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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैशम्पायनस्य आख्या" (एकाशिका 4/3-4) यज्ञ में अध्वर्यु (व्याडिकृत), बलचरित काव्य (बलराम-चरित), परिभाषापाठ का काम यजुर्वेदी की ओर रहता है। इस कारण आपके और लिंगानुशासन। सभी रचनाएं अप्राप्त है। शिष्य चरकाध्वर्यु कहलाये। व्यास (भगवान्) - एक अलौकिक व्यक्तित्व के महापुरुष । आपने व्यासकृत "जय" ग्रंथ का "भारत" बनाकर भी। महाज्ञानी ग्रंथकार । वर्ण से काले थे, अतः 'कृष्ण' कहलाये। अमूल्य कार्य किया। व्यासजी ने अपना "जय" नामक ग्रंथ द्वीप पर जन्म होने से 'द्वैपायन' भी कहे गये। "कृष्णद्वैपायन" प्रथम आप ही को सुनाया। वह कौरव पांडवों के संघर्ष तक नाम से भी संबोधित किये गये। "वेदान् विव्यास" वेदों के ही मर्यादित था। उसमें केवल 8,800 श्लोक थे। वैशम्पायन विभाग करने से व्यास संज्ञा प्राप्त। पराशर पुत्र होने से ने उन्हें बढाकर 24 हजार तक पहुंचाया और उसे "भारत" 'पाराशर्य' भी कहा जाता रहा। बदरी-वन में तपस्या करने के नाम दिया। अर्जुन के पौत्र जनमेजय के राजपुरोहित एवं कारण 'बादरायण' भी कहलाते थे। विद्वज्जन उन्हें "वेदव्यास" महाभारत की कथा सुनाने वाले यही वैशंपायन थे। याज्ञवल्क्य कहते थे। यह सर्वमान्य लोकोक्ति है कि संसार का सारा के साथ संघर्ष में उन्हें यह पद छोडना पडा। राज्य का भी ज्ञान व्यास की जूठन है। “व्यासोच्छिष्टं जगत् सर्वम्' अर्थात् त्याग करना पड़ा। सारा ज्ञान उन्हें प्राप्त था। वेदोत्तर-काल से आज तक वे वायुपुराण के अनुसार वैशंपायन यह गोत्र-नाम हो सकता भारतीय संस्कृति के महाप्राण रहे हैं। इतिहास-पुराणों की रचना, है, परन्तु ब्रह्माण्ड-पुराण के आधार पर नाम-विशेष भी हो प्राचीन युग की विस्मृतप्राय विद्या-कला का पुनरुज्जीवन, वेदवेदांग सकता है। का संकलन, संपादन, विभाजन आदि के द्वारा व्यासजी ने व्रजनाथ - नरेश माधव के आश्रित । पद्यतरंगिणी (सुभाषित भारतीय संस्कृति का सारा ज्ञान अक्षुण्ण रखा। उन्हें भगवान् संग्रह)। 12 तरंगों में संकलन । विष्णु का अवतार माना जाता है। व्यास यह नाम व्यक्तिवाचक व्रजलाल मुखोपाध्याय - रचना :-ख्रिस्तधर्मकौमुदी-समालोचना। नहीं। यह एक उपाधि है। पुराणों के अनुसार प्रत्येक द्वापर कलकत्ता 1894। बेलेन्टाइन के ख्रिस्तधर्म- कौमुदी की 18941 बेलेन्टाइन के खिम्तीं सदी की युग में एक-एक महनीय पुरुष "व्यास" होता है। हिन्दुधर्म-निन्दा का खण्डन । द्वापरे द्वापरे विष्णुासरूपी महामुने । वृंदावनचन्द्र तर्कालंकार - ई. 16 वीं शती। राधाचरण वेदमेकं सबहुधा कुरुते जगतो हितः।। कवीन्द्र चक्रवर्ती के पुत्र । कवि कर्णपूर के "अलंकारकौस्तुभ' अर्थ- हे महामुने, प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यासरूप पर "अलंकारकौस्तभाटीधिति-पकाशिकानीका का से अवतार लेते हैं और विश्व के हितार्थ एक वेद का विभाग वृंदावन शुक्ल - आपने दो काव्यों का रचना की है- (1) करते हैं। "साम्बचरित' तथा (2) "गौरीचरित"। ___ अभी तक ऐसे 28 व्यास हो गये हैं। कृष्णद्वैपायन अंतिम थे। देवीभागवत मे संपूर्ण नामावली दी है। वृत्तिविलास - अमरकीर्ति के शिष्य । कर्नाटक-वासी। समय-ई. 12 वीं शती। ग्रंथ- धर्मपरीक्षा और शास्त्रसार। धर्मपरीक्षा ___ व्यासजी का जन्म पराशर ऋषि और धीवर-कन्या सत्यवती ग्रंथ अभिगति की धर्मपरीक्षा पर आधारित है। (मत्स्यगंधा) से हुआ। इतिहासज्ञों द्वारा यह काल संभवतः ईसा पूर्व 3100 का माना गाया है। व्यास का विवाह जाबलि व्यश्व आंगिरस - अंगिरस् कुलोत्पन्न। ऋग्वेद के आठवें मंडल के छब्बीसवें सूक्त के द्रष्टा। इस सूक्त में अश्विनौ और की कन्या वटिका से हुआ। उनके पुत्र का नाम शुक था। धृतराष्ट्र और पंडु, बीजदृष्टि से नियोग पद्धति से उत्पन्न, वायु की स्तुति है। प्रस्तुत सूक्त में व्यश्व के रूप में उनका उल्लेख है। व्यास-पुत्र ही थे। दासी से जन्मा विदुर भी उनका ही पुत्र व्यासतीर्थ - आपने न्यायामृत, तर्कतांडव, तात्पर्यचंद्रिका, था। आपका आश्रम सरस्वती के किनारे पर था। वहीं से वे मंदारमंजरी आदि ग्रंथों की रचना की है। उनमें से न्यायामृत हस्तिनापुर आते-जाते थे। वे कौरव-पांडवों को सदा उपदेश को द्वैतवाद का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ माना जाता है। मधुसुदन सरस्वती दिया करते थे। पांडव जब वनवास में थे, उस समय उन्होंने ने अपने अद्वैतसिद्धि नामक ग्रंथ में उसका खंडन किया है। युधिष्ठिर को प्रतिस्मृति नामक सिद्धविद्या दी थी। कृष्ण जब इसी न्यायामृत ग्रंथ से द्वैत व अद्वैत-संप्रदायों में प्रखर वागयुद्ध स्वर्ग सिधारे तो अर्जुन उनकी पत्नियों को लेकर हस्तिनापुर प्रारंभ हुआ जो अभी तक खंडन-मंडन के रूप में चालू है। , लौटे। मार्ग में उन पर आभीर-गणों ने आक्रमण किया। अर्जुन व्याडि - दाक्षि या दाक्षायण के नाम से भी ज्ञात। पाणिनि उनका प्रतिकार नहीं कर सके। विव्हल हो अर्जुन जब व्यास के मामा। गुरु-शौनक। पिता-व्यड। “संग्रह" नामक ग्रंथ के के पास पहुंचे, तो उन्होंने कालचक्र की अनिवार्यता उन्हें समझायीरचयिता (पाणिनीय शास्त्र पर व्याख्यान)। वाहीक (सतलज कालमूलमिदं सर्वं जगबीजं धनंजय । तथा सिन्धु की अन्तर्वेदी) के निवासी। काल-भारतीय युद्ध काल एवं समादत्ते पुनरेव यदृच्छया के पश्चात् 200 वर्ष तक। अन्य रचनाएं- व्याकरणशास्त्र स एव बलवान् भूत्वा पुनर्भवति दुर्बलः । 462 । संस्कृत वाङ्मय काश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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