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उन्हीं अर्थों में प्रयुक्त होते हैं, परंतु ऐसे कुछ दोष क्षम्य माने जा सकते हैं। संस्कृत नियतकालिकों का इस प्रतिकूल काल में भी जो अव्याहत प्रकाशन होता आया और आज भी हो रहा है उससे इस भाषा पर लादा गया मृतत्व का आक्षेप अनायास खंडित होता है। कतिपय उल्लेखनीय पत्रपत्रिकाओं की नामावली प्रतशः परिशिष्ट में दी है।
संस्कृत नियतकालिकों की यह नामावली परिशिष्ट (घ) में निर्दिष्ट डॉ. रामगोपाल मिश्र के संस्कृत पत्रकारिता का इतिहास नामक शोध प्रबंध पर आधारित है। उस नामावली के अतिरिक्त भी कुछ और नाम भी जोड़े गये हैं। इस सूची के अनुसार कलकत्ता से 17, वाराणसी से 32, बंबई से 11, मद्रास से 11, और दिल्ली से 5 पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। असम और सिंध से इस कार्य में योगदान नहीं हुआ। संस्कृत वाङ्मय की निधि में आधुनिक काल में अनुवादित ग्रन्थों एवं नियतकालिकों के द्वारा उल्लेखनीय योगदान हुआ है। संस्कृत वाङ्मयेतिहास के प्राचीन कालखंड में जिन महान् प्रेषकारों ने अपना वैशिष्यपूर्ण योगदान पर्याप्त मात्रा में दिया उन में बहुत सारे प्रतिभासंपन्न एवं पांडित्यसम्पन्न महानुभावों के नाम सर्वविदित है दुर्भाग्य की बात यह है कि आर्वाचीन कालखंड में जिन्होंने इस सनातन वाङ्मय निधि को श्रीवृद्धि भरपूर मात्रा में की, ऐसे ग्रन्थकारों के नाम उनके प्रदेश में भी प्रख्यात नहीं हो सकें। ऐसे अप्रसिद्ध परंतु श्रेष्ठ ग्रंथकारों में पंडितराज जगन्नाथ के समकालीन, अप्पय्य दीक्षित (104 ग्रंथों के निर्माता ) तंजौर के नृपति रंघुनाथनायक, उनकी धर्मपत्नी रामभद्राम्बा, और मंत्री गोविंद दीक्षित, रलखेट श्रीनिवास दीक्षित (अभिनव भवभूति । ) तंजौर के तुकोजी महाराज का मंत्री घनश्यान कवि, केरल निवासी नारायण भट्टपाद (भट्टात्रि), राजस्थान के समीक्षाचक्रवर्ती मधुसुदनजी ओझा, (135 ग्रंथों के लेखक ), कर्नाटक के वासिष्ठगणपति मुनि और उनके शिष्य ब्रह्मश्री कपालीशास्त्री, महाराष्ट्र के वासुदेवानंद सरस्वती, प्रज्ञाचुक्ष गुलाबराव महाराज, अप्पाशास्त्री राशिवडेकर, बंगाल के प. हृषीकेश भट्टाचार्य, गणनाथ सेन, वाराणसी के गागाभट् काशीकर, इत्यादि अनेक स्वनामधन्य महानुभावों ने संस्कृत के शास्त्रीय एवं लालित्यपूर्ण वाङ्मय की परंपरा अखंडित रखी है।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 267