SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न रखते हुए कर्म का आचरण करने से कर्मबंधन (जो पुनर्जन्म का कारण है) नहीं लगता। इस कौशल्य से कर्म करने से (योगः कर्मसु कौशलम्) चित्तशुद्धि होती है। उससे आत्मज्ञान का उदय हो कर कर्मयोगी को जीवनमुक्त अवस्था की संसिरि प्राप्त होती है। ऐसी आत्मज्ञान पूर्ण जीवन्मुक्त अवस्था में, भगवान् कृष्ण के समान नियत या प्राप्त कर्मों का आचरण करने से "लोकसंग्रह" होता है। आत्मज्ञान (अर्थात् आत्मानुभव) होने पर वास्तविक किसी कर्माचरण की आवश्यकता न होने पर भी, "लोकसंग्रह" के निमित्त कर्मयोग का अनुष्ठान करना नितांत आवश्यकता है। "लोकसंग्रह" शब्द का अर्थ, श्री शंकराचार्य के अनुसार "लोकस्य उन्मार्गप्रवृत्तिनिवारणम्" और मधुसूदन सरस्वती के अनुसार "स्वधर्म स्थापनं च" अर्थात् अज्ञानी लोगों को अधार्मिक और अनैतिक कर्मों से परावृत्त करना और स्वधर्म की ओर प्रवृत्त करना, यह सर्वमान्य है। ज्ञानी पुरुष निरहंकार और निष्काम बुद्धि से या ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म नहीं करेंगे और सर्वथा कर्मत्याग या कर्मसंन्यास (जो तत्त्वतः असंभव है) करेंगे तो सामान्य जनता का जीवन दिशाहीन या आदर्शहीन हो कर, उसका नाश होगा। भगवद्गीतोक्त कर्मयोग के वैयक्तिक दृष्ट्या, सत्त्वशुद्धि (अथवा चित्तशुद्धि) तथा सामाजिक दृष्ट्या "लोकसंग्रह" इस प्रकार द्विविध लाभ होने से उसकी श्रेष्ठता मानी है। गीतोक्त कर्मयोग के संबंध अत्यंत मार्मिक एवं चिकित्सक विवेचन महान् देशभक्त एवं तत्त्वज्ञानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक महाराज ने अपने गीतारहस्य या कर्मयोगशास्त्र नामक प्रख्यात मराठी प्रबंध (पृष्ठसंख्या 864) में किया है। इस प्रबन्ध में कर्मयोग विषयक सभी विवाद्य विषयों का सप्रमाण परामर्श लिया गया है। इस ग्रंथ का पुणे के डॉ. आठलेकर ने संस्कृत में अनुवाद किया है (अप्रकाशित)। भारत की सभी प्रमुख भाषाओं तथा अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, चीनी आदि परकीय भाषाओं भी इस महान् ग्रंथ के अनुवाद हुए हैं। 13 "ज्ञानयोग" भगवद्गीता में ज्ञानयोग शब्द का प्रयोग हुआ है परंतु जिस प्रकार कर्मयोग और भक्तियोग नामक स्वतंत्र अध्याय वहां हैं, वैसा ज्ञानयोग नामक स्वतंत्र अध्याय नहीं है। ज्ञानयोग का संबंध वेदों के ज्ञानकाण्ड से जोड़ा जा सकता है। ज्ञानकाण्डी विद्वानों का प्रमुख सिद्धान्त है, "ज्ञानोदेव तु कैवल्यम्" एवं “तत्त्वज्ञानाधिगमात् निःश्रेयाधिगमः ।।" । अर्थात् कैवल्य या निःश्रेयस् की प्राप्ति ज्ञान से (तत्त्वज्ञान से) ही होती है। तत्त्वज्ञान शब्द का अर्थ है - वस्तु का जो यथार्थरूप हो, उसका उसी प्रकार से अनुभव करना। ज्ञानयोग (या ज्ञानमार्ग) में इस समस्त विश्व के आदि कारण के, यथार्थ ज्ञान (अर्थात् अनुभवात्मक ज्ञान) को ही निःश्रेयस् का एकमात्र साधन माना जाता है। साथ ही "मोऽहं" (वह विश्व का आदिकारण ही मै (याने इस पंचकोशात्मक शरीर में प्रस्फुरित होने वाला चैतन्य) हूं), इस अनुभूति को आवश्यकता होती है। इस प्रकार का ज्ञान अध्यात्मविषयक उपनिषदादि ग्रंथों तथा दार्शनिक ग्रंथों के श्रवण, मनन और निदिध्यासन की साधना से जिञ्जासु के हृदय में, ईश्वरकृपा से या गुरुकृपा से उत्पन्न होता है। ज्ञानयोग में “अधिकार" प्राप्त करने के लिए नित्यानित्य-वस्तु-विवेक, इहामुत्रफलभोगविराग, यमनियामदि-व्रतपालन और तीव्र मुमुक्षा इन चार गुणों की नितान्त आवश्यकता मानी गयी है। इसी कारण संन्यासी अवस्था में ज्ञानयोग की साधना श्रेयस्कर मानी गयी है। (चित्तशुद्धि परक) कर्मयोग और (भगवतकृपा परक) भक्तियोग द्वारा, ज्ञानयोग में कुशलता प्राप्त होती है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि का भी अभ्यास (तत्त्वानुभूति परक) ज्ञानयोग में प्रगति पाने के लिए आवश्यक होता है। यह प्रगति सात भूमिकाओं या अवस्थाओं में यथाक्रम होती है। भूमिकाएं :- 1) शुभेच्छा : आत्मकल्याण के हेतु कुछ करने की उत्कट इच्छा होना। 2) विचारणा : सद्ग्रंथों के श्रवण और चिन्तन से चित्त की चंचलता क्षीण होना। 3) तनुमानसा : संप्रज्ञात समाधि के दृढ अभ्यास से, अनाहतनाद, दिव्य प्रकाश दर्शन जैसे अनुभव का सात्त्विक आनंद मिलना। 4) सत्त्वापत्ति : लौकिक व्यवहार करते हुए भी अखण्डित आत्मानुसन्धान रहना। 5) असंसक्ति : इस भूमिका में स्थित साधक को "ब्रह्मविद्वर" कहते हैं। वह नित्य समाधिस्थ रहता है। केवल प्रारब्ध कर्मों का क्षय होने के लिये ही वह देहधारण करता है। किसी भी प्रकार की आपत्ति से वह विचलित नहीं होता। 6) पदार्थभावना : नित्य आनन्दमय अवस्था में रहना। श्रीमद्भागवत में वर्णित जडभरत की यही अवस्था थी। 7) तुर्यगा "ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति" इस वचन के अनुसार "अहं ब्रह्माऽस्मि" यह अंतिम अद्वैतानुभूति की अवस्था । ज्ञानयोग का यही अंतिम उद्दिष्ट है। 152 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy