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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्धति का आविष्कार आपने ही किया। गुरु- हरि दामोदर वेलणकर की इच्छानुसार यावज्जीवन संस्कृताध्ययन तथा लेखन का व्रत। गणित, संगीत और नाटक में विशेष रुचि। सेवानिवृत्ति के पश्चात् गणित विषयक अनुसन्धान तथा संस्कृत प्रचार कार्य में निरत। अपनी रचनाओं में नये व पुराने दोनों छंदों का प्रयोग किया है। कृतियां-काव्य - विष्णुवर्धापन, गुरुवर्धापन, जयमंगला (अनूदित), जीवनसागर (भारतरत्न पां.वा. काणे का चरित्र), विरहलहरी, जवाहर-चिन्तन, जवाहर-गीता, गीर्वाण-सुधा और अहोरात्र । नाटक-कालिदास-चरित, कालिन्दी, सौभद्र (अनूदित), छत्रपति शिवराज और तिलकायन। नभोनाटिका - कैलास-कम्प, हुतात्मा दधीचि, स्वातंत्र्य-लक्ष्मी, राज्ञी दुर्गावती, स्वातंत्र्यचिन्ता, स्वातंत्र्य-मणि, मध्यम पाण्डव, आषाढस्य प्रथमदिवसे, तनयो राजा भवति कथं में, श्रीलोकमान्य-स्मृति, जन्म रामायणस्य, तत्त्वमसि और मेघदूतोत्तरम्। ब्राह्मण सभा और स्वयंस्थापित देववाणी मंदिर इन संस्थाओं के द्वारा आपने संस्कृत प्रचार का भरपूर कार्य मुंबई में तथा अन्यत्र किया। मराठी कृतियां - जनतेचे दास जसे, कलालहरी निमाली, पैठणचा नाथ, वनिता-विकास, रेवती, राधा-माधव और श्रीराम-सुधा। ___ अंग्रेजी कृतियां - सिमिलीज् इन् ऋग्वेद और कान्ट्रैक्ट ब्रिज।। वैजयन्ती - ई. 17 वीं शती का मध्य। धनुक ग्राम (जिला-फरीदपुर, बंगाल) के निवासी मथुराभट्ट की पुत्री। मीमांसादि शास्त्रों में पारंगत विदुषी। कोटलिपाडा के दुर्गादास तर्कवागीश की पुत्रवधू । पति कृष्णनाथ के साथ "आनन्दलतिका" नामक चम्पू की रचना वैजयन्ती ने की है। वैद्यनाथ - जन्म- वाराणसी में। समय-सत्रहवीं शती का उत्तरार्ध । "श्रीकृष्णलीला" नामक नाटिका के रचयिता। वैद्यनाथ द्विज - ई. 18 वीं शती। बंगाल के निवासी। "तुलसीदूत" के रचयिता। वैद्यनाथ - (श. 19) जन्म-मुम्बई के निकट सुगन्धपुर में। गुरु-रघुनाथ । आश्रयदाता-श्री जीवनजी महाराज । “सत्संग-विजय" नामक प्रतीक नाटक के लेखक। वैद्यनाथ वाचस्पति भट्टाचार्य - नवद्वीप के राजा ईश्वरचन्द्र राय (1788-1802 ई.) के सभापण्डित। "चैत्रयज्ञ" नामक नाटक के रचयिता। वैद्यनाथ शर्मा व्यास - ई. 10 वीं शती। वाराणसी-निवासी। बालकवि। गुरु-आन्ध्र पंडित रामशास्त्री। कृतियां- गणेशसम्भव (काव्य) और गणेश-परिणय (नाटक)। वैयाघ्रपाद - पाणिनि के पूर्ववर्ती एक प्राचीन वैयाकरण। मीमांसकजी ने इनका समय 3100 वि.पू. माना है। महाभारत के अनुशासन पर्व में आए उल्लेख के अनुसार ये महर्षि वसिष्ठ के पुत्र थे (53/30)। "काशिका" में इनका कल्लेख, व्याकरण-प्रवक्ता के रूप में किया गया है। (7/1/94)। इसके अतिरिक्त "शतपथ ब्राह्मण" (10/6), "जैमिनि ब्राह्मण", "जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण" (3/7/3/211, 4/9/1) एवं "शांख्यायन आरण्यक" (917) में भी इनका नाम उपलब्ध है। ___"काशिका" के एक उदाहरण से ज्ञात होता है कि इनके वैयाघ्रपदीय व्याकरण में 10 अध्याय रहे होंगे (5/1/58)। बंगला के प्रसिद्ध "व्याकरण शास्त्रेतिहास" के लेखक श्री हालदार ने इनके व्याकरण का नाम वैयाग्रपद तथा इनका नाम व्याघ्रपात् लिखा है, किंतु मीमांसकजी ने प्राचीन उद्धरणों के आधार पर श्री हालदार के मत का खंडन करते हुए वैयाघ्रपाद नाम को ही प्रामाणिक माना है। इस संबंध में अपने मत को स्थिर करते हुए वे कहते हैं कि “महाभाष्य में व्याघ्रपात् नामक वैयाकरण का उल्लेख है किंतु वे वैयाघ्रपाद से भिन्न हैं, हां, "महाभाष्य" (6/2/26) में एक पाठ है जिसमें व्याडीय का एक पाठांतर "व्याघ्रपदीय" है। यदि यह पाठ प्राचीन हो तो मानना होगा कि आचार्य "व्याघ्रपात्" ने भी किसी व्याकरण का प्रवचन किया था।" वैशंपायन - निगद अर्थात् कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता के निर्माता। तैत्तिरीय आरण्यक एवं आश्वलायन, कौषीतकी और बोधायन गृह्यसूत्र में आपका उल्लेख है। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों का नया अर्थ लगाने का युगप्रवर्तक कार्य आपने किया। शबरस्वामी के अनुसार वैशंपायन ने कृष्णयजुर्वेद की सभी शाखाओं का अध्ययन किया था। (मीमांसा भाष्य-1-1-30)। पाणिनि ने एक वैदिक गुरु के रूप में आपका उल्लेख किया है। व्यासजी के चार प्रमुख वेदप्रवर्तक शिष्यों में से वैशंपायन एक थे। पुराणों के अनुसार उन्हें सम्पूर्ण यजुर्वेद का ज्ञान प्राप्त था। व्यासजी से प्राप्त यजुर्वेद की 86 संहिताएं बनाकर अपने 86 शिष्यों में बांट दी। विष्णु-पुराण के अनुसार यह संख्या 27 है। इनके शिष्यों ने कृष्ण यजुर्वेद के प्रसार का कार्य किया। आपके शिष्य उत्तर भारत, मध्य भारत और पश्चिम भारत में विभाजित थे। __ काशिकावृत्ति के अनुसार आलंबी, पलंग एवं कामठी ये तीन शिष्य चरक देश के पूर्व में, ऋचाभ, आरुणि एवं तांड्य मध्य में तथा श्यामायन, कठ एवं कलापी उत्तर में वेद-प्रचार का कार्य कर रहे थे। वैशंपायनप्रणीत 86 शाखाओं में से केवल तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ एवं कपिष्ठल ही विद्यमान हैं। शेष शाखाएं अनध्याय के कारण लुप्त हो चुकी हैं। कृष्ण यजुर्वेद को बाद में 'चरक' नाम प्राप्त हुआ। चरक का अर्थ ज्ञानप्राप्ति हेतु देशभर संचार करने वाला विद्वान्। वैशंपायन एवं उनके शिष्य भ्रमणशील थे। "चरक इति संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 461 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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