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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (6) विप्रलब्धा, (7) प्रोषितप्रिया और (8) अभिसारिका। इनमें खंडिता, कलहान्तरिता और विप्रलब्धा ये तीन अवस्थाएं नायक के बहुपत्नीकत्व या व्याभिचारित्व के कारण नायिका में उत्पन्न होती हैं। नायिका के परिवार में दासी, सखी, रजकी, धाय की बेटी, पडोसिन, संन्यासिनी, शिल्पिनी. इत्यादि प्रकार की स्त्रियां होती हैं। प्रायः नायक के परिवार में जिन गुणों से युक्त पुरुषपात्र होते हैं, उनी गुणों के ये गौण स्त्रीपात्र होते हैं। नायिका के विविध प्रकारों के विवेचन के साथ दशरूपककार ने उत्तम स्त्रियों में व्यक्त होने वाले 20 स्वाभाविक (सत्त्वज) अलंकार बताएं हैं। इनमें भाव, हाव और हेला ये तीन "शरीरज" होते हैं। शोभा, कान्ति, दीप्ति माधुर्य, प्रगल्भता, औदार्य और धैर्य ये सात “अयत्नज" अर्थात् जिन्हें प्रकट करने के लिए स्त्रियों को कोई विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती। इनके अतिरक्ति लीला, विलास, विभ्रम आदि दस 'स्वभावज' होते हैं। इन अलंकारों को नाट्यप्रयोग में कौशल्यपूर्ण अभिनय द्वारा व्यक्त किया जाता है। शृंगार रस के उद्दीपन में इन नाटकीय अलंकारों की स्त्री पात्रों के लिए आवश्यकता होती है। 8 नाट्यरस रस सिद्धान्त की चर्चा साहित्यशास्त्र विषयक प्रमुख ग्रंथों में की गई है। नाट्यशास्त्र में भी नाट्यप्रयोग की दृष्टि से रस चर्च मिलती है। दृश्य काव्य अथवा रूपक के दस भेद, वस्तु और नायक की विभिन्नता के कारण होते हैं वैसे ही वे रसों की विभिन्नता के कारण भी होते हैं जैसे नाटक, प्रकरण, वीथी और ईहामृग में शृंगार की प्रधानता होती है। समवकार, व्यायोग और डिम में हास्य की और उत्कृष्टिकांक में करुण की प्रधानता होती है। "अभिनय" याने अन्तःकरणस्थ राग-द्वेषादि भावों की वाणी, शारीरिक चेष्टा, मुखमुद्रा और वेषभूषा इत्यादि के द्वारा व्यक्त करना और सामाजिकों को उनके द्वारा रसानुभूति कराना यही अभिनय का कार्य है। “अभिनयति-हृद्गतान् भावान् प्रकाशयति" इति अभिनयः “यही “अभिनय' शब्द की लौकिक व्युत्पत्ति बताई जाती है। नाट्यशास्त्रानुसार अभिनय के चार प्रकार होते हैं : (1) आंगिक अभिनय - शरीर, मुख, हाथ, वक्षःस्थल, भृकुटी, इत्यादि अंगों की चेष्टाओं द्वारा किसी भाव या अर्थ को व्यक्त करना ही "आंगिक' अभिनय कहा गया है। इस में मुखज चेष्टाओं का अभिनय छः प्रकार का, मस्तक की हलचल नौ प्रकार की, दृष्टि का अभिनय आठ प्रकार का, भ्रुकुटी के विन्यास छः प्रकार के, गर्दन हिलाने के चार प्रकार और हस्तक्षेप के बारह प्रकार भरताचार्य ने बताए हैं। इन के अतिरिक्त अन्य अंगों के भी विविध अभिनयों का भरत के नाट्यशास्त्र में वर्णन किया है। (2) वाचिक अभिनय- वाक्यों का उच्चारण करते समय, आरोह-अवरोह, तार, मंद्र, मध्यम इत्यादि उच्चारण की विचित्रता से भावों को अभिव्यक्त करना, वाचिक अभिनय का स्वरूप होता है। वाचिक अभिनय के 63 प्रकार भरताचार्य ने बताए हैं। वाचिक अभिनय द्वारा सहृदय अंधे श्रोता को भी पात्र की मानसिक अवस्था का ज्ञान हो सकता है। (3) आहार्य अभिनय- याने भूमिका के अनुरूप, पात्रों की वेशभूषा। वस्तुतः यह नेपथ्य का अंग है परंतु शास्त्रकारों इस की गणना अभिनय में की है। (4) सात्त्विक अभिनय- सामाजिकों को रति, हास, क्रोध इत्यादि स्थायी भावों की अनुभूति कराने वाली तिक्षेप, कटाक्ष आदि शारीरिक चेष्टाओं को अनुभाव कहते हैं। "अनु पश्चात् भवन्ति इति अनुभावाः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार, स्थायी भाव के उबुद्ध होने के बाद उत्पन्न होने वाले भावों को अनुभाव कहते हैं। विभावों को स्थायी भावों के उद्दीपन का कारण, अनुभावों को कार्य और व्यभिचारी भावों को सहकारी कारण रसशास्त्र में माना गया है। पात्रों के द्वारा व्यक्त होने वाले, अनुकार्य राम-दुष्यन्तादि के, रति-शोक इत्यादि स्थायी भावों की सूचना कराने वाले (भावसंसूनात्मक) भावों को धनंजय ने 'अनुभाव' कहा है। इन अनुभावों में स्तम्भ, प्रलय (अचेतनता), रोमांच, स्वेद, वैवर्ण्य (मुख का रंग फीका पड़ जाना) कम्प, अश्रु और वैस्वर्य (आवाज में परिवर्तन) इन आठ भावों को “सात्त्विक" (याने सत्व अर्थात मानसिक स्थिति से उत्पन्न होने वाले) भाव कहते हैं। इन अष्ट सात्त्विक भावों का प्रदर्शन सात्विक अभिनय के द्वारा होता है। रूपकों में नटवर्ग का यही प्रधान उद्देश्य है कि उनके उपयुक्त चतुर्विध अभिनयों द्वारा, सामाजिकों में रसोद्रेक करना। रस की निष्पत्ति के विषय में, "विभावानुभाव-व्यभिचारिसंयोगाद् रसनिष्पत्तिः” (विभव, अनुभाव तथा व्याभिचारी भावों के संयोग से रसनिष्पत्ति होती है) यह भरत मुनि का सूत्र, रससिद्धान्त की चर्चा करनेवाले सभी साहित्याचार्यों ने परमप्रमाण माना है। शाकुन्तल नाटक के उदाहरण से इस सूत्र के पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण इस प्रकार दिया जा सकता है। जैसे :- दुष्यन्त और शकुन्तला रति स्थायी भाव के "आलंबन विभाव" हैं। कण्व ऋषि के आश्रम का एकान्त, तथा मालिनी नदी का तीर आदि दृश्य दोनों के अन्तःकरण में अंकुरित रति को उद्दीपित करते हैं अतः उन्हे "उद्दीपन विभाव" कहते हैं। रति स्थायी भाव के उद्दीपन के कारण उन पात्रों के शरीर में जो रोमांचादि चिन्ह उत्पन्न होते हैं और उनकी जो चेष्टाएं, होती है उन्हें "अनुभाव" कहते है, क्यों कि ये चिन्ह और चेष्टाएं, रतिभावानुभूति के पश्चात् उत्पन्न होती है या उस भाव का अनुभव सामाजिकों को कराती है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 223 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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