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कालीपद तर्काचार्य (म. म.) - समय 1888-1972 ई.। प्रखर वक्ता और सशक्त लेखक। छद्मनाम काश्यप कवि। जन्म फरीदपुर जिले के कोटलिपारा उनशिया ग्राम में। कान्यकुब्ज मिश्र। मधुसूदन सरस्वती तथा हरिदास सिद्धान्तवागीश के वंशज। पिता-सर्वभूषण हरिदास शर्मा । उच्च शिक्षा भाटपाडा में, म. म. पण्डित शिवचन्द्र सार्वभौम के पास। 1931 में कलकते के राजकीय संस्कृत महाविद्यालय में न्याय के प्राध्यापक। "तर्काचार्य", विद्यावारिधि", "तर्कालंकार" (शंगेरी मठ के शंकराचार्य द्वारा), “महाकवि" (हावडा संस्कृत पण्डित समाज द्वारा) को उपाधियों से विभूषित। 1941 में महामहोपाध्याय बने। 1961 में राष्ट्रपति द्वारा पाण्डित्य प्रशस्तिपत्र प्राप्त। 1972 में बदेवान वि.वि. से डी.लिट. उपाधि से सम्मानित। 1954 में सेवानिवत्ता अभिनय में रुचि। संस्कृत नाट्य प्रयोगों में इनकी चारुदत्त. चाणक्य, चन्दनदास, भीम, युधिष्ठिर, राम, कण्व, दुष्यन्त, विराट व दुर्योधन की भूमिकाएं सुविख्यात है।
कृतियां - (नाटक) - नलदमयन्तीय, माणवक-गौरव, प्रशान्त-रत्नाकर, स्यमन्तकोद्धार-व्यायोग।। महाकाव्य-सत्यानुभव, योगिभक्तचरित ।। काव्य-आशुतोषावदान, आलोक-तिमिर-वैर।। गद्य-मनोमयी। समालोचना-काव्यचिन्ता। दर्शन-न्यायपरिभाषा, जातिबाधक विचार, ईश्वरसमीक्षा, न्यायवैशेषिकतत्त्व-भेद। इनके अतिरिक्त आठ दर्शन ग्रंथों की आलोचना । पद्यानुवाद-रवीन्द्रप्रतिच्छाया, गीतांजलिच्छाया। बंगाली ग्रंथ-नवगीताच्छाया, चण्डीछाया तथा विविध पा और निबंध। . प्रणवपारिजात तथा संस्कृत-साहित्य-परिषत्-पत्रिका के आप संचालक-संपादक थे। "काश्यपकवि" उपनाम से कतिपय साहित्यिक निबंध। कालीप्रसाद त्रिपाठी - अयोध्या से 1930 से प्रकाशित "संस्कतम" नामक साप्ताहिक का आमरण संपादन किया। कार्णाजिनि - व्यास व जैमिनी से पूर्वकाल के वेदान्ती आचार्य। पुनर्जन्म के विषय में इनका मत है कि अनुशयभूत कर्मों के द्वारा प्राणियों का नयी योनियों में जन्म होता है। अनुशय का अर्थ है भोगे हुए कर्मों के अतिरिक्त शेष कर्म । इनके नाम पर एव, स्मृति ग्रंथ भी है। मिताक्षरा, अपरार्क, स्मृतिचन्द्रिका व श्राद्धविषयक ग्रंथों में इनकी स्मृतियों का उल्लेख है। काशकृत्स्र - एक प्राचीन वैयाकरण। पं. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इनका समय 3100 वर्ष वि.पू. है। इनके व्याकरण, मीमांसा व वेदान्त संबंधी ग्रंथ उपलब्ध होते हैं। पातंजल "महाभाष्य" में इनके "शब्दानुशासन" नामक ग्रंथ का उल्लेख है - "पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम् आपिशलम् काशकृत्स्रम् इति।" महाभाष्य के प्रथम आह्निक में इनके ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है-काशकृत्स्र शब्दकलाप, धातुपाठ। संप्रति "काशकृत्स्र व्याकरण" के लगभग 140 सूत्र उपलब्ध हुए हैं।
काशिराज, प्रभुनारायण सिंह - शासनकाल 1889-1925 ई.। वेदान्त में प्रवीण। सूक्तिसुधा नामक संस्कृत पत्रिका में रचनाएं प्रकाशित । "पार्थपाथेय' नामक उपरूपक के प्रणेता। काशीकर चिं. ग. - पुणे निवासी। रचना - आयुर्वेदीय पदार्थविज्ञानम्। इसमें आयुर्वेद की पार्श्वभूमि विशद की गई है। आप पुणे विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट. (डाक्टर ऑफ लिटरेचर) इस उच्च उपाधि से विभूषित विद्वान हैं। वैदिक वाङ्मय के आप विशेषज्ञ माने गए हैं। काशीनाथ उपाध्याय - ई. 18 वीं शताब्दी के धर्मशास्त्रियों में इनका नाम अत्यंत महत्त्व का है। इन्होंने "धर्मसिंधसार" या “धर्माब्धिसार" नामक वृहद् ग्रंथ की रचना की है। ग्रंथ का रचना काल 1790 ई.। उपाध्यायजी का स्वर्गवास 1805 ई. में हुआ था। इनका जन्म महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले के अंतर्गत गोलवली नामक ग्राम में हुआ था। ये कहाडे ब्राह्मण थे। इनके द्वारा प्रणीत अन्य ग्रंथों के नाम हैं - "प्रायश्चित्तशेखर" व "विठ्ठल-ऋमंत्रभाष्य"। धर्मसिंधुसार 3 परिच्छेदों में विभक्त है व तृतीय परिच्छेद के भी दो भाग किये गये हैं। इस ग्रंथ की रचना “निर्णयसागर" के आधार पर की गई है। काशिनाथ शर्मा द्विवेदी ("सुधीसुधानिधि") - रुक्मिणीहरण महाकाव्य के प्रणेता। यह महाकाव्य 20 वीं शती के प्रसिद्ध महाकाव्यों में गिना जाता है। इसका प्रकाशन 1966 ई. में हुआ है। द्विवेदीजी वाराणसी के निवासी हैं। काशीपति - मैसूरनरेश कृष्णराज द्वितीय के प्रधान मंत्री नजराज (1739-59 ई.) का इन्हें समाश्रय प्राप्त था। कौण्डिन्यवंशी। आप न्यायशास्त्र के प्रकाण्ड पंडित और संगीत के भी मर्मज्ञ थे। कृतियां-मुकुन्दानन्द (मिश्र भाण) तथा श्रवणानन्दिनी व्याख्या (नंदराज लिखित "संगीतगंगाधर" की टीका। कापीरक महानंद यति - ई. 17 वीं शताब्दी के एक आचार्य। अद्वैतब्रह्मसिद्धि नामक ग्रंथ के रचयिता। यह ग्रन्थ अद्वैत दर्शन का एक प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है जिसमें एकजीवत्व ही वेदान्त का प्रमुख सिद्धान्त है, इस विचार का विवेचन किया गया है। काश्यप - पाणिनि के पूर्व के एक वैयाकरण। समय 3000 वर्ष वि.पू. (पं. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार)। इनके मत के 2 उद्धरण "अष्टाध्यायी" में प्राप्त होते हैं। "तृषिमृषिकृषेः काश्यपस्य" 1/2/25 और "नोदात्तस्वरितोदयमगार्यकाश्यपगालवा नाम्" 8/4/67। "वाजयसनेयप्रातिशाख्य" में भी शाकटायन के साथ इनका उल्लेख है। "लोपं काश्यपशाकटायनौ" 4/5/| इनका व्याकरण ग्रंथ संप्रति अप्राप्य है। इनके अन्य ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है :
(1) कल्प :- कात्यायन (वार्तिककार) के अनुसार अष्टाध्यायी (4/3/103) में "काश्यपकल्प" का उल्लेख है, (2) छंदःशास्त्र :- पिंगल के "छंदःशास्त्र" में (7/9) काश्यप
296 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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