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संस्कृत वाङ्मय कोश
ग्रंथकार खण्ड
अंबालाल पुराणी (प्रा.) - अरविन्दाश्रम के संस्कृत पण्डित । कृति-योगिराज अरविन्द के तत्त्वज्ञान का सूत्ररूप संग्रह 'पूर्णयोग सूत्राणि'। अंबिकादत्त व्यास (पं.) - ई. 19 वीं शताब्दी के प्रसिद्ध गद्य-लेखक, कवि एवं नाटककार । पिता-दुर्गादत्त शास्त्री (गौड)। समय 1858 से 1900 ई.। इनके पूर्वज भानपुर ग्राम (जयपुर राज्य) के निवासी थे किन्तु इनके पिता वाराणसी जाकर वहीं बस गए। व्यासजी, राजकीय संस्कत महाविद्यालय पटना में। अध्यापक थे, और उक्त पद पर जीवन पर्यन्त रहे। इनके द्वारा प्रणीत ग्रथों की संख्या 75 है। इन्होंने हिन्दी और संस्कृत दोनों भाषाओं में समान अधिकार के साथ रचनाएं की हैं। व्यासजी ने छत्रपति शिवाजी के जीवन पर 'शिवराज-विजयम्' नामक गद्यकाव्य की रचना की है, जो 'कादंबरी' की शैली में रचित है। इनका 'सामवतम्' नामक नाटक, 19 वीं शती का श्रेष्ठ नाटक माना जाता है। पंडित जितेन्द्रियाचार्य द्वारा संशोधित 'शिवराजविजयम्' की, 6 आवृत्तियां प्रकाशित हो चुकी हैं। कवि अम्बिकादत्त अपनी असाधारण विद्वत्ता तथा प्रतिभा के कारण समकालीन विद्वन्मण्डली में 'भारतभास्कर', 'साहित्याचार्य', 'व्यास' आदि उपाधियों से भूषित थे। इन्हें 19 वीं सदी का बाणभट्ट माना जाता है। श्री. व्यास जीवनपर्यन्त साहित्याराधना में लीन रहे । उनकी प्रमुख काव्य-कृतियां :
1) गणेशशतकम्, 2) शिवविवाहः (खण्डकाव्य), 3) सहस्रनामरामायणम् (इसमें एक हजार श्लोक हैं। यह 1898 ई. में पटना में रचा गया)। 4) पुष्पवर्षा (काव्य), 5) उपदेशलता (काव्य), 6) साहित्यनलिनी, 7) रत्नाष्टकम् (कथा)यह हास्यरस से पूर्ण कथासंग्रह है। 8) कथाकुसुमम् (कथासंग्रह), 9) शिवराजविजयः (उपन्यास)। (1870 में लिखा गया, किन्तु इसका प्रथम संस्करण 1901 ई. में प्रकाशित हुआ), .10) समस्यापूर्तयः, काव्यकादम्बिनी (ग्वालियर में प्रकाशित) 11) सामवतम् (यह नाटक, पटना में लिखा गया। इसकी प्रेरणा महाराज लक्ष्मीश्वरसिंह से प्राप्त हुई थी। यह स्कन्दपुराण की कथा पर आधारित है तथा इसमें छह अंक हैं), 12) ललिता नाटिका, 13) मूर्तिपूजा, 14) गुप्ताशुद्धिदर्शनम्, 15) क्षेत्र-कौशलम्, 16) प्रस्तारदीपिका और 17) सांख्यसागरसुधा। अकबरी कालिदास - ई. 16-17 वीं सदी। मूल नाम गोविंद भट्ट। अकबर के शासनकाल में जिन संस्कृत पंडितों को उदार राजाश्रय मिला, उन्हीं में से एक हैं। वहीं 'अकबरी कालिदास' यह उपाधि मिली। महाराजा रामचंद्र का भी आश्रय इन्हें प्राप्त था। अपनी प्रशस्ति में उन्होंने स्वयं लिखा है -
अनाराध्य कालीमनास्वाद्य गौरीम्ऋते मन्त्रतन्त्राद्विना शब्द-चौर्यात् । प्रबंधं प्रगल्भं प्रकर्तुं विरिचिप्रपंचे मदन्यः कविः कोऽस्ति धन्यः ।
(पद्यवेणी- 786) अर्थ काली की आराधना, गौरी का आस्वादन, मंत्रतंत्र एवं शब्दचौर्य के बगैर प्रगल्भ प्रबंध निर्माण करना तथा प्रवचन करना, इस कामों में ब्रह्मा की सृष्टि में मुझे छोड़ कर और कौन कवि है? अकलंकदेव - ई. 8 वीं सदी (दिगंबरपंथीय जैन तर्काचार्य। कवि-उपाधि प्राप्त। अनेक बौद्ध पंडितों के साथ वादविवाद कर दक्षिण भारत में जैन दर्शन का बौद्ध मत के प्रभाव से रक्षण किया। गृध्रपिच्छविरचित तत्त्वार्थसूत्र पर तत्त्वार्थवार्तिक ग्रंथ की रचना द्वारा, जैन सिद्धान्त पर किये जाने वाले विविध आक्षेपों का इन्होंने निराकरण किया। संमतभद्रकृत आप्तमीमांसाग्रंथ पर अष्टशती नामक स्वल्पाक्षर टिप्पण प्रस्तुत किया। प्रमाणसंग्रह, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय एवं लघीयस्त्रय ये चार प्रकरण ग्रंथ लिख कर जैन प्रमाणशास्त्र की व्यवस्थित पुनर्रचना की। ज्ञानकोश-स्वरूप के ग्रंथ लिखने की जो प्रथा वाचस्पतिमित्र, उदयन, शांतरक्षित आदि दर्शनकारों ने प्रारम्भ की, उसकी प्रेरणा अकलंकदेव के ग्रंथ से ही मिली। रामस्वामी अय्यंगार के अनुसार कांची के हिमशीतल राजा की सभा में इन्होंने बौद्धों का पराभव किया। परिणामतः बौद्ध दक्षिण से
चले गये। ____ पांडव-पुराण में एक दंतकथा है-हिमशीतल राजा के दरबार में बौद्ध दार्शनिक के साथ अकलंकदेव का वादविवाद हुआ जिसमें बौद्ध दार्शनिक की हार हुई। वादविवाद के प्रारंभ में अकलंदेव को संदेह हुआ कि बौद्ध पंडित के निकट जो पात्र है, उसमें कोई मायावी पुतली है, जो अपने स्वामी को जिताने में सहायक हो रही है। अकलंदेव ने तुरंत उस पात्र को ठोकर मारकर उलट दिया। परिणामतः बौद्ध दार्शनिक की वादविवाद में पराजय हुई। इस घटना के पश्चात् दक्षिण में बौद्धों का प्रभाव प्रायः समाप्त हो गया।
दर्शनशास्त्री होने पर भी अकलंकदेव का हृदय भक्त का था। अपने अकलंकस्तोत्र में वे कहते हैं :
त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषय सालोकमालोकितं साक्षायेन यथा निजे करतले रेखात्रयं साङ्गुलि । रागद्वेष-भयामयान्तक-जरा-लोलत्व-लाभोदयो नालं यत्पदलङ्घनाय स महादेवो मया वंद्यते।।
268 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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