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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र-पत्रिकाएँ 19 वीं शताब्दी में भारत के विविध प्रान्तों के नेताओं ने लोकजागृति के हेतु अंग्रेजी तथा हिंदी, बांगला प्रभृति प्रादेशिक भाषाओं में वृत्तपत्र तथा मासिक पत्रिकाएँ प्रकाशित करना प्रारंभ किया। लोकजागृति के इस वाङ्मयीन कार्य में संस्कृत पण्डितवर्ग भी अग्रेसर हुआ। सन 1866 में वाराणसी के राजकीय संस्कृत विद्यालय से "काशीविद्यासुधानिधि" नामक प्रथम संस्कृत पत्रिका प्रकाशित हुई।। सन 1876 में इसका प्रकाशन स्थगित होने के बाद 1887 से 1977 तक यह "पंडितपत्रिका" प्रकाशित होती रही। वाराणसी से 1876 से पूर्णमासिकी अथवा प्रत्यग्रनन्दिनी नामक पत्रिका सत्यव्रत सामश्रमी के संपादकत्व में प्रकाशित होने लगी। इस प्रकार संस्कृत के नियतकालिक साहित्य का उद्गम काशी (या वाराणसी) जैसे संस्कृत विद्या के महान् केंद्र से हुआ। 1871 से 1914 तक लाहौर से ऋषीकेश भट्टाचार्य के संपादकत्व में विद्योदय का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। पंजाब विश्वविद्यालय के अधिकारी डा. वुलनर का इस कार्य में प्रोत्साहन था। लाहौर का त्याग कर पं. ऋषीकेश भट्टाचार्य कलकत्ता में निवासार्थ गए। तब से विद्योदय का प्रकाशन कलकत्ते से होने लगा। डॉ. रामगोपाल मिश्र ने सागर विश्वविद्यालय से पीएच.डी. उपाधि के लिए “संस्कृत पत्रकारिता का इतिहास" नामक शोध प्रबंध लिखा है। (पृष्ठसंख्या 235) प्राप्तिस्थान विवेक प्रकाशन, सी. 11/17 मॉडल टाऊन, दिल्ली-9। इसमें 19 वीं और 20 वीं शताब्दी में उदित एवं अस्तंगत प्रायः सभी नियतकालिक पत्रिकाओं का सविस्तर परामर्श लिया गया है। आधुनिक संस्कृत वाङ्मय का परामर्श लेने वाले कुछ शोधप्राय निबंधों एवं प्रबन्धों में भी नियतकालिक साहित्य का पर्याप्त विवेचन हुआ है। श्रीराम गोपाल मिश्र की सूची के अनुसार 19 वीं शताब्दी में 54 और 20 वीं शताब्दी में 166 पत्र-पत्रिकाएँ संस्कृत वाङ्मय क्षेत्र में निर्माण हुईं। आज करीब 40 पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं। मैसूर से सुधर्मा नामक दैनिक पत्रिका 1970 से अव्याहत चल रही है। संस्कृत में दैनिक पत्रक प्रकाशित करने का साहस त्रिवेंद्रम की जयन्ती और पुणे की संस्कृति के संपादकों ने भी किया था। संस्कृत पत्रपत्रिकाओं के संपादन का कार्य विशिष्ट उद्देश्य से चला था। कांचीवरम् के प्रतिवादिभयंकर मठ के अधिपति अनन्ताचार्य ने अपनी मंजुभाषिणी नामक मासिक पत्रिका अपने मठ का मतप्रचार करने के उद्देश्य से चलाई थी। मद्रास के आर. कृष्णम्माचार्य की सहृदया का उद्देश्य पौरस्य एवं पाश्चात्य विद्याओं का समन्वय करना था। अयोध्यावासी कालीप्रसाद त्रिपाठी ने अपना संस्कृतम् साप्ताहिक "अस्यामेव शताब्दयां संस्कृतं राष्ट्रभाषा भवतु" इस ध्येय से प्रेरित होकर प्रतिकूल परिस्थिति में चलाया। संस्कृत केवल धार्मिक व्यवहार की ही भाषा नहीं। उस भाषा में अद्ययावत् लौकिक व्यवहार करने की भी क्षमता है। यह सिद्ध करने की महत्त्वाकांक्षा सभी पत्रपत्रिकाओं के संपादन के पीछे रही और प्रायः सभी पत्रपत्रिकाओं ने संस्कृत भाषा की वह शक्ति अच्छी प्रकार से सिद्ध की। संस्कृत एक अखिल भारतीय भाषा होने के कारण, इन नियतकालिकों का क्षेत्र संपूर्ण भारतवर्ष रहा। भारत के सभी प्रदेशों के प्रमुख शहरों से संस्कृत पत्रपत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ यह उल्लेखनीय है।। दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि आधुनिक संस्कृत साहित्य का बहुत सारा उत्कृष्ट अंश इन पत्रिकाओं में यथावसार प्रकाशित होता गया। गोल्डस्मिथ के हरमिट काव्य का अनुवाद (एकान्तवासी योगी) पंडित जगन्नाथप्रसाद के संसारचक्र नामक हिन्दी उपन्यास का अनुवाद, वासिष्ठचरितम् इत्यादि ग्रंथ कांचीवरम् की मंजुभाषिणी में क्रमशः प्रकाशित हुए। सद्हृदया में शेक्सपीयर के काव्यों के अनुवाद एवं सुशीला नामक उपन्यास प्रकाशित हुआ। पं. अंबिकादत्त व्यास का सुप्रसिद्ध शिवराजविजय, आप्पाशास्त्री राशिवडेकर की संस्कृतचन्द्रिका में प्रकाशित हुआ। वाराणसी की संस्कृतभारती में रवीन्द्रनाथ टैगोर की सुप्रसिद्ध गीतांजली का संस्कृत अनुवाद प्रकाशित हुआ। पं. वसन्त गाडगीळ की शारदापत्रिका और जयपुर की भारती में श्री. भा. वर्णेकर का 68 सर्गों का महाकाव्य शिवराज्योदय प्रकाशित हुआ। प्रा, अशोक अकलूजकर की आप्पाशास्त्री साहित्यसमीक्षा, डॉ. ग. बा. पळसुलेकृत विवेकानंदचरित इत्यादि पचास से अधिक पुस्तकें क्रमशः तथा ग्रंथरूप में वसंत गाडगीळ की शारदा में प्रकाशित हुई। सभी श्रेष्ठ नियतकालिकों में यथावसर प्रकाशित कथा, उपन्यास, खंडकाव्य, नाटक आदि का यथोचित संकलन करना और उन्हें स्वतंत्र ग्रंथरूप में या कोशरूप में प्रकाशित करना एक आवश्यक कार्य है। इस प्रकार संकलन अभी नहीं हो सका तो अर्वाचीन संस्कृत साहित्य का बहुत सारा संरक्षणीय अंश काल के कराल गाल में ग्रस्त हो जाएगा। आधुनिक नियतकालिक वाङ्मय के कारण संस्कृत गद्य में महान परिवर्तन हुआ है। प्राचीन लेखकों की श्लिष्ट एवं दीर्घ समासादि के कारण क्लिष्ट लेखन शैली समाप्त होकर सरल सुबोध लेखन शैली प्रचालित हुई है। पुराने मुद्रित ग्रंथों में संधियुक्त मुद्रण के अतिरेक से दुर्वाचनीयता दोष निर्माण हुआ है। (जिस के कारण संस्कृत एक दुर्बोध भाषा मानी गई थी) वह नियतकालिक साहित्यद्वारा हटाया गया। आधुनिक युग के राजकीय, सामाजिक, आर्थिक व्यवहारों में एवं यांत्रिक जीवन में आवश्यक आशय व्यक्त करने के लिए प्राचीन संस्कृत साहित्यमें न मिलने वाले अनेक नवीन संस्कृत शब्दों का प्रचार इन "नियतकालिकाओं के द्वारा सर्वत्र हो रहा है। कुछ पत्रिकाओं में प्रादेशिक भाषाओं में विशिष्ट अर्थ में रूढ हुए संस्कृत शब्द 266 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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