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हुए देख आयुर्वेद पर से भोज का विश्वास अत्यंत शिथिल योगे वियोगे दिवसोङ्गनाया हुआ। तब अश्विनीकुमार ब्राह्मण-वेश धारण कर, आयुर्वेद में अणोरणीयान् महतो महीयान्।।" विश्वास की पुनः स्थापना करने के लिये स्वर्ग से उपस्थित आशय "में यज्ञोपवीत हाथ में लेकर शपथपूर्वक कहता हुए। उन्होंने शल्य-चिकित्सा द्वारा सिरदर्द का मूल कारण नष्ट हूं कि अङ्गना के सहवास में दिन छोटे से छोटा उसके कर राजा को स्वस्थ तथा आश्वस्त किया। प्रसन्न होकर राजा वियोग में बड़े से बड़ा होता है।" ने पथ्य पूछा। उन्होंने बताया
यह पूर्ति सुन, विरोधी सभ्य भी कालिदास का आदर करने लगे। ___ "मनुष्यों के लिये पथ्य उष्ण जल से स्नान, दुग्धपान तथा
कालिदास कथा - (12) (प्रत्युत्पन्न बुद्धि) - एक बार कुलीन स्त्रियों से संगत और--1" "मनुष्य" का निर्देश सुनकर धनंजय कवि भोज की सभा में आए तथा राजा के सम्मुख राजा ने पूछा- "फिर, आप कौन है।" और उनका हाथ अपना श्लोक सुनाने को प्रस्तुत हुए। इतने में कालिदास ने पकड लिया। तब अन्तर्हित होते हुए वे बोले- “शेष भाग उनसे बातचीत करते हुए उनका लिखा श्लोक पढा। आशय कालिदास बतायेंगे। महाकवि ने तुरंत बताया "स्निग्धमुष्णं च
यह था - "माघ काव्य में 100 अपशब्द हैं, भारत में 300, भोजनम्"
तथा कालिदास के काव्य में अगणित अपशब्द है। अकेला आश्चर्य से चकित होकर राजा ने वह वृत्त सबको सुनाया। धनंजय ही ऐसा कवि है जिसके काव्य में अपशब्द नहीं है। तब सभी विस्मित हुए और कालिदास को "लीलापुरुष" मानने धनंजय के परोक्ष, कालिदास ने अपशब्द के बदले "आपशब्द" लगे।
कर दिया। इससे धनंजय के श्लोक पढने पर सारी सभा कालिदास कथा-10 (दीनसहायक) राजा भोज की सभा हंसने लगी। "आपशब्द" का अर्थ जलवाचक शब्द होता में कालिदास अपने पाण्डित्य तथा प्रतिभा का ही प्रदर्शन नहीं है। धनंजय कवि सभा में लज्जित हुये तथा यह कालिदास करते थे अपि तु दरिद्री, जडबुद्धि ब्राह्मणों को पुरस्कार भी की ही करतूत है जान गए। दिलाते थे। एक बार एक दरिद्र ब्राह्मण सभा में उपस्थित कालिदास कथा - (13) (असहाय के सहायक) - हुआ तथा पाण्डित्यप्रदर्शन के लिये पास कुछ भी न होने से, एक दरिद्ध मन्दबद्धि विप्र. मद्री भर चावल की पोटली लिये. केवल पुरुष सूक्त की प्रथम पंक्ति का उच्चार कर मौन खडा रहा- राजदर्शन के लिये धारा नगरी में आया। जब वह एक वृक्ष "सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्"
. के नीचे विश्राम कर रहा था तब कुछ शरारती लोगों ने . यह सुन सारे सभ्य तथा राजा हंसने लगे। तब ब्राह्मण उसकी पोटली से चांवल निकाल लिये, तथा उसमें थोडे की दीन मुद्रा देखकर, कालिदास बोले- "चलितश्चकितश्छन्नस्तव कोयले रख दिये, विप्र को इस का पता नहीं चला। जब । सैन्ये प्रधावति" (हे राजन्, इस ब्राह्मण ने बड़ी खूबी से विप्र सभा में पहुंच कर राजा के सम्मुख पोटली खोलने लगा संक्षेप में आपकी स्तुति की है। जब आपकी सेना कूच करती तब कोयेले देख कर दंग रह गया। लज्जा से वह अधोवदन है, तब हजार सिर वाला शेषनाग विचलित होता है, इन्द्र हो गया। राजा भी बडे क्रुद्ध हुए। इस समय कालिदास उस चकित होता है। तथा सौ पैरों वाला सूर्य सेना के संचलन विप्र की सहायता को प्रस्तुत हो कहने लगे - "राजन्, क्रोध से उड़ने वाली धूलि से आच्छन्न हो जाता है। अपने मौन न करें। विप्र का आशय समझने की कृपा करें । उसका आशय है - का वैशिष्ट्यपूर्ण समर्थन देखकर दरिद्र ब्राह्मण कालिदास के अर्जुन ने खाण्डव वन जलाया, पर उसमें विद्यमान सारी पैरों पर गिर पडा। राजा ने भी उसे उचित द्रव्य प्रदान कर दिव्य औषधियां जल गई। हनुमान ने लंका जलाई पर वह बिदा किया।
जलने पर सोने की हो गई। भगवान शंकर ने कामदेव को कालिदास कथा - (11) (शृंगार-प्रवणता) - भोज राजा जलाया। यह उनकी कृति बडी अयोग्य थी। परन्तु लोगों को की सभा में कालिदास को नीचा दिखाने के लिये एक बार संताप देने वाले दारिद्रय जलाने हेतु यह विप्र आपके पास विरोधी सभ्यों ने उपनिषद्वाक्य ही समस्यारूप में प्रस्तुत किया, आया है।" यह सोच कर कि कालिदास की रचना शृंगारप्रचुर होती है,
विप्र की कृति का यह अद्भुत अर्थ जान कर सारे सभ्य जब कि इसकी पूर्ति में शृंगार नहीं आ सकता। अतः वे
आश्चर्य से चकित हुए तथा कालिदास की सराहना करने लगे। समस्यापूर्ति में हार जाएंगे। समस्या थी :
धन पाकर विप्र भी प्रसन्न हआ। अणोरणीयान्महतो महीयान्" (यह ब्रह्मवर्णन कठोपनिषत् में है)। कालिदास विद्याविनोद - "शिवाजीचरितम्" काव्य के
किंतु इसकी पूर्ति भी कालिदास ने शृंगार रस में ही इस लेखक। प्रस्तुत काव्य कलकत्ता संस्कृत-साहित्य-पत्रिका के 11 प्रकार कर दिखाई
वे अंक में कवि द्वारा प्रकाशित किया गया है। यज्ञोपवीतं परमं पवित्रम्।
कालीचरण वैद्य - ई. 19-20 शती। बंगाल के निवासी । करे गृहीत्वा शपथं करोमि ।
कृति-चिकित्सासारसंग्रह।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 295
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