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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 20) स्वतः प्रामाण्यवाद- (1) ज्ञान की प्रामाणिकता या यथार्थता कहीं बाहर से नहीं आती अपितु वह ज्ञान की उत्पादक सामग्री के संग में, स्वतः (अपने आप) उत्पन्न होती है। 21) ज्ञान उत्पन्न होते ही उसके प्रामाण्य का ज्ञान भी उसी समय होता है। उस की सिद्धि के लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। 22) ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः होता है किन्तु उसका अप्रामाण्य “परतः" होता है। 23) पदार्थों की संख्याः - प्रभाकर के मतानुसार आठ :- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, परतन्त्रता, शक्ति, सादृश्य और संख्या। कुमारिल के मतानुसार एक भाव और चार प्रकार के अभाव मिलाकर पांच पदार्थ। मुरारिमिश्र के मतानुसार :- ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थ भूत पदार्थ है, परंतु लौकिक व्यवहार की उपपत्ति के लिए अन्य चार पदार्थ भी हैं: (1) धर्मिविशेष (नियत आश्रय) (2) धर्मविशेष (नियत आधेय), (3) आधारविशेष और (4) प्रदेशविशेष । 24) यह संसार, भोगायतन (शरीर), भोगसाधन (इन्द्रियां) और भोगविषय (शब्दादि) इन तीन वस्तुओं से युक्त तथा अनादि और अनन्त है। 25) कर्मों के फलोन्मुख होने पर, अणुसंयोग से व्यक्ति उत्पन्न होते हैं और कर्म फल की समाप्ति होने पर उनका नाश होता है। 26) कार्य की उत्पत्ति के लिए उपादन कारण के अतिरिक्त "शक्ति" की भी आवश्यकता होती है। शक्तिहीन उपादन कारण से कार्योत्पत्ति नहीं होती। 27) आत्मा-कर्ता, भोक्ता, व्यापक और प्रतिशरीर में भिन्न होता है। वह परिणामशील होने पर भी नित्य पदार्थ है। 28) आत्मा में चित् तथा अचित् दो अंश होते हैं। चिदंश से वह ज्ञान का अनुभव पाता है, और अचित् अंश से वह परिणाम को प्राप्त करता है। 29) आत्मा चैतन्यस्वरूप नहीं अपि तु चैतन्यविशिष्ट है। 30) अनुकूल परिस्थिति में आत्मा में चैतन्य का उदय होता है, स्वप्नावस्था में शरीर का विषय से संबंध न होने से आत्मा में चैतन्य नहीं रहता। 31) कुमारिल भट्ट आत्मा को ज्ञान का कर्ता तथा ज्ञान का विषय दोनों मानते हैं, परंतु प्रभाकर आत्मा को प्रत्येक ज्ञान का केवल कर्ता मानते हैं, क्यों कि एक ही वस्तु एकसाथ कर्ता तथा कर्म नहीं हो सकती। 32) चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः- विधि का प्रतिपादन करने वाले वेदवाक्यों के द्वारा विहित अर्थ ही धर्म का स्वरूप है। 33) भूत, भविष्य, वर्तमान, सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थो को बतलाने में जितना सामर्थ्य "चोदना" में (अर्थात् विधि प्रतिपादक वेदवाक्यों में) है उतना इन्द्रियों या अन्य प्रमाणों में नहीं है। 34) नित्य कर्मों के अनुष्ठान से दुरितक्षय (पापों का नाश) होता है। उनके न करने से "प्रत्यवाय दोष" उत्पन्न होता है। 35) देवता शब्दमय या मंत्रात्मक होते हैं। मन्त्रों के अतिरिक्त देवताओं का अस्तित्व नहीं होता। 36) प्राचीन मीमांसा ग्रंथों के आधार पर ईश्वर की सत्ता सिद्ध नहीं मानी जाती। उत्तरकालीन मीमांसकों ने ईश्वर को कर्मफल के दाता के रूप में स्वीकार किया है। 37) जब लौकिक या दृष्ट प्रयोजन मिलता है तब अलौकिक या अदृष्ट की कल्पना नहीं करनी चाहिए। 38) वेदमंत्रों के अर्थज्ञान के सहित किये हुए कर्म ही फलदायक हो सकते हैं, अन्य नहीं। 39) किसी भी ग्रंथ के तत्त्वज्ञान या तात्पयार्य का निर्णय-उपक्रम, उपसंहार, अभ्यास, अपूर्वता, फल, अर्थवाद, और उपपत्ति इन सात प्रमाणों के आधार पर करना चाहिये। ४०) किसी भी सिद्धान्त का प्रतिपादन, विषय, संशय, पूर्व पक्ष, उत्तर पक्ष और प्रयोजन (या निर्णय) इन पांच अंगों द्वारा होना चाहिए। 4 "वेदान्त दर्शन" प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार वेद का विभाजन कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड नामक दो काण्डों में किया जाता है। कर्म काण्ड के अन्तर्गत यज्ञयागादि विधि तथा अनुष्ठान का विचार होता है। ज्ञानकाण्ड में ईश्वर, जीव, जगत् के संबंध में विवेचन होता है। इन दोनों काण्डों में सारा प्रतिपादन वेदवचनों के अनुसार ही होता है। इन का तर्क भी वेदानुकूल ही होता है। वेदप्रामाण्य के अनुसार तत्त्वप्रतिपादन करते समय जहां आपाततः विरोधी वेदवचन मिलते हैं, उनके विरोध का प्रशमन करने के प्रयत्नों में "मीमांसा' का उद्भव हुआ। यह मीमांसा दो प्रकार की मानी गयीः (1) कर्ममीमांसा एवं (2) ज्ञानमीमांसा । कर्ममीमांसा को पूर्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा को उत्तरमीमांसा कहने की परिपाटी है। उत्तर-मीमांसा ही वेदान्त दर्शन कहा जाता है। वैदिकज्ञान काण्ड में अन्तभूर्त न्याय-वैशेषिक-सांख्य-योग और पूर्व-उत्तर मीमांसा इन आस्तिक षड् दर्शनों में दार्शनिकों के तत्त्वचिन्तन का परमोच्च शिखर माना गया है वेदान्त दर्शन। नास्तिक (वेद का प्रामाण्य न मानने वाले चार्वाक, जैन और बौद्ध) और आस्तिक (वेदों का प्रामाण्य मानने वाले) दर्शनों के वैचारिक विकास के अनुक्रम का प्रतिपादन करते हुए कुछ प्राचीन संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 167 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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