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(मेदिनि कोश के नाम से प्रसिद्ध) (चौदहवीं शती) आदि अनेक कोश "अमर कोश" से प्रेरणा प्राप्त कर प्रणीत हुए। इनमें से अधिकांश पद्य बद्ध हैं। पर इनकी दृष्टि ज्ञान की अपेक्षा शब्द पर ही अधिक थी।
कोशकारों का ध्यान सामान्य ज्ञान की ओर आकृष्ट करनेवाला प्रथम प्रयास तर्कवाचस्पति तारानाथ भट्टाचार्य के “वाचस्पत्यम्" (1823) ने किया है। राजा राधाकांत देव का "शब्द-कल्पद्रुम" (1828-58) भी इसी दृष्टि से प्रस्तुत था, पर वाचस्पत्यम् का प्रमुख स्वर "वाक्" रहा जब कि शब्द कल्पद्रुम का विवेचन शब्द की परिधि से बहुत आगे नहीं बढ़ पाया। इतना तो स्पष्ट है कि "शब्द-कल्पद्रुम" के "शब्द" को "वाचस्पत्यम्" ने "वाक्" की विशाल परिधि में प्रसारित किया है। वास्तव में ये दोनों कोश अपनी-अपनी दृष्टि में शब्द-कोश और विश्व-कोश दोनों तत्त्वों को साथ लेकर रूपायित हुए हैं। साहित्य, व्याकरण, ज्योतिष, तंत्र, दर्शन, संगीत, काव्य-शास्त्र, इतिहास, चिकित्सा आदि अनेक विषयों का विवेचन न्यूनाधिक मात्रा में इन दोनों कोशों में समाविष्ट है। इस प्रकार शब्द कोश को वाङ्मय कोश बनाने का पहला भारतीय प्रयास इन दोनों कोशों में संपन्न हुआ है। यह प्रसत्रता की बात है कि मोनियर विलियम्स, विल्सन आदि पाश्चात्य तथा वामन शिवराम आपटे जैसे प्राच्य विद्वानों ने इस वाङ्मय शब्द-साधना को काफी आगे बढ़ाया। आपटे का "व्यावहारिक संस्कृत अंग्रेजी शब्द कोश" केवल शब्द-कोश नहीं है, बल्कि एक प्रकार से संस्कृत वाङ्मय कोश का ही प्रकारांतर है। इसमें शब्दों की व्याख्या करते समय कोशकार ने रामायण, महाभारत आदि प्रसिद्ध ग्रंथों के अतिरिक्त काव्य-साहित्य, स्मृति-ग्रंथ, शास्त्र-ग्रंथ, दर्शन-शास्त्र आदि संस्कृत वाङ्मय से संबंधित ज्ञान की विभिन्न शाखाओं का जो सोदाहरण परिचय दिया है, उससे स्पष्ट होता है कि यह केवल शब्द कोश नहीं है, बल्कि प्राच्य विद्या की पद-निधि है। जर्मन विद्वान डॉ. राथ एवं बोथलिंक द्वारा प्रणीत जर्मन कोश "वार्टर बच" (1858-75) में भी लगभग इसी प्रकार का प्रयास परिलक्षित होता है। वास्तव में वामन शिवराम आपटे को वाङ्मयनिष्ठ शब्द-कोश का प्रणयन करने की प्रेरणा "वाचस्पत्यम्" और "वार्टर बच" दोनों से मिली है जैसा कि उन्होंने अपने कोश की भूमिका में बड़ी विनम्रता के साथ स्वीकार किया है।
फिर भी संस्कृत में "वाङ्मय कोश" की आवश्यकता बनी रही। अंग्रेजी में "इनसाइक्लोपेडिया अमरीकाना (1829-33) आदि विश्व कोशों के स्वरूप के अनुरूप भारतीय भाषाओं में भी साहित्यिक तथा साहित्येतर विश्व-कोश धीरे धीरे बनने लगे हैं। इस शताब्दी के पूर्वार्ध में इस दिशा में जो कार्य हुआ, उसमें विश्वबन्धु शास्त्री का 'वैदिक शब्दार्थ पारिजात' (1929) प्रथमतः उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त शास्त्री जी ने "वैदिक पदानुक्रम कोश" (सात खण्डों में) 'ब्राह्मणोद्धार कोश', 'उपनिषदुद्धार कोश' आदि की भी रचना की जो शब्द-कोश और विश्व-कोश के लक्षणों से युगपत् अभिलक्षित हैं। इस संदर्भ में चमूपति का 'वेदार्थ शब्द कोश', मधुसूदन शर्मा का 'वैदिक कोश', केवलानन्द सरस्वती का 'ऐतरेय ब्राह्मण आरण्यक कोश' और लक्ष्मण शास्त्री का 'धर्म शास्त्र कोश' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। म.म.प. रामावतार शर्मा का "वाङ्मयार्णव" वर्तमान शताब्दी का महान कोश है जो सन् 1967 में प्रकाशित हुआ।
भारत की स्वाधीनता के पश्चात् लगभग सभी भारतीय भाषाओं में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से संबंधित संदर्भ-ग्रंथों का प्रणयन बड़ी प्रचुरता के साथ होने लगा और इसी प्रसंग में प्रायः प्रत्येक भारतीय भाषा में विश्व-कोशों की रचना हुई। तेलुगु भाषा समिति ने 1967 और 1975 के बीच में सोलह खंडों में 'विज्ञान सर्वस्वम्' के नाम से भाषा, साहित्य, दर्शन, इतिहास, भूगोल, भौतिकी, रसायन, विधि, अर्थशास्त्र, राजनीति आदि अनेक विषयों में विश्व-कोश का प्रकाशन किया। इसी प्रकार मलयालम में 1970 के आसपास 'विश्व विज्ञान कोशम्' का प्रकाशन हुआ। साहित्य प्रवर्तक सहकार समिति (कोट्टायम, केरल) ने यह कार्य सम्पन्न कराया। मराठी में पहले से ही कोश कला के क्षेत्र में स्पृहणीय कार्य हुआ है। स्वतंत्रता के पश्चात्. यह कार्य और अधिक निष्ठा के साथ सम्पन्न हुआ। पं. महादेव शास्त्री जोशी द्वारा संपादित "भारतीय संस्कृति कोश" विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हिन्दी में नागरी प्रचारिणी सभा ने बारह खण्डों में 'हिन्दी विश्व कोश' का प्रकाशन किया। बंगीय साहित्य परिषद द्वारा 1973 के आसपास पांच खण्डों में प्रकाशित "भारत कोश" भी भारतीय साहित्य के जिज्ञासुओं के लिए अत्यन्त उपादेय है। साहित्य अकादेमी ने हाल ही में “इनसाइक्लोपेडिया आफ इंडियन लिटरेचर" के नाम से बृहत् प्रकाशन आरंभ किया है। अंग्रेजी के माध्यम से प्रकाशित साहित्य कोशों में इसका विशेष महत्त्व वहेगा। यह सारा कार्य विगत पच्चीस वर्षों में लगभग सभी भारतीय भाषाओं में समान रूप से सम्पन्न हुआ। पर विश्वकोश की इस अखिल भारतीय चिंतन धारा में संस्कृत तनिक उपेक्षित रही। संस्कृत साहित्य अथवा वाङ्मय को लेकर कोई विशेष और उल्लेखनीय प्रयास नहीं हुआ। फिर भी डा. राजवंश सहाय “हीरा" जैसे मनीषियों ने इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास अवश्य किया है। डा. हीरा के दो कोश "संस्कृत साहित्य कोश" और "भारतीय शास्त्र कोश" 1973 में प्रकाशित हुए। हिन्दी साहित्य
राजनीति आदि अनेक सर्वस्वम्' के नाम से
क्षेत्र में स्पृहणीय कार्य (कोट्टायम, केरल) -70 के आसपास वा
भारत कोश कोश' का प्रकाशन कि
ने हाल ही में
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