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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सादृश्य के कारण विकृति-याग में भी ग्राह्य माने जाते हैं, तब उनको उसी कार्य के अनुसार बनाना "ऊह" का कार्य है । ऊह" के तीन प्रकार : www.kobatirth.org (1) मंत्रोह, (2) समोह और (3) संस्कारोह । प्रकृति याग में प्रोक्षण आदि संस्कार ब्रीही पर बताये हो तो उन के स्थान पर प्रयुक्त नीवार आदि पर प्रोक्षण होते हैं। यह संस्कार ऊह का उदाहरण है। प्रकृति के अतिदेश से विकृति में जिन अंगों की प्राप्ति का संभव हो, उनकी किसी कारण विकृति में निवृत्ति होती है। इसी को दशम अध्याय में "बाध" कहा है जैसे किसी याग में व्रीही के स्थान पर सोने के तुकड़े विहित हों, तब अतिदेश से प्राप्त अवघात या कंडन का कोई प्रयोजन न होने से उसे बाध आता है। यह बाध तीन कारणों से होता है (1) अर्थलोप, (2) प्रत्याख्यान और (3) प्रतिषेध इन तीन कारणों से होने वाला बाध दो प्रकार का होता है :- (1) प्राप्त बाध और (2) अप्राप्त बाध । संबंध में भी मार्मिक चर्चा हुई है। : इसी बाध की चर्चा में अभ्युच्चय, पर्युदास, और नमर्थ के ग्यारहवें अध्याय में तंत्र और आवाप का विचार है। अनेकों के उद्देश्य से, अंगों का एक ही बार अनुष्ठान "तंत्र" कहलाता है, और कहीं कहीं विशेषताओं के कारण अनुष्ठान की आवृत्ति भी होती है, तब उसे "आवाप" कहते हैं । अदृश्य परिणाम वाले कृत्य एक ही बार किये जाते हैं और जिनके परिणाम दृश्य होते है, ऐसे कृत्यों की परिणाम दीखते तक आवृत्ति करना आवश्यक माना गया है। प्रसंगविचार 12 वें अध्याय का विषय है। भोजन गुरु के लिए बनवाया जाने पर, उसी समय दूसरे किसी शिष्ट का आगमन हुआ, तो उसके स्वागत का पृथग् आयोजन नहीं करना पड़ता। इस प्रकार दूसरे से उपकार का लाभ हो जाने के कारण प्रयुक्त अंग का अनुष्ठान न करना "प्रसंग" कहा गया है। 3 "मीमांसा दर्शन के कुछ मौलिक सिद्धान्त" 1) वेद नित्य, स्वयंभू एवं अपौरुषेय और अगोप हैं। 2) शब्द और अर्थ का संबंध नित्य है, वह किसी व्यक्ति के द्वारा उत्पन्न नहीं है। 3) आत्माएं अनेक, नित्य एवं शरीर से भिन्न हैं । वे ज्ञान एवं मन से भी भिन्न हैं। आत्मा का निवास शरीर में होता है । और देवता गौण । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4) यज्ञ में हवि प्रधान है, 5) फल की प्राप्ति यज्ञ से ही होती है, ईश्वर या देवताओं से नहीं । 6) सीमित बुद्धि वाले लोग वेदवचनों को भली भांति न जानने के कारण भ्रामक बाते करते हैं। (7) अखिल विश्व की न तो वास्तविक सृष्टि होती है और न विनाश। 8) यज्ञसंपादन संबंधी कर्म एवं फल के बीच दोनों को जोड़ने वाली "अपूर्व" नामक शक्ति होती है। यज्ञ का प्रत्येक कृत्य एक "अपूर्व" की उत्पत्ति करता है; जो संपूर्ण कृत्य के अपूर्व का छोटा रूप होता है । 9) प्रत्येक अनुभव सप्रमाण होता है, अतः वह भ्रामक या मिथ्या नहीं कहा जा सकता। 10) महाभारत एवं पुराण मनुष्यकृत हैं, अतः उनकी स्वर्गविषयक धारणा अविचारणीय है। स्वर्गसंबंधी वैदिक निरूपण केवल अर्थवाद (प्रशंसापर वचन) है। 11) निरतिशय सुख हो स्वर्ग है और उसे सभी खोजते है। 12) अभिलषित वस्तुओं की प्राप्ति के लिए वेद में जो उपाय घोषित है, वह इह या परलोक में अवश्य फलदायक होगा। 13) निरतिशय सुख (स्वर्ग) व्यक्ति के पास तब तक नहीं आता जब तक वह जीवित रहता है। अतः स्वर्ग का उपभोग दूसरे जीवन में ही होता है। 14) आत्मज्ञान के विषय में उपनिषदों की उक्तियां केवल अर्थवाद हैं क्यों कि वे कर्ता को यही ज्ञान देती है कि वह आत्मवान् है और आत्मा कि कुछ विशेषताएं है। 15) निषिद्ध और काम्य कर्मो को सर्वथा छोड़ कर, नित्य एवं नैमित्तिक कर्म निष्काम बुद्धि से करना, यही मोक्ष (अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा पाने का साधन है। 16) कर्मों के फल उन्हीं को प्राप्त होते हैं जो उन्हें चाहते हैं । 166 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड (1) निर्विकल्प और (2) सविकल्पक । 17 ) प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद होते हैं :18) वेदों में दो प्रकार के वाक्य होते हैं: (1) सिद्धार्थक (जैसे- सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म) और (2) विधायक । वेद का तात्पर्य विधायक वाक्यों में ही है। सिद्धार्थक वाक्य अन्ततो गत्वा विधि वाक्यों से संबंधित होने के कारण ही चरितार्थ होते हैं। 19) वेदमन्त्रों में जिन ऋषियों के नाम पाये जाते हैं वे उन मन्त्रों के "द्रष्टा" होते हैं कर्ता नहीं। - - For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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