________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
समान। सियार और हर
वष और अमृत में
anा कर सकता वहाँ
तू ने उसे क्यों नहीं मारा? सच पूछा जाए तो अर्जुन सूर्य के समान है और तू जुगनू के समान। सियार और शेर, खरगोश और हाथी, चूहा और बिल्ली, कुत्ता और बाघ, झूठ और सत्य, विष और अमृत में जितना अंतर है उतना तुझमें और अर्जुन में है। तू जहाँ उसकी बराबरी तक नहीं कर सकता वहाँ उसे जीतने की बात तो दूर की है।"
शल्य का भाषण सुनकर कर्ण बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने शल्य की, उसके देश की, उसके आचारों की भारी निन्दा की और बताया कि, तुझे मैं अभी नष्ट ही कर देता, लेकिन वचनबद्ध हूं। फिर कभी इस प्रकार की बातें करेगा तो मैं क्षमा नहीं करूंगा। उन दोनों में इस प्रकार का बखेड होते देख दुर्योधन ने दोनों को खूब समझा-बुझाया। कुछ देर बाद कर्ण फिर से युद्ध में प्रवृत्त हुआ।
सत्रहवें दिन जब कि युद्ध प्रारंभ हुआ संशप्तकों का नाश करने अर्जुन दक्षिण दिशा की ओर चला गया और इधर कर्ण पांडव-सेना का निःपात करने लगा। धर्मराज ने कुछ समय तक कर्ण से युद्ध किया, परन्तु आखिर हार कर भाग जाने लगा। कर्ण ने उसका पीछा किया लेकिन कुन्ती को दिये वचन की याद कर उसने धर्मराज से कहा, "जा तुझे मै जीवित छोड देता हूं। फिर कभी मेरे साथ युद्ध करने का साहस मत कर। उसके बाद भीम के पराक्रम से कौरव-सेना भाग जाने लगी। तब कर्ण भीम से युद्ध करने बढा। परन्तु भीमसेन के बाणों से वह मूर्च्छित गिर पड़ा। तब उसका रथ शल्य ने रणक्षेत्र से हटाया। अनन्तर दुर्योधन के भाई भीम पर चढ़ आये। लेकिन वे भीम के पराक्रम से नष्ट हो गये। फिर से कर्ण पांडव-सेना का नाश करने लगा।
इतने में संशप्तकों को मार भगाकर अर्जुन उत्तर दिशा की ओर जा पहुंचा। तब अश्वत्थामा से उसका भीषण युद्ध हुआ। उस युद्ध में अर्जुन के बाणों से अश्वत्थामा के मूर्च्छित होते ही उसका रथ सारथी ने समरांगण से हटा दिया। दुर्योधन धर्मराज के साथ युद्ध कर रहा था, कर्ण वहां पर पहंच कर धर्मराज पर तीरों की वर्षा करने लगा। नकुल और सहदेव धर्म-राज की सहायता कर ही रहे थे। कर्ण ने जब धर्मराज और नकुल के रथों के घोडे मारे, तब वे दोनों सहदेव के रथ पर सवार हुए। उस समय शल्य ने कर्ण से कहा, "कर्ण, इन्हे मार कर तुझे क्या लाभ होने वाला है। अर्जुन के वध के लिए दुर्योधन ने तुझे सेनापति पद दे दिया है, इस लिये उसीसे जो कुछ युद्ध करना हो कर और अपना कौशल्य दिखा। दूसरी बात, दुर्योधन भीमसेन से लड़ रहा है, उसे बचाने की अपेक्षा यहां क्यों अपनी शक्ति यों ही बरबाद कर रहा है?" उस पर कर्ण दुर्योधन की सहायता में दौडा। इधर धर्मराज कर्ण के मन्तिक बाणों से विद्ध होकर अपने शिबिर में लेटे रहे थे। जब धर्मराज युद्ध-क्षेत्र पर कहीं भी दिखाई नहीं दिये तब उनकी खोज में श्रीकृष्ण और अर्जुन शिबिर को पहुंचे। उन्हे देखकर धर्मराज को ऐसा लगा कि वे दोनों कर्ण को नष्ट करके शिबिर लौटे हैं और उन्होंने उन दोनों की बडी प्रशंसा की। लेकिन अर्जुन ने जब सत्य वृत्तांत बताया तब धर्मराज बहुत ही क्रोधित हुए और अर्जुन की निन्दा करके बोले, तू अपना गाण्डीव धनुष्य दूसरे किसी को देगा तो वही कर्ण का नाश करेगा।" इतना सुनते ही अर्जुन तलवार उठाकर धर्मराज को मारने प्रस्तुत हुआ। अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा कर रखी थी कि जो "गाण्डीव धनुष्य दूसरे को दे दे" इस प्रकार कहेगा उसका शिरच्छेद मै करूंगा। वह बात समझने पर श्रीकृष्णने अर्जुन को खूब समझाया। हिंसा और अहिंसा का विवेक समाज धारणा की दृष्टि से कैसे करे, अर्जुन को समझा दिया। एक व्याध पूरे समाज को संत्रस्त करने वाले पशु की हिंसा करने पर भी स्वर्गलोक पहुंचा किन्तु एक तपस्वी ब्राह्मण, डाकुओं को सच्चा मार्ग दिखाने पर उस मार्ग से बढे लोगों की हिंसा उन डाकुओं से होने पर, नर्क लोक को कैसे पहुँचा, आदि तात्त्विक विचार बताने पर श्रीकृष्ण ने कहा, “श्रेष्ठों को "तू" संबोधित करने पर उनका अपमान हो जाता है जो उनके वध के समानही समझा जाता है। तू धर्मराज की निन्दा कर। उससे तेरी प्रतिज्ञा की पूर्ति हो जाएगी। श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने धर्मराज की निन्दा की, और बोला, “अब मै बडे बन्धु को अपमानित करने के पातक से मुक्त होने के लिए आत्महत्या कर लेता हूं।" तब श्रीकृष्ण हंस कर बोले, "उसके लिए शस्त्र की आवश्यकता नहीं। तू अपने मुंह से अपनी स्तुति कर ले। बस है।" तद्नुसार अर्जुन ने आत्मस्तुति की। वह सुनने के उपरान्त अर्जुन के द्वारा की गई निन्दा के कारण कुपित धर्मराज वन को जान के लिये प्रस्तुत हुए। तब श्रीकृष्ण ने उनके पैर पड़ कर उन्हें प्रशांत किया। अर्जुन ने भी धर्मराज को प्रणाम किया, और कर्णवध की प्रतिज्ञा करके वह युद्ध के लिये चल पड़ा।
समरांगण पर आकर अर्जुन ने युद्ध करने भीम पर धर्मराज का क्षेम कुशल प्रकट कर दिया और वे दानों कौरवसेना का नाश करने लगे। उस पर दुःशासन भीम पर दौडा। उन दोनों में कुछ काल तक तुद्ध चला। अन्त में भीमसेन ने अपनी गदा दुःशासन पर इतनी तेजी से चलाई कि वह रथ से उडकर चालीस हाथ दूर जा गिरा। हाथ में खङग् लेकर भीम दौडता चला गया। जिस हाथ में भारतवर्ष की सम्राज्ञी द्रौपदी के केश खींचे थे, जिस हाथ ने पाण्डवों की सर्वोपरि प्रतिष्ठा का वस्त्र उतारने का निर्लज्ज प्रयत्न किया, उस दुःशासन के हाथ को काट कर भीम उसके गले पर पांव देकर खडा रहा और जिसमें हिम्मत हो वह इस नरपशु को अब बचाए, मै इसका रक्त प्राशन करूंगा। "इस प्रकार कौरव पक्षीय वीरों के नाम लेकर गरजकर ललकारने पर दुःशासन की छाती फोड कर उसका गरम रक्त अंजलि से पीने लगा। वह दृश्य देखकर उसे प्रत्यक्ष
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 113
For Private and Personal Use Only