SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का मत दिया गया है कि इन्होंने तद्विषयक ग्रंथ की रचना की थी, (3) आयुर्वेदसंहिता-नेपाल :- के राजगुरु पं. हेमराज शर्मा ने "आयुर्वेद संहिता" का प्रकाशन सं. 1955 में कराया है। (4) पुराण :- “सरस्वती कंठाभरण' की टीका में "काश्यपीय पुराणसंहिता" का उल्लेख है (3/229) । "वायुपुराण" से पता चलता है कि इसके प्रवक्ता का नाम "अकृतव्रण काश्यप" था। काश्यपीय सूत्र-“न्यायवार्तिक" में (1/2/23) उद्योतकर ने कणादसूत्रों को "काश्यपीय सूत्र" के नाम से उद्धृत किया है। काश्यप भट्टभास्कर मिश्र - सामवेद के आर्षेय ब्राह्मण पर इन्होंने "सामवेदार्षेयदीप" नामक भाष्य लिखा था। काश्यप भट्ट सायणचार्य के समकालीन होंगे ऐसा प्रतीत होता है। किबे, गंगाधर दत्तात्रेय - मद्रकन्या-परिणयचंपू, शिवचरित्रचंपू तथा महानाटक- सुधानिधि नामक तीन ग्रंथों के प्रणेता। समय ई. 17 वीं शती का अंतिम चरण ये उदय परिवार के दत्तात्रेय के पुत्र थे। “मद्रकन्यापरिणयचंपू" अभी तक अप्रकाशित कीर्तिवर्मा - चालुक्यवंशीय (सोलंकी) महाराज त्रैलोक्यमल्ल (सन् 1044-1068) के पुत्र । माता केतनदेवी जिसने शताधिक जैनमंदिरों का निर्माण कराया। कर्नाटक कार्यक्षेत्र। समय ई. 11 वीं शती। ग्रंथ- गोवैद्य (पशुचिकित्सा ग्रंथ)। गुरुनामदेवचन्द्र। आप योद्धा भी थे। किशोरीप्रसाद - रासपंचाध्यायी श्रीमद्भागवत का हृदय है। उस पर टीका लिखने का कार्य अनेक विद्वानों ने किया है। उनमें "विशुद्ध-रसदीपिका" के प्रणेता किशोरीप्रसाद का अपना विशेष स्थान है। "श्रीमद्भागवत के टीकाकार" नामक ग्रंथ में किशोरीप्रसाद को विष्णुस्वामी संप्रदाय का अनुयायी बताया गया है। किंतु आचार्य बलदेव उपाध्याय के मतानुसार ये राधावल्लभी संप्रदाय के वैष्णव संत थे। इस संप्रदाय की राधा- भावना का प्रभाव किशोरीप्रसाद की “विशुद्ध-रस-दीपिका" नामक पंचाध्यायी की टीका पर बहुत अधिक है। इस टीका में भक्तिमंजूषा, भक्तिभावप्रदीप, कृष्णयामल एवं राघवेन्द्र सरस्वती प्रणीत पद्य उद्धृत हैं। यह किशोरीप्रसादजी के भक्तिशास्त्रीय पांडित्य का प्रमाण है। कीथ ए. बी. - इनका पूरा नाम आर्थर बेरिडोल कीथ था। ये प्रसिद्ध संस्कृत प्रेमी आंग्ल विद्वान थे। इनका जन्म 1879 ई. में ब्रिटेन के नेडाबार नामक प्रांत में, और शिक्षा एडिनबरा व आक्सफोर्ड में हुई। ये एडिनबरा विश्वविद्यालय में संस्कृत एवं भाषाविज्ञान के अध्यापक 30 वर्षों तक रहे। इनका निधन 1944 ई. में हुआ। इन्होंने संस्कृत साहित्य के संबंध में मौलिक अनुसंधान किया है। इनका "संस्कृत साहित्य का इतिहास' अपने विषय का सर्वोच्च एवं प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इन्होंने संस्कृत साहित्य व दर्शन के अतिरिक्त राजनीतिशास्त्र पर भी कई प्रामाणिक ग्रंथों की रचना की है, जिनमें अधिकांश संबंध का भारत से है। ये मेक्डोनल के शिष्य थे। इनके द्वारा प्रणीत ग्रंथ इस प्रकार है : ऋग्वेद के ऐतरेय एवं कौषीतकी ब्राह्मण का दस खण्डों में अनुवाद (1920 ई.), शांखायन आरण्यक का अंग्रेजी अनुवाद (1922 ई.), कृष्णयजुर्वेद का दो भागों में अंग्रेजी अनुवाद (1924 ई.), हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर (1928 ई.), वैदिक इंडेक्स (मेक्डोनल के सहयोग से), रिलीजन एण्ड फिलॉसाफी आफ् वेद एण्ड उपनिषदस्, बुद्धिस्ट फिलासाफी इन इंडिया एण्ड सीलोन और "संस्कृत ड्रामा" नामक ग्रंथ । कीलहान - डा. फ्रान्झ कीलहान मूलतया जर्मन नागरिक थे। कालखण्ड ई. स. 1840-1908 | संस्कृत भाषा व व्याकरण के प्रति विशेष रुचि। ई.स. 1866 में पुणे के कालेज में संस्कृत व प्राच्य भाषा के प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति। “परिभाषेन्दुशेखर" का अंग्रेजी में अनुवाद कर इन्होंने पतंजलि के महाभाष्य की आवृत्ति का प्रकाशन किया। प्राचीन भारतीय शिलालेखों, ताम्रपटों आदि का अध्ययन कर इन्होंने गुप्तकाल के बाद के राजवंशों का कालक्रम निर्धारण किया तथा कलचुरि संवत् के आरम्भकाल की खोज की। तत्कालीन सरकार ने "एपिग्राफिका इंडिका" नामक त्रैमासिक इन्हीं की प्रेरणा से शुरु किया था। कुण्डिन - ई. 5 वीं शती। तैत्तिरीय संहिता के भाष्यकार । तैत्तिरीय संहिता से संबंधित काण्डानुक्रमणी ग्रंथ में लिखा है कि तैत्तिरीय संहिता के पदकार और वृत्तिकार कुण्डिन हैं। बौधायन गृह्यसूत्र में भी "कौण्डिन्याय वृत्तिकाराय" (कौण्डिन्य वृत्तिकार) ऐसा उल्लेख है। कुन्तक (कुंतल) • समय ई.स. 925-1025। साहित्य शास्त्रीय “वक्रोक्तिजीवित” नामक सुप्रसिद्ध ग्रंथ के प्रणेता। इसमें वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा मान कर उसके भेदोपभेद का विस्तारपूर्वक विवेचन है। कुंतक ने अपने ग्रंथ में "ध्वन्यालोक" की आलोचना की है और ध्वनि के कई भेदों को वक्रोक्ति में अंतर्भूत किया है। महिमभट्ट ने इनके एक श्लोक में अनेक दोष दर्शाए हैं। इससे ज्ञात होता है कि ये आनंदवर्धन और महिमभट्ट के मध्य में हुए होंगे। कुंतक और अभिनवगुप्त एक दूसरे को उद्धृत नहीं करते। अतः ये दोनों समसामयिक माने जाते हैं। इस प्रकार कुंतक का समय दशम शतक का अंतिम चरण निश्चित होता है। काव्यमीमांसा के क्षेत्र में आनंदवर्धन के पश्चात् कुंतक एक ख्यातिप्राप्त साहित्यशास्त्रज्ञ हैं। इन्होंने वक्रोक्तिजीवित और अपूर्वालंकार नामक दो ग्रंथों का प्रणयन किया है। कुंतक का "वक्रोक्तिजीवित" ग्रंथ, वक्रोक्ति संप्रदाय का प्रस्थान ग्रंथ एवं भारतीय काव्य शास्त्र की अमूल्य निधि है। इसमें ध्वनि को काव्य की आत्मा मानने वाले विचार का प्रत्याख्यान करते हुए वह शक्ति वक्रोक्ति को संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 297 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy