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इनका आविर्भाव हुआ था। कल्पसूत्र के रचयिता। ये कृष्णयजुर्वेदीय थे। बर्नेल के अनुसार इनके छह सूत्र उपलब्ध हैं। वे इस प्रकार हैं- 1. श्रौतसूत्र, 2. कर्मान्तसूत्र, 3. द्वैधसूत्र, 4. गृह्यसूत्र, 5. धर्मसूत्र और 6. शुल्बसूत्र । बौधायन-शाखा के लोग संप्रति आन्ध्र में कृष्णा नदी के मुहाने के निकटवर्ती क्षेत्र में अधिक संख्या में हैं। बोपदेव- मुग्धबोध नामक लघु व्याकरण-तन्त्र के प्रणेता। पिता-केशव। गरु-धनेश्वर (धर्मेश)। निवास-दौलताबाद (देवगिरि) के समीप । देवगिरि के हेमाद्रि के मन्त्री। समय-वि.सं. 1300-1350 । अन्य रच पाएं-कवि-कल्पद्रुम नामक धातुपाठ-संग्रह
और उसकी टीका, मुक्ताफल, हरिलीलीविवरण, शतश्लोकी (वैद्यक ग्रंथ) और हेमाद्रि नामक धर्मशास्त्रीय निबन्ध । बोम्मकांटि रामलिंगशास्त्री- ई. 20 वीं शती। उस्मानिया वि.. वि. हैदराबाद में संस्कृत-विभागाध्यक्ष । शिक्षा-एम.ए. (भारतीय पुरातत्त्व) पीएच.डी. (संस्कृत) तथा शास्त्री। प्राच्य तथा पाश्चात्य विद्याओं के ज्ञाता। नाट्यसाहित्य आधुनिक विदेशी पद्धति पर विकसित किया। कृतियां- सत्याग्रहोदय (नाटक), दशग्रीव (पद्य-संवाद), जवाहर-श्रध्दांजलि, लघुगीतसंग्रह, गेयांजलि (कविता-संकलन), संस्कृतिकरणम्, शुनःशेप (एकांकी), मेघानुशासन (एकांकी), सुग्रीव-सख्य, मातृगुप्त (एकांकी), देवयानी और यामिनी (नभोनाट्य) और विक्रान्त-भारत। ब्रजनाथ तैलंग- “मनोदूत" नामक संदेश-काव्य के रचयिता। रचना-काल, वि.सं. 1814। इस काव्य की रचना, इन्होंने वृंदावन में की थी। पिता-श्रीरामकृष्ण। पितामह-भूधर भट्ट । ये पंचनंद के निवासी माने जाते हैं। ब्रह्म कृष्णदास (केशवसेन सूरि)- लोहपत्तन नगर-निवासी। पिता-हर्ष। माता-वीरिकादेवी। ज्येष्ठ भ्राता-मंगलदास। काष्ठासंघ के पट्टधर भट्टारक रत्नकीर्ति के शिष्य। समय- ई. 17 वीं शती। रचनाएं- मुनिसुव्रत-पुराण (वि.सं.1681)-23 सर्ग और 3025 पद्य। कर्णामृत-पुराण व षोडशकारण व्रतोद्यापन । ब्रह्मगुप्त (गणकचक्रचूडामणि)- समय- 598-665 ई. । पिता-जिष्णु। गणित-ज्योतिष के सुप्रसिद्ध आचार्य। इनका जन्म 598 ई. में पंजाब के "भिलनालका" नामक स्थान में हुआ था। इन्होंने "ब्रह्मस्फुट-सिद्धांत" व "खंड-खाद्यक" नामक ग्रंथों की रचना की है। ये बीजगणित के प्रवर्तक व ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड पंडित माने जाते हैं। इनके दोनों ही ग्रंथों के अनुवाद अरबी भाषा में हुए है। "ब्रह्मस्फुट-सिद्धांत" को अरबी में "असिन्द हिन्द" व "खंड-खाद्यक" के अनुवाद को "अलर्कन्द" कहा जाता है। आर्यभट्ट के पृथ्वी-चलन-सिद्धांत को खंडित करते हुए, इन्होंने पृथ्वी को स्थिर कहा है। अपने ग्रंथों में ब्रह्मगुप्त ने अनेक स्थलों पर आर्यभट्ट, श्रीषेण, विष्णचंद्र प्रभृति आचार्यों के मतों का खंडन करते हुए, उन्हें त्याज्य बतलाया है। ब्रह्मगुप्त के अनुसार इन आचार्यों की
गणना-विधि से ग्रहों का स्पष्ट स्थान शुद्ध रूप में नहीं आता। सर्वप्रथम इन्होंने गणित व ज्योतिष के विषयों को पृथक् कर, उनका वर्णन अलग-अलग अध्यायों में किया है और गणित-ज्योतिष की रचना विशेष क्रम से की है। आर्यभट्ट के निंदक होते हुए भी, इन्होंने ज्योतिष विषयक तथ्यों के अतिरिक्त बीरगणत, अंकगणित व क्षेत्रमिति के संबंध में अनेक मौलिक सिद्धांत प्रस्तुत किये हैं, जिनका महत्त्व आज भी उसी रूप में अक्षुण्ण है। "ब्रह्मस्फुट-सिद्धांत' मूल व लेखक-कृत टीका
के साथ काशी से 1902 ई. में प्रकाशित । संपादक- सुधाकर द्विवेदी। मूल व आमराज-कृत संस्कृत टीका के साथ कलकत्ता से प्रकाशित । भास्कराचार्य ने इन्हें "गणक-चक्र-चूडामणि' की उपाधि से विभूषित किया है। अंग्रेजी अनुवाद पी.सी.सेनगुप्ता, कलकत्ता द्वार, संपन्न। ब्रह्म जिनदास- कुन्दकुन्दान्वयी, सरस्वतीगच्छ के भट्टारक सकलकीर्ति के कनिष्ठ भ्राता। बलात्कारगण की ईडर-शाखा के प्रमुध आचार्य। पिता-कर्णसिंह, माता-शोभा। जाति-हुवंड। समय- वि. स. 1450-15251 शिष्यनाम-मनोहर, मल्लिदास, गुणदास और नेमिदास। रचनाएं-जम्बूस्वामि-चरित (11 सर्ग), हरिवंशपुराण (14 सर्ग), रामचरित (83 सर्ग), पुष्पांजलिव्रत-कथा-, जम्बूद्वीप-पूजा सार्द्धद्वय-द्वीपपूजा, सप्तर्षि पूजा, ज्येष्टिजिनवरपूजा, गुरुपूजा, अनन्तव्रतपूजा और
जलयात्राविधि । राजस्थानी भाषा में भी इन्होंने 53 ग्रंथ रचे हैं। ब्रह्मज्ञानसागर- ई. 17 वीं शती। गुरु-श्रीभूषण । ग्रंथ नेमिधर्मापदेश और दशलक्षण कथा। ब्रह्मतन्त्र परकाल स्वामी- मैसूर के परकाल मठ के 31 वें अधिपति (ई. 1839 से 1916)। रचना- अलंकारमणिहारः । काव्य में वेंकटेश्वर-स्तुति तथा अलंकारों का निदर्शन। ये स्वामी मैसूर के प्रसिद्ध कृष्णम्माचार्य वकील थे। इन्होंने अन्यान्य विषयों पर 67 ग्रंथों की रचना की। उनमें से कुछ प्रमुख हैं - रंगराजविलासचम्पू,
कार्तिकोत्सवदीपिकाचम्पू, श्रीनिवासविलासचम्पू, चपेटाहतिस्तुति, उत्तराङ्गमाहात्म्य, रामेश्वर-विजय, नृसिंह-विलास, मदनगोपाल-माहात्म्य आदि । ब्रह्मदत्त- एक महान् वेदांती। आद्य शंकराचार्य द्वारा अपने बृहदाराण्य के भाष्य में इनका उल्लेख किया गया है। वेदान्तदेशिकाचार्य अपनी सर्वाथसिद्धि नामक टीका में ब्रह्मदत्त के कुछ मतों का उल्लेख करते हैं। ये ध्याननियोगवादी थे
और जीवन्-मुक्ति नहीं मानते थे। मोक्ष को ये अदृष्ट फल मानते थे। टीकाकार सुरेश्वराचार्य तथा ज्ञानोत्तम इन्हें ज्ञानकर्मसमुच्चयवादी मानते हैं। ब्रह्मदेव- रचनाएं- 1. बृहद्र्व्यसंग्रह-टीका, 2. परमार्थप्रकाश-टीका, 3. तत्त्वदीपक, 4. ज्ञानदीपक, 5. प्रतिष्ठातिलक, 6. विवाहपटल, तथा 7. कथाकोष । ब्रह्मनेमिदत्त- ई. 16 वीं शती। मूलसंघ सरस्वतीगच्छ
384 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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