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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राक्षस, समझकर कौरवों की सेना भाग गई। लेकिन दुर्योधन के दस भाई भीम पर और कर्ण का पुत्र वृषसेन अर्जुन पर चढ़ आये। भीम ने उन दसों का और अर्जुन ने वृषसेन का कर्ण और दुर्योधन के समक्ष वध किया । वृषसेन का वध देख कर कर्ण बहुत ही क्रुद्ध होकर अर्जुन के साथ युद्ध करने लगा। उन दोनों का युद्ध देखने निमित आये हुए देवों तथा दानवों में भी दो दल हो गए। अर्जुन के प्रति सहानुभूति रखने वाले इंद्र देव थे और कार्ग का पक्ष सूर्य और दैत्यों ने लिया था। युद्ध में दोनों ने भिन्न भिन्न अस्त्रों के प्रयोग चलाए। अर्जुन पीछे नहीं हट रहा है, कर्ण ने खास अर्जुन के लिए अब तक सुरक्षित सर्पमुख बाण उस पर चलाया। उसी बाण पर खांडववन से भागा हुआ "अश्वसेन" नामक नाग आकर अर्जुन का बदला लेने के लिये बैठा था। बाण को छूटते देख, श्रीकृष्ण ने अर्जुन के रथ को नीचे दबाया। उससे वह बाण अर्जुन के मुकुट को ही छिन्न करके विफल हुआ। उसपर अर्जुन ने माथे में शुभ्र वस्त्र लगाया। जो नाग बाण पर बैठा था वही नाग कर्ण के पास आकर कहने लगा, "फिर से मुझे छोड दो। मै अर्जुन को नष्ट कर देता हूं, “पर दूसरे के बल पर युद्ध करना मैं नहीं चाहता " ऐसा कर्ण ने कहने पर नाग स्वयं ही अर्जुन की ओर तीर के समान दौड़ पड़ा। अर्जुन ने तीर चलाकर उसके टुकडे टुकडे कर दिये । आगे कुछ समय तक कर्ण और अर्जुन में युद्ध चलता रहा। इसी बीच कर्ण शाप के कारण अस्त्रों के मंत्र स्मृति में लाने में अपने को असमर्थ पाता गया, और उसके रथका बायां पहिया (शाप ही के कारण) पृथ्वी ने निगल लिया। तब कर्ण रथ से नीचे उतरा, और अर्जुन से कहने लगा, "मै रथ का पहिया खींच निकाल ले रहा हूं। इस समय मुझपर तीर चलाओगे तो वह बात धर्म के विरुद्ध हो जाएगी।" उसका वह भाषण सुनकर श्रीकृष्ण कर्ण से बोले, “अब तुझे धर्म की बातें याद आ रही हैं, लेकिन जिस समय भरी सभा में महासती द्रौपदी की, जो कि एकवस्त्रा, रजस्वला थी, विडम्बना की, पांडवों को जलाने के प्रयत्न किये, भीम को विषान्न खिलाया, अकेले अभिमन्यु को अनेकों ने मिलकर मारा, उस समय तेरा धर्म कहां चला गया था? अब धर्म तेरी रक्षा करनें मे असमर्थ है। अर्जुन, क्या देख रहा है। तीर चला और तोड दे कर्ण का कंठनाल" । श्रीकृष्ण का भाषण सुन कर कर्ण ने लज्जा वश सिर झुकाया । पहिया धरती से नहीं निकाला। कर्ण उसी असहाय अवस्था में युद्ध करने लगा। परंतु अब उसमें उतना सामर्थ्य नहीं था। अर्जुन ने एक ही तीर में उसका वध कर डाला। कर्ण के शरीर से निकला तेज सूर्य में जा मिला। कर्ण का वध होने पर कौरव पक्ष के किसी वीर में युद्ध के लिए उत्साह नहीं रहा। सेना भाग गई। दुर्योधन के लाख कहने पर वे वापस लौटने तैयार नहीं हुए । तब शल्य के कहने पर युद्ध को स्थगित करके सभी अपने अपने निवासस्थान (शिबिर) को चले गये। उनके शिबिर को जाते ही बड़े आनन्द के साथ पाण्डवसेना अपने शिबिर को पहुंच गई। वे जोर से गरजने लगे। श्रीकृष्ण और अर्जुन धर्मराज से बड़े ही आनन्द से मिले और कर्ण का वर्णन सुनाने लगे। धर्मराज कर्णार्जुन का युद्ध देखने बीच में एक बार समरांगण गये थे, लेकिन घायल होने के कारण वे अधिक समय तक वहां नहीं रह सके। अब कर्णवध का वृतांत सुनकर वे फिर से वहां चले गये और कर्ण को मरा पड़ा अपनी आंखों से देखा । तब आनन्द के आवेग में उन्होंने कृष्णार्जुन को प्रेम से गले लगा लिया और कहा, "आज मै धन्य हो गया हूं। आज ही मैं समझता हूं कि मुझे जय मिली है। तेरह वर्ष कर्ण के आतंक से मुझे नींद तक नहीं आती थी।" ऐसा कहकर उन्होंने श्रीकृष्ण और अर्जुन को धन्यवाद दिए । 9 शल्य पर्व वैशम्पायन जनमेजय राजा को आगे सुनाने लगे उन्नीसवें दिन सवेरे संजय हस्तिनापुर पहुंचा। उसने राजा धृतराष्ट्र को दुर्योधनादि सबका विनाश हुआ, कृपाचार्य कृतवर्मा और अश्वत्थामा, (तीन कौरव पक्ष के) और पांच पाण्डव, श्रीकृष्ण और सात्यकि, (सात पाण्डव पक्ष के) कुल दस लोग भारतीय युद्ध में बचे, वृतान्त सुनाया । वह सुन कर सभी पुत्रों की और खास कर दुर्योधन की मृत्यु से दुखी होकर धृतराष्ट्र ने बहुत शोक किया और बाद में संजय से युद्ध का सविस्तर वर्णन करने को कहा। तब संजय ने बताया, कर्ण की मृत्यु के बाद दुर्योधनादि सारी कौरव सेना भागकर शिबिर लौट आयी। तब कृपाचार्य ने दुर्योधन से कहा कि अब भी पाण्डवों का राज्य उनको लौटा दो और उनसे सन्धि करो। सेना का जो नाश हुआ है उससे अधिक अब कुछ न हो। बचे वीरों तथा सैनिकों को अपने घर जाने दो। उस पर दुर्योधन ने कहा, बात अब यहां तक पहुंच गयी है कि पाण्डव अब हमारी एक भी नहीं सुनेंगे और पाण्डवों की शरण मे जाना मुझसे होगा भी नहीं । इतने लोगों का नाश हो चुकने पर मै पाण्डवों की शरण में जाऊं तो लोग मुझे क्या कहेंगे? और विशेष बात यह है कि अब तक जिन्होंने मेरे लिए अपने सर्वस्व की बलि चढाई, उनके ऋण से मुक्त होने के लिए मुझे युद्ध ही करना अनिवार्य है। इतना कह कर दुर्योधन ने अश्वत्थामा से पूछा कि, कर्ण के बाद सेनापति पद किस सुयोग्य व्यक्ति को दिया जाय ? तब अश्वत्थाम ने शल्य का नाम सूचित किया। वह सबको पसंद आ गया। तब दुर्योधन ने शल्य को सेनापति पद का अभिषेक किया। 114 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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