SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पदार्थ को केवल नवीनता के कारण बुरा मानते हैं ( मालविकाग्निमित्र 1/2 ) । अनेक व्यक्तियों ने कालिदास की प्रशस्तियां की हैं, तथा अनेक ग्रंथों में उनकी प्रशंसा के पद्य प्राप्त होते हैं। उदा.राजशेखर, दंडी, बाण (हर्षचरित 1/16), तिलक मंजरी (25), आर्या- सप्तशती (35), सोड्डल, कृष्णभट्ट, सोमेश्वर, श्रीकृष्ण कवि, भोज व सुभाषितरत्नभांडागार (2/19, 2/21)। इनके सुप्रसिद्ध काव्य "मेघदूत" के तिब्बती तथा सिंहली भाषा में प्राचीन काल में ही अनुवाद हो चुके हैं। कालिदास उपमा-सम्राट् माने जाते है- (उपमा कालिदासस्य") और कविकुलगुरु तथा कविताकामिनी के विलास जैसे दुर्लभ उपाधियों से भूषित हैं। कालिदास के जीवन व जन्म तिथि के बारे में विद्वानों का एकमत नहीं इसके कई कारण बताये गए हैं। स्वयं कवि का अपने विषय में कुछ भी न लिखना, इनके नाम पर कई प्रकार की किंवदंतियों का प्रचलित होना तथा कृत्रिम नामों का जुड़ जाना और कालांतर में संस्कृत साहित्य में "कालिदास " नाम की उपाधि हो जाना। किंवदंतियों के अनुसार ये अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में कमूर्ख थे, तथा आगे चलकर देवी काली की कृपा से ये महान् पंडित बने। किंवदंतियां इन्हें विक्रम की सभा का रत्न व भोज की राजसभा का कवि भी बतलाती है। इनके बारे में लंका में भी एक जनश्रुति प्रचलित है। तदनुसार लंका के राजा कुमारदास की कृति "जानकीहरण" की प्रशंसा करने पर ये राजा द्वारा लंका बुलाए गए थे। इसी प्रकार इन्हें "सेतुबंध" महाकाव्य के प्रणेता प्रवरसेन का मित्र कहा जाता है एवं मातृकेट से वे अभित्र माने जाते हैं। इनके जन्म-स्थान के बारे में भी यही बात है। कोई इन्हें बंगाली, कोई काश्मीरी, कोई मालव-निवासी, कोई मैथिल, एवं कोई बक्सर के पास का रहने वाला बतलाता है। कालिदास की कृतियों में उज्जैन के प्रति अधिक आत्मीयता प्रदर्शित की गई है। अतः अधिकांश विद्वान इन्हें मालव निवासी मानने के पक्ष में हैं। इधर विद्वानों का झुकाव इस तथ्य की और अधिक है कि इनकी जन्मभूमि काश्मीर व कर्मभूमी मालवा थी पद्मभूषण म.म. डॉ. मिराशी विदर्भ प्रदेश से भी इनका संबंध जोडते हैं। कालिदास के स्थिति-काल को लेकर भारतीय व पाश्चात्य पंडितों में अत्यधिक वाद-विवाद हुआ है। इनका समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी से लेकर ई. छठी शताब्दी तक माना जाता रहा है। परंपरागत अनुश्रुति के अनुसार महाकवि कालिदास, सम्राट् विक्रमादित्य के नवरलों में से एक थे। इनके ग्रंथों में भी विक्रम के साथ रहने की बात सूचित होती है। कहा जाता है कि कालिदास के "शांकुतल" का अभिनय विक्रम की "अभिरूप-भूयिष्ठा" परिषद में ही हुआ था। "विक्रमोर्वशीय नाटक में भी "विक्रम" का नाम उल्लिखित है । "अनुत्सेकः खलु विक्रमालंकारः " इस वाक्य से भी ज्ञात होता है कि कालिदास का विक्रम से संबंध रहा होगा अभिनंदकृत "रामचरित महाकाव्य" के "ख्यातिं कामपि कालिदासकृतयो नीताः शंकारातिना " इस कथन से भी विक्रम के साथ महाकवि के संबंध की पुष्टि होती है। इससे स्पष्ट होता है कि कालिदास शकाराति अर्थात् शक आक्रान्ताओं को परास्त करने वाले विक्रम की सभा में रहे होंगे। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास के समय निरूपण के बारे में तीन मत प्रधान हैं- (क) कालिदास का आविर्भाव षष्ठ शतक में हुआ था, (ख) इनकी स्थिति गुप्तकाल में थी और (ग) विक्रम संवत् के आरंभ में ये विद्यमान थे। प्रथम मत के पोषक फर्ग्युसन प्रभृति विद्वान हैं। इनके मतानुसार मालवराज यशोधर्मा के समय में कालिदास विद्यमान थे। इन्होंने छठी शताब्दी में हूणों पर विजय प्राप्त कर, उसकी स्मृति में 600 वर्ष पूर्व की तिथि देकर मालव संवत् चलाया था। यही संवत् आगे चलकर विक्रम-सवंत् के नाम से प्रचलित हुआ । इन विद्वानों ने "रघुवंश" में वर्णित हूणों की विजय के आधार पर कालिदास का समय छठी शताब्दी माना है तत्र हूणावरोधानां भर्तृषु व्यक्तविक्रमम् । कपोलपाटलादेशि बभूव रघुचेष्टितम् ।1 (4/66) पर यह मत अमान्य हो गया है क्यों कि कुमारगुप्त की प्रशस्ति के रचियता वत्सभट्टि (473 ई.) की रचना में कालिदासकृत "ऋतुसंहार" के कई पद्यों का प्रतिबिंब दिखाई देता है। द्वितीय मत के अनुसार कालिदास गुप्त काल में हुए थे। इसमें भी दो मत हैं- एक के अनुसार वे कुमारगुप्त के राजकवि थे, और द्वितीय मतानुसार इन्हें चन्द्रगुप्त द्वितीय का राजकवि माना जाता है। प्रो. के. बी. पाठक ने इन्हें स्कंदगुप्त विक्रमादित्य का समकालीन कवि माना है। इनके अनुसार वल्लभदेवकृत निम्न श्लोक ही इस मत का आधार है"विनीताध्वश्रमास्तस्य सिंधुतीरविचेष्टनैः । दुधुवुर्वाजिनः स्कंधांल्लग्नकुंकुमकेसरान्।।" पाश्चात्य विद्वानों ने इन्हें शकों को पराजित कर भारत से बाहर खदेड़ने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय का राजकवि माना है। "रघुवंश" के चतुर्थ सर्ग में वर्णित रघु-विजय, समुद्रगुप्त की दिग्विजय से साम्य रखती है तथा इंदुमती के स्वयंवर में प्रयुक्त उपमा के वर्णन में चन्द्रगुप्त के नाम की ध्वनि निकलती है। पर यह मत भी नहीं टिक पाता क्यों कि द्वितीय चन्द्रगुप्त प्रथम विक्रमादित्य नहीं थे और इनसे भी पहले प्राचीन मालवा में राज्य करने वाले एक विक्रम का पता लग चुका है। अतः कालिदास की स्थिति गुप्तकाल में नहीं मानी जा सकती। तृतीय मत के अनुसार कालिदास ईसा पूर्व प्रथम शती For Private and Personal Use Only संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 291. -
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy