्णात थे। यह विद्या उन्होंने अपने पिताश्री से ही प्राप्त की थी।
www.kobatirth.org
नागेशभट्ट ने धर्मशास्त्र तथा ज्योतिष शास्त्र पर 6 बड़े-बड़े ग्रंथ लिखे। इनके स्मृत्यर्थमुक्तावली, तांत्रिकमुक्तावली और आगम नामक तीन ग्रंथ धर्मशास्त्र विषयक है तथा आयतंत्र आर्याकौतुक और महाबलिसिद्धांत नामक तीन ग्रंथ हैं गणित विषयक । कनार्टक के लोगों ने नागेशभट्ट को श्रौतस्मार्त कमों में अग्रमान दिया था। यह सम्मान उनके वंशजों को आज तक प्राप्त है। नागेशभट्ट को आसपास के गांव वालों की और से भूमि, वर्षासन आदि अनेक सुविधाएं प्रदान की गई थीं। नागोजी भट्ट समय 1700-50 के लगभग। काशी के एक प्रसिद्ध महाराष्ट्रीय वैयाकरण व दार्शनिक पिता- शिवभट्ट माता सती । काले और उपाध्ये इनके कुलनाम (उपनाम) थे। उत्तरभारतीय श्रृंगवेरपुर के राजा रामराजा इनके आश्रयदाता थे । नागोजी भट्ट ने भट्टोजी दीक्षित के पौत्र हरि दीक्षित के यहां व्याकरण शास्त्र का, तथा पंडित रामराम भट्टाचार्य के यहां न्यायशास्त्र का अध्ययन किया था। इनके तीसरे गुरु थे शंकरभट्ट ।
व्याकरण, धर्मशास्त्र, अलंकारशास्त्र, इतिहास, पुराण, काव्यशास्त्र, सांख्य, योग आदि विविध विषयों पर नागोजी भट्ट ने तीस से अधिक ग्रंथों की रचना की है। तीर्थेदुशेखर, आचारेंदुशेखर, अशौचनिर्णय तिथीन्दुसार आदि है इनके धर्मशास्त्रविषयक ग्रंथ । किन्तु पाणिनीय व्याकरण पर लिखित महाभाष्यप्रदीपोद्योत परिभाषेंदुशेखर, लघुशब्देदुशेखर, बृहत्शब्देदुशेखर, वैयाकरणसिद्धान्तमंजरी नामक ग्रंथों तथा रसगंगाधर व रसतरंगिणी इन साहित्यशास्त्रीय ग्रंथों पर लिखे गये भाष्यों के कारण उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैली।
अपने गुरु के प्रति श्रद्धादर व्यक्त करने हेतु नागोजी भट्ट ने "शब्दरत्न" नामक व्याकरणविषयक ग्रंथ की रचना करते हुए, उसे उन्हींके नाम से प्रसिद्ध किया । अनेक शास्त्रों पर विपुल ग्रंथ - रचना करने पर भी उनकी विद्वत्ता का प्रमुख क्षेत्र व्याकरणशास्त्र ही था। इनका पांडित्य ज्ञानकोश के स्वरूप का था। आपने पचास वर्षो से भी अधिक कालावधि तक शास्त्रोपासना की ।
एक आख्यायिका के अनुसार, जयपुर के राजा सवाई जयसिंह ने सन् 1714 में अधमेथ का पौरोहित्य करने हेतु निमंत्रण किया था, किन्तु स्वयं द्वारा क्षेत्रसंन्यास लिये जाने का कारण बताकर नागोजी भट्ट ने उस निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। काशीक्षेत्र में 62 वर्ष की आयु में आपका देहांत हुआ। नाथमुनि समय- 824 से 924 ई. । दक्षिण भारत के वैष्णवों में रंगनाथ मुनि के नाम से विख्यात विशिष्टाद्वैतवाद
348 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
-
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
के आचार्य तमिल वेद के पुनरुद्धारक। शठकोपाचार्य की शिष्य परंपरा में आते हैं जन्मस्थान वीरनारायणपुरम् श्रीरंगम् में निवास । नाथमुनि को सिद्धियां प्राप्त थीं । अतः उन्हें योगींद्र भी कहा करते थे। उनके मूल नाम का पता नहीं चलता। संन्यास लेने के पश्चात् वे नाथमुनि कहलाए। नाथमुनि संस्कृत व तमील इन दोनों भाषाओं के पंडित थे। आपका सबसे बडा वाड्मयीन कार्य है आलवार संतों के गीतों का संकलन एवं संपादन "नालाविरदिव्यप्रबंधम्" नामक संकलन में बारह आलवारों के चार हजार गीतों का संग्रह है।
नम्मालवार की शिष्यपरंपरा के परांकुश मुनि थे नाथमुनि के गुरु नाथमुनि के ग्यारह शिष्यों में, पुंडरीकाक्ष, कुस्कनाथ और लक्ष्मीनाथ प्रमुख थे। उन्होंने भी अपने गुरु के भक्तिसिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया। रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत मत की नींव, नाथमुनि ने ही डाली। वेदान्तदेशिक नामक आचार्य तो नाथमुनि को ही विशिष्टाद्वैत संप्रदाय के संस्थापक मानते हैं।
नाथमुनि द्वारा लिखित संस्कृत ग्रंथों के नाम हैं- न्यायतत्त्व, पुरुषनिश्चय और योगरहस्य इनमें से न्यायतत्व को विशिष्टाद्वैत मत का सर्वप्रथम ग्रंथ माना जाता है। श्रीनिवासदास नामक पंडित ने अपने ग्रंथ में नाथमुनि का उल्लेख व्यास और बोधायन के समकक्ष किया है। नाथमुनि के पौत्र यामुनाचार्य, प्रसिद्ध रामानुजाचार्य के गुरु थे ।
नान्यदेव - तिरहुत (मिथिला) के राजा । बंगाल के विजसेन द्वारा ई.स. 1160 में परास्त । नेपाल की तराई में कर्कोटक-वंश के राज्य-संस्थापक । राज्यकाल (लेवी के अनुसार ) ई.स. 1097 से 1147 तक । रचना- सरस्वती - हृदयभूषण या सरस्वती हृदयालंकारहार। अतिरिक्त रचनाएं मालतीमाधव-टीका, भरतनाट्य शास्त्रभाष्य ( भरतवार्तिक) । 'अभिनव भारती' में अभिनव गुप्त ने "उक्तं नान्यदेवेन स्वभरतभाष्ये" ऐसा निर्देश किया है। इससे भारत भाष्यकर्ता नान्यदेव का अस्तित्व सिद्ध होता है।
नाभाक ऋग्वेद के आठवें मंडल के क्रमांक 39 से 42 तक के सूक्त नाभाक के नाम पर हैं। इन्होंने एक ऋचा में अपने नाम का स्पष्ट उल्लेख किया है। (8-41-2)। ये कण्वकुल के होंगे। आपने अपने एक सूक्त में मांधाता का उल्लेख किया है। अतः वे मांधाता के उत्तरकालीन होने चाहिये। वायु, भागवत व विष्णु इन पुराणों में दी गई वंशावली के अनुसार आप श्रुत के पुत्र हैं किन्तु मत्स्य पुराण में आपको भगीरथ का पुत्र कहा गया है।
नाभाक के सूक्तों का विषय है अग्नि एवं वरुण की स्तुति । उनके मतानुसार अग्नि काव्यस्पूर्ति का पोषण करने वाला है। वह देवताओं में वास करता है। वह सात ऋषिकुलों का अग्रणी है। नाभाक ने अग्नि से दुष्टविनाशक शक्ति की याचना
For Private and Personal Use Only