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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रस शृंगार- हास्य वीर अद्भुत दुष्यन्त शकुन्तला में रति स्थायी भाव का उद्रेक होने पर उन दोनों के मन में चिन्ता, निराशा, हर्ष, इत्यादि प्रकार के अस्थायी भाव, समुद्र में तरंगों के समान, उत्पन्न होते हैं तथा अल्पकाल में विलीन होते हैं। इन्हें संचारी या "व्याभिचारी भाव" कहते हैं। स्थायी भाव समुद्र जैसा है तो संचारी भाव तरंगो के समान होते हैं। शास्त्रकारों ने नौ स्थायी भाव (साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने वात्सल्य और उज्ज्वल नीलमणिकार रूप गोस्वामी ने भक्ति नामक दसवां स्थायी भाव माना है। आठ सात्त्विक भाव और तैंतीस व्यभिचारी या संचारी भावों का परिगणन किया है। परंतु नाट्यशास्त्रकार, रति, उत्साह, जुगुप्सा, क्रोध, हास, विस्मय, भय और शोक इन आठ ही स्थायी भावों की परिणति क्रमशः शृंगार, वीर, बीभत्स, रौद्र, हास्य, अद्भुत, भयानक और करुण इन आठ रसों में (विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग के कारण) मानते है। इन आठ रसों में शृंगार, वीर, बीभत्स और रौद्र ये चार प्रमुख रस होते है और इनसे क्रमशः हास्य, अद्भुत, भयानक और करुण नामक चार गौण रस उत्पन्न होते हैं। इन शृंगारादि चार प्रमुख और हास्यादि चार गौण रसों के युग्मों से क्रमशः अन्तकरण की, विकास, विस्तार, क्षोभ और विक्षेप की स्थिति होती है। इस की तालिका निम्न प्रकार होगी : चित्तवृत्ति विकास विस्तर बीभत्स भयानक रौद्र-करुण Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षोभ विक्षेप रस और तज्जन्य चित्तवृत्ति या मानसिक अवस्था का यह विवेचन अत्यंत मार्मिक है। इसी विवेचन के आधार पर साहित्य और मानवी जीवन का दृढ संबंध माना जा सकता है। इस रस विवेचन में शान्तरस के बारे में नाट्यशास्त्रकारों ने यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि, लौकिक जीवन में शम, स्थायी भाव (जिसका स्वरूप है संसार के प्रति घृणा और शाश्वत परम तत्त्व के प्रति उन्मुखता ) का अस्तित्व माना जा सकता है। परंतु नाट्यप्रयोग में उस स्थायी भाव का परिपोष होना असंभव होने के कारण, नाट्य में शान्त नामक नौवे रस का अस्तित्व नहीं माना जा सकता। नाटक में आठ ही रस होते हैं। "अष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः " । रूपकों में शान्त रस का निषेध करने वालों के द्वारा तीन कारण बताए जाते हैं- (1) "नास्त्येव शान्तो रसः आचार्येण अप्रतिपादनात् ।" अर्थात् भरताचार्य ने शांतरस का पृथक् प्रतिपादन न करने के कारण शांतरस नहीं है। (2) “वास्तव्यः शान्ताभावः रागद्वेषयोः उच्छेत्तुम् अशक्यादत्वात् ।” अर्थात राग और द्वेष इन प्रबल भावों का समूल उच्छेद होना असंभव होने के कारण, वास्तव में शान्तरस हो ही नहीं सकता। (3) "समस्त व्यापार प्रविलयरूपस्य रामस्य अभिनययोगात्, नाटकादी अभिनवात्मनि निषिध्यते" अर्थात् सारे व्यापारों का विलय यही शम का स्वरूप होने से, उसका अभिनय करना असंभव है। अभिनय तो नाटक की आत्मा है; अतः उसमें "शम" का निषेध ही करना चाहिये । रसानिष्पत्ति का अर्थ “विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद् रस- निष्पत्तिः " इस भरत के नाट्यसूत्र के विषय में आचार्यों ने अत्यंत मार्मिक चिकित्सा की है। भट्ट लोल्लट के मतानुसार उत्पाद्य उत्पादक भाव से विभावादि के संयोग से "रसोत्पत्ति" होती है। शंकुक के मतानुसार अनुमाप्य अनुमापक भाव से "रसानुमिति" होती है। भट्टनायक के मतानुसार भोज्यभोजक भाव से "रसभुक्ति" होती है। इस प्रकार रस की (1) उत्पत्ति, (2) अनुमिति, (3) भुक्ति और (4) अभिव्यक्ति ये चार अर्थ, मूल “निष्पत्ति' शब्द से निकाले गए हैं। इन के अतिरिक्त दशरूपककार धनंजय ने भाव-भावक संबंध का प्रतिपादन करते हुए, "भावनावाद" का सिद्धान्त स्थापित करने का प्रयत्न किया है। नाट्यशास्त्र की दृष्टि से यह एक रसविषयक पृथक् उपपत्ति देने का प्रयत्न है । For Private and Personal Use Only 9 कुछ प्रमुख नाटककार संस्कृत नाटक के उद्गम एवं विकास का परामर्श लेने वाले प्रायः सभी विद्वानों ने वैदिक वाङ्मय से लेकर अन्यान्य ग्रंथों में प्राचीन नाटकों के अस्तित्व के प्रमाण दिए हैं, परंतु उस प्राचीन काल के नाटककारों और उनके नाटकों का नामनिर्देश करना असंभव है । उसी प्रकार भरत से पूर्वकालीन कुछ नाट्यशास्त्रकारों के नाम तो मिलते हैं, परंतु उनके ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हुए । अतः संस्कृत नाट्यवाङ्मय के विविध प्रकारों का विचार करते समय, उपलब्ध नाट्यवाङ्मय की ही चर्चा की जाती है। आद्य नाटक- विंटरनिटझ् और स्टेनकनो इन पाश्चात्य विद्वानों ने अश्वघोष को संस्कृत का प्रथम नाटककार माना है। लासेन ने अनेक युक्तिवादों से शूरसेन प्रदेश को भारतीय नाट्य की जन्मभूमि मानी है इस प्रदेश में ईसा की दूसरी शताब्दी के प्रारंभ 1 224 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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