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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ही प्रदान की गई है। इसमें वक्रोक्ति, अलंकार के रूप में प्रस्तुत न होकर, एक व्यापक काव्यसिद्धान्त के रूप में उपन्यस्त की गई है। इस ग्रंथ में वक्रोक्ति के 6 विभाग किये गये हैं। वर्णवक्रता, पदपूर्वार्द्धवक्रता, पदोत्तरार्धवक्रता, वाक्यवक्रता, प्रकरणवक्रता व प्रबंधवक्रता। उपचारवक्रता नामक भेद के अंतर्गत कुंतक ने समस्त ध्वनि प्रपंच का (उसके अधिकांश भेदों का) अंतर्भाव कर दिया है। वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा मान कर कुंतक ने अपूर्व मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है और युगविधायक काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त की स्थापना की है। "अपूर्वालंकार" में काव्य विषयक विशिष्ट भूमिका स्पष्ट की गई है। कुंदकुंदाचार्य- जैन-दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य । जन्म द्रविड देश में। दिगंबर संप्रदायी। समय-प्रथम शताब्दी माना जाता है। इन्होंने "कुंदकुंद" नामक ग्रंथ का प्रणयन किया जिसका द्राविड नाम "कोण्डकुण्ड" है। इनके अन्य 4 ग्रंथ भी प्रसिद्ध हैं जिन्हें जैन-आगम का सर्वस्व माना जाता है। ग्रंथों के नाम हैं- नियमसार, पंचास्तिकायसार, समयसार, और प्रवचनसार। अंतिम 3 ग्रंथ जैनियों में "नाटकत्रयी' के नाम से विख्यात हैं। कुम्भ (महाराणा)- समय- 1433-1468 ई.। पिता-मोकल। पत्नियां-कुंभलदेवी व अपूर्वदेवी। महाराणा कुम्भा मेदपाट (मेवाड) में चित्तौड़ के राजा थे। इनके ग्रंथों का उल्लेख चित्तौड के कीर्तिस्तम्भ के शिलालेख में किया गया है। महाराणा कुम्भा के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं- 1. संगीतराज या संगीतमीमांसा, 2. बाणरचित चण्डीशतक पर वृत्ति, 3. जयदेवरचित गीतगोविन्द की रसिकप्रिया टीका, 4. वाद्यप्रबन्ध, 5. रस-रत्नकोष, 6. नृत्यरत्नकोश एवं 7. पाठ्यगीत, 8. संगीतक्रमदीपिका, 9. एक लिंगाश्रय और 10. कुम्भस्वामिमंदार। कुक्के सुब्रह्मण्य शर्मा- रचना- श्रीकृष्णनृपोदयप्रबन्धचम्पू (मैसूर नरेश का चरित्र)। अन्य रचना-शरावती-जलपातवर्णन-चम्पू। कचिमार- कामशास्त्र के औपनिषद खण्ड के रचनाकार। इनके ग्रंथ में भिन्न प्रकार की औषधियों का प्रयोग बताया है। इस प्राचीन रचना का नाम है- कुचिमारतन्त्र । वर्तमान उपलब्ध रचना (जो अधूरी है) ई. 10 वीं शती की होगी ऐसा अनुमान है।। कुमारदास- "जानकीहरण" नामक महाकाव्य के प्रणेता। इनके संबंध में ये तथ्य प्राप्त हैं : (क) इनकी जन्मभूमि सिंहलद्वीप थी, (ख) ये सिंहल के राजा नहीं थे, (ग) सिंहल के इतिहास में यदि किसी राजा का नाम कवि के नाम से मिलता जुलता था, तो वह कुमार धातुसेन का था। परन्तु वे कुमारदास से पृथक् व्यक्ति थे, (घ) कवि के पिता का नाम मानित व दो मामाओं का नाम मेघ और अग्रबोधि था। उन्हीं की सहायता से इन्होंने अपने महाकाव्य की रचना की थी और (ड) कुमारदास का समय ई. 7 वीं शती माना गया है। "जानकीहरण" 20 सर्गों का महाकाव्य है जिसमें राम-जन्म से लेकर राम-राज्याभिषेक तक की कथा दी गई है। कुमारदास की प्रशस्ति मे सोड्ढल व राजशेखर ने निम्न उद्गार व्यक्त किये हैं बभूवुरन्येऽपि कुमारदासभासादयो हन्त कविन्दवस्ते। यदीयगोभिः कृतिनां द्रवंति चेतांसि चंद्रोपल-निर्मितानि ।। -सोड्ढल जानकीहरणं कर्तुं रघुवंशे स्थिते सति। कविः कुमारदासश्च रावणश्च यदि क्षमः ।। __ -राजशेखर, सूक्तिमुक्तावलि (4-86) कुमारदास कालिदासोत्तर (चमत्कारप्रधान महाकाव्यों के) युग की उपलब्धि हैं जिनकी कविता कलात्मक काव्य की उंचाई को संस्पर्श करती है। कुमारलात- समय- ई. 2 री शती। नागार्जुन के समकालीन । बौद्ध-दर्शन के अंतर्गत सौत्रांतिक मत के प्रतिष्ठापक आचार्य। तक्षशिला-निवासी किंतु अलौकिक विद्वत्ता एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण कबंध के अधिपति द्वारा अपनी राजसभा में सादर आमंत्रित। उन्हीं के आश्रय में ग्रंथ-रचना संपन्न । बौद्ध-परंपरा के अनुसार ये 4 प्रकाशमान सूर्यों में हैं, जिनमें अश्वघोष, देव व नागार्जुन आते हैं। इनके ग्रंथ का नाम है"कल्पनामण्डतिका-दृष्टांत जो तुरफान में डॉ. लूडर्स को हस्तलिखित रूप में प्राप्त हुआ था। इस ग्रंथ में आख्यायिकाओं के माध्यम से बौद्ध-धर्म की शिक्षा दी गई है। इस ग्रंथ का महत्त्व, साहित्यिक व सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से है। प्रत्येक कथा के प्रारम्भ में कुमारलात ने बौद्धधर्म की किसी मान्य शिक्षा को उद्धृत किया है और उसके प्रमाण में आख्यायिका प्रस्तुत की है। कुमारताताचार्य- पिता-वेंकटाचार्य। तंजौरनरेश रघुनाथ नायक का पुरोहित । रचना- पारिजातनाटकम्। कुमारिल भट्ट- ई. 7 वीं शती के प्रख्यात दार्शनिक । मीमांसादर्शन के तीन आधारभूत ग्रंथों- (श्लोकवार्तिक, तंत्रवार्तिक और टपटीका) के रचियता। बौद्ध दर्शन का खंडन कर कर्ममार्ग का प्रवर्तन तथा वैदिक धर्म का पुनरुज्जीवन करने वाले इस दार्शनिक ने मीमांसा-शास्त्र मे भाट्ट-सम्प्रदाय की स्थापना की। विद्यारण्यकृत शांकरदिग्वजय में इन्हें स्कन्द का अवतार माना गया है। इनके विषय में यह कथा बतायी जाती है- सुधन्वा राजा के दरबार में इन्होंने बौद्ध व जैन पंडितों को परास्त किया और राजा की आज्ञा से यह कह कर कि “यदि वेद सच्चे होंगे तो मुझे चोट नहीं पहुंचेगी", पर्वत की चोटी से कूद पडे किन्तु उन्हें कोई खरोच तक नहीं आयी। बाद में राजा ने एक नाव में सर्प रख कर प्रश्न किया- इसमें क्या हैं। बौद्ध जैन पंडितों ने कहा- इसके भीतर सर्प है। किन्तु कुमारिल भट्ट ने कहा- इसमें शेषशायी की मूर्ति है और वही सच निकला। इस कारण राजा ने बौद्ध 298 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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