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गणितपाद, कालक्रियापाद और गोलपाद । श्लोक-संख्या 121 है। द. भारत में इस ग्रंथ का प्रचार विशेष रूप से हुआ। इसके आधार पर बना पंचांग दक्षिण के वैष्णवपंथी लोगों को मान्य है। आर्यभट्ट (द्वितीय) - ई. 8 वीं शती। ज्योतिष-शास्त्र के एक आचार्य और गणिती। भास्कराचार्य के पूर्ववर्ती । ज्योतिष-शास्त्र विषयक एक अत्यंत प्रौढ ग्रंथ 'महाआर्य सिद्धांत' के प्रणेता। भास्कराचार्य के सिद्धांत-शिरोमणि' में इनके मत का उल्लेख मिलता है।
आर्यशूर- 'जातकमाला' या 'बोधिसत्त्वावदानमाला' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ के रचयिता। समय- ई. तृतीय-चतुर्थ शती। आर्यशूर ने बौद्ध जातकों को लोकप्रिय बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। अश्वघोष की भांति बौद्धधर्म के सिद्धांतों को साहित्यिक रूप देने में आर्यशूर का भी बड़ा योगदान है। 'जातकमाला' की ख्याति बाहरी बौद्ध-देशों में भी थी। इसका चीनी रूपांतर (केवल 14 जातकों का) 690 से 1127 ई. के मध्य हुआ था। इत्सिंग के यात्रा-विवरण से ज्ञात हुआ कि 7 वीं शताब्दी में इसका बहुत प्रचार हो चुका था। अजंता की दीवारों पर 'जातकमाला' के कई जातकों के चित्र (दृश्य) अंकित हैं। इन चित्रों का समय 5 वीं शताब्दी है। 'जातकमाला' के 20 जातकों का हिन्दी अनुवाद, सूर्यनारायण चौधरी ने किया है। आर्यशूर की दूसरी रचना का नाम है- 'पारमिता-समास' जिसमें 6 पारमिताओं का वर्णन किया है। 'जातकमाला' की भांति इसकी भी शैली सरल व सुबोध है। अन्य रचनाएं- सुभाषितरत्नकरंडक-कथा, प्रातिमोक्षसूत्रपद्धति, सुपथनिर्देशपरिकथा और बोधिसत्वजातक-धर्मगंडी।
आर्यशूर की काव्यशैली, काव्य के उपकरणों पर उनके अधिकार को दिखाई हुई, अत्युक्ति से रहित व संयत है। उनका गद्य व पद्य समान रूप से सावधानी के साथ लिखा गया है और परिष्कृत है। आशाधरभट्ट (प्रथम) - काव्यशास्त्र के एक जैन आचार्य। जन्मस्थान-अजमेर। ई. 13 वीं शती। माण्डलगढ़ (मेवाड) के मूल निवासी। बाद में मेवाड़ पर शहाबुद्दीन गोरी के आक्रमणों से त्रस्त होकर धारा नगरी में आ बसे । जाति-वर्धरवाल। पिता-सल्लक्षण। माता-श्रीरानी। पत्नी-सरस्वती। पुत्रनाम-छाहड। मालवनरेश अर्जुन वर्मदेव के सन्धिविग्रह मंत्री। गुरु-महावीर पण्डित। 'नयविश्वचक्षु', 'कलिकालिदास', 'प्रज्ञापुंज' आदि नामों से उल्लिखित । शिष्यनाम- मदनकीर्ति, विशालकीर्ति व देवचन्द्र । धारानगरी से दस मील दूर नलमच्छपुर में सरस्वती की साधना करते रहे। नेमिनाथ मंदिर ही उनका विद्यापीठ रहा है। ये व्याघ्ररवालवंशीय थे, और आगे चल कर जैन हो गए थे।
रचनाएं- आशाधर द्वारा लिखित बीस ग्रंथ मिलते हैं, जिनमें मुख्य ग्रंथ चार हैं- 1. अध्यात्म-रहस्य अपरनाम योगोद्दीपन
(72 पद्य), 2. धर्मामृत- इसके दो खण्ड हैं- अनगारधर्मामृत जो मुनिधर्म की व्याख्या करता है और सागारधर्मामृत जो गृहस्थ-धर्म को स्पष्ट करता है, 3. जिनयज्ञकल्प- यह ग्रंथ प्रतिष्ठाविधि का सम्यक् प्रतिपादन करता है और 4. त्रिषष्टिस्मृतिचंद्रिका- 63 शलाका- पुरुषों का संक्षिप्त जीवन-परिचय प्रस्तुत करता है। इनके अतिरिक्त मूलाराधना-टीका, इष्टोपदेशटीका, भूपालचतुर्विपूर्तिटीका, आराधनासार टीका, प्रमेयरत्नाकर, काव्यालंकार-टीका, सहस्र-नामस्तवन टीका, भरतेश्वराभ्युदय (चंपू) आदि ग्रंथ भी उल्लेखनीय हैं।
इन्होंने अपने एक ग्रंथ 'त्रिषष्टिस्मृतिचंद्रिका' का रचना-काल 1236 दिया है। इनका पता डॉ. पीटरसन ने 1883 ई. में लगाया था। संस्कृत अलंकार-शास्त्र के इतिहास में दो आशाधर नामधारी आचार्यों का विवरण प्राप्त होने से नाम-सादृश्य के कारण, डॉ. हरिचंद शास्त्री जैसे विद्वानों ने दोनों को एक ही लेखक मान लिया था पर वस्तुतः दोनों ही भिन्न हैं। द्वितीय आशाधर भट्ट का पता डॉ. बूलर ने 1871 ई. में लगाया था। आशाधरभट्ट (द्वितीय)- काव्यशास्त्र के एक आचार्य । समय ई. 17 वीं शताब्दी का अंतिम चरण। पिता-रामजी भट्ट। गुरु-धरणीधर । इन्होंने अपनी 'अलंकार-दीपिका' में अपना परिचय इस प्रकार दिया है- "शिवयोस्तनयं नत्वा गुरुं च धरणीधरम्। आशाधरेण कविना रामजीभट्टसूनुना।।' इन्होंने अप्पय दीक्षित के 'कुवलयानंद' की टीका लिखी है। अतः ये उनके परवर्ती सिद्ध होते हैं। इनके अलंकारविषयक 3 ग्रंथ प्रसिद्ध हैं- कोविदानंद, त्रिवेणिका व अलंकार-दीपिका । कोविदानंद अभी तक अप्रकाशित है। इसका विवरण त्रिवेणिका' में प्राप्त होता है। डॉ. भांडारकर ने 'कोविदानंद' के एक हस्तलेख की सूचना दी है जिसमें निम्न श्लोक है
प्राचां वाचां विचारेण शब्द-व्यापारनिर्णयम्।
करोमि कोविदानंदं लक्ष्यलक्षणसंयुतम्।। शब्दवृत्ति के इस अपने प्रौढ ग्रंथ पर आशाधर भट्ट ने स्वयं ही 'कादंबिनी' नामक टीका भी लिखी है।
"त्रिवेणिका' का प्रकाशन 'सरस्वती-भवन-टेक्स्ट' ग्रंथमाला, काशी से हो चुका है। अलंकार-शास्त्र-विषयक इन 3 ग्रंथों के और 2 टीकाओं के अतिरिक्त आशाधर भट्ट ने 'प्रभापटल' व अद्वैतविवेक' नामक दो दर्शन-ग्रंथों की भी रचना की है।
ये आशाधर भट्ट (प्रथम) से सर्वथा भिन्न व्यक्ति हैं। इनका पता डॉ. बूलर ने 1871 ई. में लगाया था। आशानन्द- समय 1745-1787 ई.। आप महाराजा अनूपसिंह के प्रपौत्र महाराजा गजसिंह के राज्यकाल में बीकानेर में निवास करते थे। आपने राजा के आश्रय में रहकर 'आनन्दलहरी' को प्रणीत किया था। आश्मरथ्य- व्यासकृत ब्रह्मसूत्रों में इनका उल्लेख है। इनके अनुसार परमात्मा एवं विज्ञानात्मा में परस्पर भेदाभेद संबंध है।
280 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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