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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उसे अपने पौरुष पर बडा ही गर्व था। उसके बाद भीमसेन गिर पड़ा। उसके गिरने का कारण वह बहुत ही पेटू था और उसे अपनी शक्ति का गर्व था सबके गिर पड़ने पर कुता और धर्मराज दोनों के आगे बढ़ने पर इंद्र रथ लेकर पहुंच गये और अकेले धर्मराज को रथ पर सवार होने कहने लगा। लेकिन धर्मराज उस स्वामिभक्त कुत्ते को छोड़ने को तैयार नहीं थे। वह देखकर कुत्ते के रूप में यमधर्म अपने यथार्थ रूप को प्रकट करते हुए बोले, "हमने तेरी परीक्षा ली।” उसके बाद धर्मराज को विमान पर बिठाकर संदेह स्वर्ग चले गए। 18 स्वर्गारोहण पर्व वैशम्पायन ने आगे कहा- स्वर्ग लोक पहुंचकर धर्मराज ने दुर्योधन आदि कौरवों को बड़े ही ठाट बाट से बैठ पाया। लेकिन पांडवों को वहां न पाकर धर्मराज ने वहां रुकना स्वीकार नहीं किया। धर्मराज के बताने पर कि जहां मेरे कर्ण भीम आदि बंधु और द्रौपदी सगे संबंधी हो वहां मुझे भी ले चलो, एक देवदूत नरक के दर्शन कराने उन्हें ले गया। उस नरक में बहुत से प्राणी भांति भांति की यातनाओं को भुगत रहे थे। वहां से लौटने का विचार धर्मराज के मन में आते ही नरक में व्याकुल प्राणी कहने लगे, "धर्मराज, कुछ समय तक ऐसे ही खड़े रहो तुम्हारे शरीर पर से आनेवाले वायुसे हमारी यातनाएं दूर हो गईं। हमें बहुत ही सुख मिल रहा है।" उनके बोल सुनकर धर्मराज ने पूछा, "तुम कौन है? तब "मैं नकुल, मैं द्रौपदी, मैं कर्ण, मैं अर्जुन, मैं धृष्टद्युम्न" इस तरह शब्द सुनाई दिए । उनको सुनकर धर्मराज मन ही मन सोचने लगे, इन्होंने कुछ भी पातक नहीं किया तब इन्हें नरक यातना क्यों? और उस पापी दुर्योधन को स्वर्ग का सम्मान और सुख कैसे? सोचते सोचते वे कुपित भी हो गए। उन्होंने देव धर्म की निंदा की। देवदूतों को बिदा किया और खुद वहां रुकने से स्नेही संबंधियों को सुख पहुंच रहा है, इस लिए वे वहीं खडे रहे । देवदूत के सारा समाचार देवों पर प्रकट करने पर इंद्रादिक देव धर्मराज के पास आ गये, उसी क्षण नरक लुप्त हो गया । सुगंधित वायु चलने लगी। अनंतर इंद्र ने धर्मराजा से कहा, "तुम्हे स्वर्ग लोक ही प्राप्त होने वाला है, लेकिन सभी राजाओं को नरक में जाना पड़ता है। जिनका पुण्य अधिक रहता है उन्हें पहले नरक और बाद में स्वर्ग मिलता है और जिनका पाप अधिक उन्हें पहले स्वर्ग और बाद में नरक मिलता है। तुमने अश्वत्थामा के मरने का समाचार आंशिक झूठसच बताया इस लिए तुम्हें यह झूटा नरक देखना पड़ा। यह सब आभासमात्र है । यथार्थ में अर्जुन आदि स्वर्ग में स्थित हैं। इस आकाशगंगा में अब स्नान करके उन अपने सगे संबंधियों से मिलने प्रस्तुत हो जाओ । इतने में वहां साक्षात् यमधर्म पहुंच गये। वे धर्मराज से बोले, "मैने तेरी तीन बार परीक्षा ली। पहली बार द्वैत वन में यक्षप्रश्न के समय, दूसरी बार साथ में कुत्ते के समय, और यह तीसरी बार है तू तीनों बार अपने सत्व के प्रति जागरूक ही रहा । तू धन्य है । तेरे भाई नरक में कैसे जा सकते हैं? यह सब इंद्र से तुझे अपनी माया दिखाई है। अनन्तर धर्मराज ने आकाशगंगा में स्नान किया, नर देह का चोला त्याग कर दिव्य देह धारण किया और अपने बंधुओं के पास स्वर्ग पहुंच कर आनन्दपूर्वक दिन बिताने लगे। 1 समग्र चरित्र तुझको मैने सुनाया।" वैशम्पायन कहते हैं, "हे जनमेजय राजा, इस प्रकार कौरव पांडवों का Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महाभारत की कथा सुनकर जनमेजय राजा को भारी आश्चर्य हुआ। उसने सर्पसत्र पूरा किया। सर्पों के मुक्त हो जाने पर आस्तिक ऋषि को बड़ा आनंद हुआ। राजा ने सभी ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदक्षिणा के साथ बिदा किया और वह तक्षशिला नगरी से हस्तिनापुर लौट आया। इस तरह उस जनमेजय राजा के सर्मसत्र में व्यास महर्षि के आदेशानुरूप जो महाभारत वैशम्पायनजी ने सुनाया, इस इतिहास का दूसरा नाम "जय" भी है। वेदों की जिस तरह संहिता रहती है, उसी तरह महाभारत की यह लाखों श्लोकों की संहिता व्यास महर्षि ने सर्वजनहितार्थ निर्माण की। तीस लाख श्लोकों की संहिता स्वर्गलोक में, पंद्रह लाख श्लोकों की संहिता पितृलोक में चौदह लाख श्लोकों की संहिता यक्षलोक में और एक लाख श्लोकों की संहिता मनुष्यलोक में इस तरह कुल मिलाकर साठ लाख (60,00,000) श्लोकों की रचना व्यास महर्षि ने की है। देवलोक याने स्वर्ग में नारद ने देवों को, पितृलोक में देवल ऋषि ने पितरों को, यक्षलोक में शुक्राचार्य ने यक्षों को और मनुष्य लोक में वैशम्पायनजी ने मनुष्यों को पहले पहल यह रचना सुनाई। 124 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड टिप्पणी प्रस्तुत ग्रंथ के पुराण-इतिहास विषयक प्रकरण में ग्रंथों के विस्तार आदि बहिरंग का परिचय प्रधानता से दिया है। समस्त पुराण वाङ्मय कथाओं का महासागर है। उनके अंतरंग का परिचय कथाओं द्वारा देना उचित था किन्तु विभ के कारण पुराण कथाओं का परिचय हमने टाला है। इस पुराणेतिहासान्तर्गत कथा वाङ्मय का परिचय एकमात्र महाभारत की अद्भुत रम्य एवं रसोत्कट कथा के परिचय से यथोचित होने की संभावना मान कर, पर्वानुक्रम के अनुसार अतीव संक्षेप में दी है। (लेखक संपादक) - For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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