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तथा समुद्रगुप्त के "कृष्णचरित" में भी इसका निर्देश है। इसके अनेक पद्य "शारङ्गधर पद्धति", "सदुक्तिकर्णामृत" व "सूक्तिमुक्तावली" में प्राप्त होते हैं। इन्होंने कोई काव्यशास्त्रीय ग्रंथ भी लिखा था जो संप्रति अनुपलब्ध है, किन्तु इसका विवरण "अभिनवभारती" व "श्रृंगारप्रकाश" में है। ___ इनके अन्य ग्रंथों के नाम हैं-"भाज", "संज्ञक श्लोक" तथा "उभयसारिकाभाण"। कात्यायन के नाम पर कुल 26 ग्रंथ प्राप्त होते हैं। कात्यायन (स्मृतिकार) - "कात्यायनस्मृति" के रचयिता भारतरत्न पी. वी. काणे के अनुसार इनका समय ईसा की तीसरी या चौथी शताब्दी है। इनका धर्मशास्त्र विषयक कोई भी ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। विविध धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में इनके लगभग 900 श्लोक उद्धृत हैं। दस निबंध ग्रंथों में इनके व्यवहार संबंधी उद्धृत श्लोकों की संख्या 900 मानी जाती है। एकमात्र “स्मृतिचंद्रिका" में ही इनके 600 श्लोकों का उल्लेख है। जीवानंद संग्रह में कात्यायनकृत 500 श्लोकों का एक ग्रंथ प्राप्त होता है। यही ग्रंथ "कर्मप्रदीप" या "कात्यायनस्मृति" के नाम से विख्यात है। इस ग्रंथ के अनेक उदाहरण मिताक्षरा व अपरार्क ने भी दिये हैं। कात्यायनस्मृति लेखक कौन है, यह भी विवादास्पद विषय हुआ है। कास्थक्य - यह नाम निरुक्त में सात बार और बृहद्देवता में एक बार निर्दिष्ट है। इस निर्देश के आधार पर, कात्थक्य आचार्य, न केवल गण्यमान्य निरुक्तकार अपि तु बडे याज्ञिक भी होंगे ऐसा विद्वानों का तर्क है। कामंदक - प्राचीन भारतीय राज्यशास्त्र के एक प्रणेता एवं राज्यशास्त्र विषयक ग्रंथ "कामंदकनीति" के रचयिता। इनके समय निरूपण के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं। डा. अनंत सदाशिव आल्तेकर के अनुसार, "कामंदकनीति" का रचनाकाल 500 ई. के आसपास है। इस ग्रंथ में भारतीय राज्यशास्त्र के कतिपय लेखकों के नाम उल्लिखित हैं जिनसे इनके लेखन काल पर प्रकाश पडता है। मनु, बृहस्पति, इन्द्र, उशना, मय, विशालाक्ष, बाहुदंतीपुत्र, पराशर व कौटिल्य के उद्धरण, “कामंदकनीति" में यत्र तत्र प्राप्त होते हैं। इससे स्पष्ट है कि इस ग्रंथ की रचना कौटिल्य के बाद ही हुई होगी। कामंदक ने अपने ग्रंथ में स्वीकार किया है कि इस ग्रंथ के लेखन में कौटिल्य के “अर्थशास्त्र" की विषयवस्तु का आश्रय ग्रहण किया गया है। "कामंदकनीति" की रचना 19 सर्गों में हुई है। इस ग्रंथ में 1163 श्लोक हैं। ग्रंथारंभ में विद्याओं का वर्गीकरण करते हुए उनके 4 विभाग किये गए हैं। आन्वाक्षीकी, त्रयी, वार्ता व दंडनीति। इसमें बताया गया है कि नय (न्याय) व अनय का सम्यक् बोध करानेवाली विद्या को दंडनीति कहते हैं। इसमें वर्णित विषयों की सूची इस प्रकार है :- राज्य का स्वरूप, राज्य की उत्पत्ति का
सिद्धान्त, राजा की उपयोगिता, राज्याधिकारविधि, राजा का आचरण, राजा के कर्तव्य, राज्य की सुरक्षा, मंत्रिमंडल, मंत्रिमंडल की सदस्यसंख्या, कार्यप्रणाली, मंत्र का महत्त्व, मंत्र के अंग, मंत्र के भेद, मंत्रणा-स्थान, राजकर्मचारियों की आवश्यकता, राजकर्मचारियों के आचार व नियम, दूत का महत्त्व, योग्यता, प्रकार व कर्तव्य, चर व उसकी उपयोगिता, कोश का महत्त्व, आय के साधन, राष्ट्र का स्वरूप व तत्त्व, सैन्य, बल, सेना आदि के अंग। कामंदककृत विविध राज मंडलों के निर्माण का वर्णन भारतीय राज्यशास्त्र के इतिहास में, अभूतपूर्व देन के रूप में स्वीकृत है। कामाक्षी - तंजौर जिले के गणपति अग्रहार की निवासी। पंचपागेशाचार्य की कन्या। कालिदास के अनुकरण पर रचना "रामचरितम्" जिसमें कालिदास के शब्द तथा वाक्यों का प्रचुर प्रयोग है। पति- विद्वान् मुथुकृष्ण। कडलोर में संस्कृत की प्राध्यापिका। समय 19 वीं शती। समस्त लेखन कार्य वैधव्यावस्था में हुआ। सभी कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। कालनाथ- ई. 12 वीं शती। यजुर्मन्जरी के लेखक। यजुर्मन्जरी, यजुर्विधानान्तर्गत लगभग 250 मंत्रों का भाष्य है। कालनाथाचार्य ने अपने ग्रंथ में अपना परिचय दिया है। तदनुसार वे महाराज देवराजा के सभापण्डित और पंचनद के निवासी थे। संभवतः यह स्थान राजस्थान समीपवर्ती होगा ऐसा विद्वानों का तर्क है। यजुर्मंजरी, उवटभाष्य की छायामात्र प्रतीत होती है। कालहस्ती- "वसुचरित्रचंपू' नामक काव्य के रचियता। ये अप्पय दीक्षित के शिष्य कहे जाते हैं। समय 17 वीं शती। “वसुचरित्रचंपू' अभी तक अप्रकाशित है। उसका विवरण तंजौर कैटलाग संख्या 4/46 में प्राप्त होता है। कालिदास- महाकवि कालिदास संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ कवि व नाटककार तथा भारतीय साहित्य और प्राचीन भारतीय अंतरात्मा के प्रतिनिधि हैं। भारतीय सौंदर्य-दर्शन की सभी विभूतियां इनके साहित्य में समाहित हो गई हैं। ऐसे सुप्रसिद्ध कवि का जीवनचरित्र अद्यापि अनुमान का विषय बना हुआ है। महाकवि ने अपने ग्रंथों में स्थान-स्थान पर जो विचार व्यक्त किये हैं, उनसे उनकी प्रकृति का पता चलता है। अपने "रघुवंश"महाकाव्य के प्रथम सर्ग में कवि ने अपनी विनम्र प्रकृति का परिचय दिया है। अपनी प्रतिभा को हीन बताते हुए महाकवि, रघु जैसे तेजस्वी कुल के वर्णन में स्वयं को अमर्थ पाते हैं
और छोटी नाव द्वारा सागर को पार करने की तरह अपनी मूर्खता प्रदर्शित करते है (1/2-4)। कवि, विद्वानों की महत्ता स्वीकार करते हुए, उनकी स्वीकृति पर ही अपनी रचना को सफल मानता हैं (शाकुंतल 1/2)। कवि होने पर भी उनमें आलोचक की प्रतिभा विद्यमान है। वे प्रत्येक प्राचीन वस्तु को इसलिये स्तुत्य नहीं मानते कि वह पुरानी है और न नये
290 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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