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के माने जाते हैं। वे विक्रमादित्य के नवरत्नों में प्रमुख माने द्वितीय सर्ग में सुदक्षिणा व दिलीप के उदात्त स्वरूप के चित्रण गए हैं। हाल की "गाथासप्तशती" में विक्रम नामक दानशील में मानवचरित्र के अंतःसौंदर्य की अभिव्यक्ति हुई है। रघुवंश राजा का उल्लेख प्राप्त होता है (5/64) । स्मिथ के अनुसार के इंदुमती-स्वयंवर में दीप-शिखा की अपूर्व उपमा के कारण इसका रचना-काल 70 ई. के आसपास है। विद्वानों ने विक्रम कवि, “दीपशिखा-कालिदास" के नाम से विख्यात हो गये है। का समय ईसा से एक सौ वर्ष पूर्व माना है। इन्हीं विक्रमादित्य कालिदास ने जहां नागरिक जीवन की समृद्धि व विलासिता को "शकारि" की उपाधि प्राप्त हुई थी। ईसा के 150 वर्ष का चित्रण किया है वहीं तपोनिष्ठ साधकों के पवित्र वास-स्थानों पूर्व, शकों के भारत पर आक्रमण का विवरण प्राप्त होता का भी स्वाभाविक चित्र उपस्थित किया है। कवि का मन है। अतः इससे "शकारि" उपाधि की संगति में भी कोई
जितना उज्जयिनी, अलका व अयोध्या के वर्णन में रमा है, बाधा नहीं पड़ती। भारतीय विद्वानों ने इस विक्रम को ऐतिहासिक उससे कम आसक्ति पार्वती की तपनिष्ठा व कण्व ऋषि के व्यक्ति मान कर उनकी राजसभा में कालिदास की उपस्थिति आश्रम-वर्णन में नहीं दिखाई पडती । स्वीकार की है। अभिनंद ने अपने "रामचरित" में इस बात
कालिदास रसनिष्ठ कलाकार हैं। वे प्रधानतः श्रृंगार रस का उल्लेख किया है कि कालिदास की कृतियों को शकारि
की और आकर्षित हैं किन्तु अज-विलाप, रति-विलाप व यक्ष द्वारा ख्यातिप्राप्त हुई थी।
के अश्रु-सिक्त संदेश-कथन में करुणा का श्रोत उमड़ पडता कालिदास के आश्रयदाता विक्रम का नाम महेंद्रादित्य था। है। अज-विलाप व रति-विलाप में अतीत की प्रणय-क्रीडा कवि ने अपने नाटक "विक्रमोर्वशीय" में अपने आश्रयदाता की मधुर स्मृति के चित्र रह-रह कर पाठकों के हृदय की के इस नाम का संकेत किया है। बौद्धकवि अश्वघोष ने, तारों का झंकृत कर देते हैं। जिनका समय विक्रम का प्रथम शतक है, कालिदास के अनेक
एक सफल नाटककार होने के कारण कालिदास ने अपने पद्यों का अनुकरण किया है। इससे कालिदास का समय,
दोनों प्रबंधकाव्यों में नाटकीय संवादों का अत्यंत कुशलता के विक्रम संवत् का प्रथम शतक सिद्ध होता है। कालिदास को साथ नियोजन किया है। दिलीप-सिंह-संवाद, रघु-इन्द्र-संवाद, उत्तरकालीन मानने वाले विद्वान, कालिदासद्वारा अश्वघोष का
व पार्वती-ब्रह्मचारी-संवाद, उत्कृष्ट संवाद-कला का निदर्शन अनुकरण मानते हैं।
करते हैं। कालिदास को 7 कृतियां प्रसिद्ध हैं जिनमें 4 काव्य तथा
कालिदास ने अपने ग्रंथों में स्थान-स्थान पर समस्त भारतीय 3 नाटक हैं। ऋतुसंहार, कुमारसंभव, मेघदूत, रघुवंश,
विद्या के प्रौढ अनुशीलन का परिचय दिया है। इनकी राजनैतिक मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय व अभिज्ञान-शाकुंतल। इन
व दार्शनिक एवं सामाजिक मान्यताएं ठोस आधार पर अधिष्ठित कृतियों द्वारा कालिदास भारतीय संस्कृति के रसात्मक व्याख्याता
हैं। इन्होंने जीवन के शाश्वत एवं सार्वभौमिक तत्त्वों का रसात्मक सिद्ध होते हैं। भारतीय संस्कृति के 3 महान विषयों- तप,
चित्र प्रस्तुत कर वास्तविक अर्थ में “विश्वकवि" की उपाधि तपोवन व तपस्या, का इन्होंने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
प्राप्त की है। शाकुंतल, रघुवंश व कुमारसंभव में इन तीनों का उदात्त रूप
कालिदास विषयक कथाएँ अंकित है। कालिदास के काव्य में भारतीय सौंदर्य-तत्त्व का उत्कृष्ट रूप चित्रण हुआ है। मनुष्य एवं प्रकृति दोनों का मधुर
कालिदास का कोई अधिकृत चरित्र उपलब्ध नहीं है। संपर्क व अद्भुत एकरसता दिखा कर कवि ने प्रकृति के
प्राचीन साहित्यिकों में कालिदास-विषयक जो भी कुछ कथाएं भीतर स्फुरित होने वाली हृदय संवेदना को पहचाना है। इनके .
प्रचलित हैं, वे ही उस महाकवि का चरित्र है। बल्लालकवि अधिकांश प्रकृति-वर्णन, स्वाभाविकता से पूर्ण व रसमय हैं।
कृत "भोज-प्रबंध" में कालिदास-विषयक विविध दन्तकथाएं कवि ने प्रकृति को भावों का आलंबन बना कर उसके द्वारा
संकलित की गई हैं जिनसे उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं रसानुभूति कराई है। कुमारसंभव व शाकुंतल में पशुओं पर
का परिचय हो सकता है। उनमें से कुछ कथाएं संक्षेप में प्रकृति के मादक एवं करुण प्रभाव का निदर्शन हुआ है।
यहां दी जा रही हैं :कुमारसंभव तो मानों कवि की सौंदर्य-चेतना की रमणीय
कालिदास कथा- १ (विवाह) ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न रंगशाला ही है। इसमें कवि ने हिमालय को जड सृष्टि का
कालिदास के माता-पिता उसे बाल्यकाल में ही छोड़ कर चले रूप न देकर, “देवतात्मा" कहा है जहां पर सभी देवता
गए। एक ग्वाले ने उसे पाल-पोस कर बडा किया। वह आकर निवास करते हैं।
अठारह वर्ष की आयु तक अनपढ एवं जडबुद्धि ही था।
स्थानीय राजा की कन्या सुन्दर, सुविद्य तथा कलाभिज्ञ थी। ___ कालिदास भारतीय सांस्कृतिक चेतना के पुनर्जागरण के
उसके विवाह के लिये उसके पिता ने कई वर देखे पर उस कवि है। इनकी कलात्मक कविता में प्रेम, सौंदर्य व मानवता
कन्या को एक भी पसन्द न आया। तब राजा ने ऊब कर को उन्नत करनेवाले भावों की अभिव्यक्ति हुई है। रघुवंश के
वरसंशोधन का कार्य अपने प्रधान को सौंपा। किसी कारणवश
292 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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