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तरंगिणी, तत्त्वसंग्रहदीपिका-टिप्पणी, सिद्धान्तमुक्तावली-टीका और , अधिक सर्ग थे किन्तु वर्तमान में उपलब्ध उसके हस्तलिखित, कारकनिर्णय-टीका।
+8 वें सर्ग के मध्य में ही समाप्त हो गये हैं। "कीर्तिविलास" रामवर्म महाराज . त्रावणकोर नरेश (ई. 1860-1880)। नामक इनके दूसरे काव्य का केवल एक उल्लास ही प्राप्य संगीत के जानकार। रचनाएं- वृत्तरत्नाकर (छन्दःशास्त्र),
है। इसमें दरबार के पंडितों व कवियों की सभाओं का विवरण श्रीकृष्णविलास काव्य टीका और जलंधरासुरवध (कथाकली
है। इनके अतिरिक्त इन्होंने गांधारचरित, पार्वतीपरिणय, नृत्य नाट्य)।
अंबरीषचरित, तुलाभारप्रबंध, अन्यापदेशद्वासप्तती, गौणसमागम, रामवर्मा (रामवर्म वंची) - जन्म-1757 ई.। पूर्ण नाम
वृत्तरत्नावली, रामोदय, क्षेत्रतत्त्वदीपिका आदि ग्रंथ भी लिखे हैं। अश्वति तिरूनाल रामवर्मा। पिता- रविवर्मा कोयिल ताम्पुरान् । रामस्वामी शास्त्री के. एस. - समय- ई. 20 वीं शती। किल्लिमानूर के निवासी। प्राथमिक शिक्षा कार्तिक तिरुनाल कुम्भकोणम् निवासी। जगदम्बा के उपासक। डिस्ट्रिक्ट जज्ज। महाराज के अधीन। दूसरे अध्यापक आचार्य शंकर नारायण
पिता-सुन्दररामार्य। माता-चम्पकलक्ष्मी। सरकारी नौकरी में रह तथा रघुनाथ तीर्थ । सन् 1785 में युवराजपद । सन् 1795 में मृत्यु।
कर भी समाजसेवी। सन् 1928 में "रतिविजय" नामक नाटक कृतियां- (संस्कृत) रुक्मिणीपरिणय तथा शृंगारसुधाकर
की रचना की। (भाण) कार्तवीर्यविजय (चम्पू), वंचिमहाराजस्तव, सन्तानगोपाल
रामस्वामी शास्त्री व्ही. एस. - मदुरा के एक वकील । प्रबंध और दशावतार दण्डक।।
रचना- त्रिबिल्वदलचम्पूः (विभिन्न तीर्थक्षेत्रों तथा विश्वविद्यालयों मलयालम रचनाएं - रुक्मिणी-स्वयंवर, पूतना-मोक्ष,
का प्रवास वर्णन)। मुद्रित । अम्बरीष-चरित, पौंड्रक-वध, नरकासुर-वध (ये कथाकली कोटि रामानंद - समय- 1410-1510 ई.। रामावत सम्प्रदाय की कृतियां) तथा पद्मनाभकीर्तन। सर्वश्रेष्ठ रचना - के प्रवर्तक आचार्य । जन्म-प्रयाग में एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण-परिवार "रुक्मिणीपरिणय"।
में हुआ। पिता-पुण्यसदन, माता-सुशीला। बाल्यकाल से ही रामवर्मा - क्रांगनोर के युवराज। ई. 18-19 वीं शती। वीतरागी होने के कारण गृहत्याग और काशी-प्रयाण। काशी रामचरितम् (12 सर्ग) महाकाव्य के प्रणेता।
में राघवानन्द का शिष्यत्व। इस सन्दर्भ में एक कथा यह रामवर्मा - क्रांगनोर-राजवंश के युवराज । कवि सार्वभौम तथा
बतायी जाती है कि जब रामभारती (पूर्वनाम) काशी पहुंचे कोचिन्नु ताम्पूरान् नाम से प्रसिद्ध। समय- 1858 से 1926
तो वहां वे एक अद्वैती संन्यासी के शिष्य बने। योगायोग से ई.। रचनाएं- अनंगविजयभाणः, विटराजभाणः, त्रिपुरदहनम्
एक दिन उनकी भेट राघवानंद से हुई। उन्होंने रामानंद के (काव्य), वल्ल्यु द्भवम् (काव्य), विप्रसन्देशम् (काव्य),
गुणों की प्रशंसा की किन्तु कहा कि "तू अल्पायुषी है"। देवदेवेश्वरशतकम् (स्तोत्रकाव्य), उत्तररामचम्पूः, बाणायुधचम्पूः,
यह बात रामानंद ने अपने गुरु को बतायी, तो उन्होंने रामानंद देवीसप्तशतीसार, किरातार्जुनीय-व्यायोग और जरासंध-व्यायोग।
की अपमृत्यु टालने के लिये उन्हें राघवानंद के सुपूर्द कर रामशास्त्री वेदमूर्ति - ई. 19 वीं शती । रचना- गायकवाडबन्धम् ।
दिया। राघवानन्द ने उन्हें योगचर्या और समाधि की शिक्षा
दी। यहीं वे रामभारती से रामानंद बने। अपमृत्यु का समय विषय- बडोदा के गायकवाड-वंशीय राजाओं का चरित्र ।
निकट आने पर राघवानन्द ने उन्हें समाधि लगाकर बैठने का रामसेवक - महाभाष्यप्रदीप-व्याख्या के लेखक । पिता- देवीदत्त ।
निर्देश दिया। समाधि की अवस्था में उन्हें मृत्यु स्पर्श नहीं पुत्र-कृष्णमित्र। समय- संभवतः सं. 1650-1700 के मध्य ।
कर पायी। समाधि उतरते ही राघवानंद ने कहा "अब तुम्हारी रामसेन - काष्ठासंघ नदीतटगच्छ और विद्यागण के आचार्य ।
मृत्यु टल गयी है"। राघवानन्द के सम्प्रदाय में जाति-पांति व नरसिंहपुरा जाति के संस्थापक। विद्यागुरु-वीरचंद्र, शुभदेव,
खान-पान के कठोर नियम थे। तीर्थयात्रा के दौरान रामानंद महेन्द्रदेव और विजयदेव। दीक्षागुरु-नागसेन जो सेनगण और
उन नियमों का पालन नहीं कर पाये तो राघवानंद ने उन्हें पोगरिगच्छ के आचार्य थे। समय- ई. 11 वीं शती का मध्य
प्रायश्चित्त करने के लिये कहा। किन्तु रामानंद ने यह कह कर भाग। रचना- तत्त्वानुशासन (59 पद्य) यह अध्यात्म विषयक
कि "जातिपाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि को ग्रंथ स्वानुभूति से अनुप्राणित और ध्यानयोग से संबद्ध है।
होई", प्रायश्चित्त करने से इंकार कर दिया। इस पर राघवानन्द रामस्वामी शास्त्री - समय- 1823-1887 ई.। केरल के एक ने उन्हें अपने संप्रदाय से निकाल दिया। अब रामानंद ने नये कवि। पिता-शंकरनारायण शास्त्री। सन् 1849 में त्रिवांकुर राजा सम्प्रदाय की स्थापना की जिसमें जाट, क्षत्रिय, बुनकर, चमार, के दरबार में जाकर शेष जीवन उन्हीं के आश्रम में बिताया। नापित (नाई) ब्राह्मण सभी को शामिल कर, उन्हें अपना इन्होंने भट्टिकाव्य के समान "सुरूपराघव" नामक एक महाकाव्य शिष्य बनाया। रामानंद स्वयं को राम का अवतार मानते थे। रचा। इसमें रामकथा के साथ ही व्याकरण के नियमों और कुछ लोग उन्हें कपिलदेव का तथा कुछ सूर्यनारायण का अलंकारों की जानकारी दी गई है। इस महाकाव्य के 15 से अवतार मानते हैं। जात-पात के बंधनों को तोड कर सम्पूर्ण
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 429
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